तुम मन चंचल बहता झरना
मैं शांत स्वभावी नदी किनारा
तुम राह गर्म, मैं राही हारा
कैसे थाम लूँ हाथ तुम्हारा?
तुम महका गुलाब धरे कंचन काया
मैं शुष्क बबूल, न फल न छाया
कंटीला कर दूँ पथ तुम्हारा?
कैसे थाम लूँ हाथ तुम्हारा?
तुम प्रेम-मधु छलकाता प्याला
मैं जोगी, प्रभू की जपता माला
व्यर्थ होगा, मेरा तप सारा
कैसे थाम लूँ हाथ तुम्हारा?
तुम मुक्त गगन में पंछी उड़ता
मैं शब्द-भाव में उलझा रहता
कहो ‘कवि’ ने किसको उबारा?
कैसे थाम लूँ हाथ तुम्हारा?
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39 कविताप्रेमियों का कहना है :
कविता अच्छी है.....
बिंब नये एवं सुंदर है परंतु कविता अधूरी सी लगती है...
कृपया इसे पूर्ण करे
शुभेच्छाएं
giri raj yeh kavta bahut aachi hai
so nice rearlly good
मैं भी इस कविता का एक पेरा जाडना चाहूगा।
जो भी हो फैसला तुम्हारा
फिर भी चाहो संग हमारा
मैं हूं भक्त प्रभू की माया
कैसे थाम लूँ हाथ तुम्हारा?
एक प्रेमी मन की बढ़िया अभिव्यक्ति की है आपने जोशी जी
कविता मनॊरम है परन्तु अन्त अपेक्षित नहीं है मानॊ कवि ने वक्त से पहले ही कलम छॊड दी है।
साथ ही एक प्रश्न है हिन्द युग्म से कि आज तॊ खबरी जी का दिन था
ek achhi kavita ke liye badhyi Giri
realy very goods and kavita ha joshi ji
very nice kavita ha joshi ji
अगर मनुष्य मे दैवीय गुण नही है तो ऎसी कविता की रचना नही हो सकती है,
नमन है उस मनु को जो शाश्वत विचारो को कविता मे पिरो देता है................................................................शत् शत नमन है
कविता बेहतरीन है.....
प्रेमी ह्र्दय से निकला प्रश्न लाजवाब है....
बहूत खूब.....
[:)]
मुझे आपकी सबसे अच्छी कविताओं में से यह लगी।
सुन्दर बिम्ब और मधुरता के साथ प्रश्न करती यह कविता अपने रचियता की पूरी बात कह देती है।
तुम राह गर्म, मैं राही हारा
कंटीला कर दूँ पथ तुम्हारा?
कहो ‘कवि’ ने किसको उबारा?
ऐसा ही लिखते रहें। युग्म पर सच में बहुत अच्छा काव्य लिखा जा रहा है।
acchi kavita hai .
kavita mujhe bhi adhuri lagi giri ji.... aapki dusari kavita ki tarah sakhakt nahi lagi..... aap jaisa kavi itna bebas kaise ho sakta hai
अरे गिरी जी बस हिम्मत कीजिये और पकड लीजिये फ़िर देखिये... आप किनारे उस उठ तेज प्रवाह में बहने लगेंगे, कांटे खुदबखुद फ़ूल बन जायेंगे, तप का फ़ल ही तो आप पा रहे हैं... हाथ की शक्ल में, अब उबरने और डूबने की मत पूछिये... कभी कभी डूबने में जो मजा है वो उबरने में भी नहीं...
सुन्दर रचना.
तुम मन चंचल बहता झरना
मैं शांत स्वभावी नदी किनारा
तुम राह गर्म, मैं राही हारा
कविता बहुत अच्छी है..पहले छंद से ही प्रेमी की पीड़ा और दुविधा का पता चलता है..
मेरा सभी मित्रों और कवियों से अनुरोध है कि जो कविता अधूरी सी लगती हो उसे आप सब मिल कर पूरा करिये, इससे कविता एक नये रूप में अच्छी सी लगने लगेगी और अधूरी भी नहीं रहेगी।
@ कवि
भाई क्या सारे कवि तन्हा ही रहते होंगे? जो हाथ बढ़ा है थाम लो, ज्यादा सोचोगे तो पछताओगे।
कवि के मन की उलझन परंतु आस्क्ति लिये भाव कविता को हृदय स्पर्शी बनाते हें, बधाई..
गिरि जी आप तो हर विधा के उस्ताद हैं, फिर चाहे वो हास्य-रस हो या गंभीर भाव। इस बार आपने प्रेम को चुना है और इसे अच्छे से निभाया है। लोगों का कहना है कि कविता अधुरी सी लगती है ,लेकिन मुझे ऎसा नहीं लगता। मेरे अनुसार इसतरह की रचनाएँ लंबाई की मोहताज नहीं होती । बाकी आप जैसा सोचें [:)]
कविता जो असमंजस और आकुलता है.. उसमें गालिब़ का एक शेर जेहन में उभर रहा है
है इश्क नहीं आसां बस इतना समझ लीजे
इक आग का दरिया है और डूब के जाना है
कविता जो असमंजस और आकुलता है..
it was really gr8
it touched heat
i saluate u 4 ur beautiful imagination.
jst luv it !!!!!!!!!!!!!!!!!
plz keep on sending such a beautiful poems.
कविता अच्छी है किन्तु मेरे बन्धु इन कविताओं के साथ ही हम आपसे कुछ हास्य रस की कविताओं की आशा करते हैं.
कृपया इसे हमारी इच्छा मानते हुए शीघ्र ही पूर्ण करावें
Badhiya abhivyakti joshi ji, Dhanyavad
अरे वाह जोशी जी! ये मर्ज़ कहाँ लगा ली आपने? मगर भाई, बिना काँटों के तो गुलाब का वज़ूद ही खतरे में पड़ जायेगा. तो बिना चिंता किये हाथ थाम ही लो.
कविता अच्छी लगी!
कविराज
काव्य की हर विधा में आपका सशक्त दखल है
बहुत बढिया लिखा है
"तुम राह गर्म, मैं राही हारा"
"तुम मुक्त गगन में पंछी उड़ता
मैं शब्द-भाव में उलझा रहता
कहो ‘कवि’ ने किसको उबारा?"
नये बिंब हैं आपकी कविता में... थोडा समय और जरा सा श्रम कविता को और सुन्दर बना सकता है
बधाई
सस्नेह
गौरव शुक्ल
Main man chanchal behata jharna
tum shaant swabhaavi nadi kinara
main ghat ghat phirta awara
tum hi baandh sako mujhse apni dhaara
kyun na thaamu haath tumhara?
main mehka gulaab dhare kanchan kaya
tum kateela babul na phal n chaya
sajunga main hi jab bhandhoge tum sehra
tum hi the rakshak mere jahaan bhi main raha
kyun na thaamu haath tumhara?
main prem madhu chalakta pyala
tum jogi prabhu ki japte mala
sampoorna hoga tera tap saara
bin prem ke kis jogi ka jog rang paya
kyun na thaamu haath tumhara?
main mukt gagan me panchi udta
tum shabd bhaav me uljhe rahete
'kavi' ne meri udaan ko ubhara
tere hi sapno ko liye neel gagan ka
karta hu bhraman saara
kyun na thaamu haath tumhara?
Kavita kaafi aachi hai.....aapki kavita par kavita likhne se ham khud ko rok na paaye....umeed karte hain aap bura nahi maanenge....aapki kavita me itna prabhaav hai ki hamen likhne par majboor kar diya.....har shabd moti hai....har bhaav kamal hai....
keep writing
Always
Anu
कविता बहुत अच्छी है. तारीफ के लिए शब्द नही है. आगे इसी तरह साथ बना रहेगा
वाह गिरिराज जी..
बहुत सुन्दर रचना, नये बिम्ब और आपकी प्रचलित शैली से बिलकुल अलग...
मैं शुष्क बबूल, न फल न छाया
कंटीला कर दूँ पथ तुम्हारा?
मैं शब्द-भाव में उलझा रहता
कहो ‘कवि’ ने किसको उबारा?
कैसे थाम लूँ हाथ तुम्हारा?
प्रसंशनीय!!
*** राजीव रंजन प्रसाद
कविता
सुंदर है.....
प्रेमी मन की
सुंदर अभिव्यक्ति ....
जोशी जी !
ऐसा ही
लिखते रहें।
kuch pannktiya saajh se pare hai
तुम राह गर्म, मैं राही हारा
तुम प्रेम-मधु छलकाता प्याला
मैं जोगी, प्रभू की जपता माला
व्यर्थ होगा, मेरा तप सारा
तुम मुक्त गगन में पंछी उड़ता
मैं शब्द-भाव में उलझा रहता
कहो ‘कवि’ ने किसको उबारा?
men kuch bhav spshat nahi ho raha, vaise kafi log achchha kah rahe hai, iskiye chahe to meri tippni ko ignor kare ya eri baat aapko sahi lag rahi ho to in panktiyo ko spashat kare.
बन्दु आपकी कविता और आपसे जुडे पाठक के भाव बहूत ही सुन्दर। अति प्रशन्ता हुई। सचमुच अच्छे भाव और शब्दो का चयन बहुत ही अच्छे है।
बहुत अच्छा लिखा है भईया... भाव अपने आप मे पूर्ण हैं।
वैसे कविता को जोड़्ना मै भी चाहती थी मगर फ़िर सोचा रहने दे कविराज की पहले ही बहुत खिंचाई हो गई है...अच्छी कविता है...
सबसे खूबसूरत पक्तिं है...
तुम मन चंचल बहता झरना
मैं शांत स्वभावी नदी किनारा
सुनीता(शानू)
बहुत खूब कविराज जी
तुम प्रेम-मधु छलकाता प्याला
मैं जोगी, प्रभू की जपता माला
व्यर्थ होगा, मेरा तप सारा
कैसे थाम लूँ हाथ तुम्हारा?
बहुत ही सुंदर रचना है
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति है । आपने प्रेम में जितना सोचस है उतना सोचना शायद
सम्भव नहीं होता । और एक बात । प्रेम हमेशा विरोधी स्वभाव में होता है । यदि इस कविता
को मेरी आवाज़ में सुनना चाहें तो इस लिनक पेर सुनें। शुभ कामनाओं सहित http://ritbansal.mypodcast.com/index.html
गिरिराज जी, लौकिक और अलौकिक का सुन्दर तालमेल किया है ।
गिरिराज जी,
मैं परसो से यह सोच रहा था कि आपकी इस कविता को अपनी आवाज़ दूँ, लेकिन शोभा जी ने बाज़ी मार ली।
मुझे यह बहुत पसंद आई। ग़ज़ब का आकर्षण है इस कविता में। इस तरह की कविताएँ ४-५ पन्नों की हों तब भी मज़े से पढ़ा जा सकता है।
वैसे अनुपमा जी की टिप्पणी भी कम रोचक नहीं है। अब आपसे और उम्मीद बँध गई है।
मैं शब्द-भाव में उलझा रहता
कहो ‘कवि’ ने किसको उबारा?
कवि-मन की प्रणय-दुविधा का सटीक चित्रण है यहाँ.
दूरियों से फर्क पड़ता नहीं
बात तो दिलों कि नज़दीकियों से होती है
दोस्ती तो कुछ आप जैसो से है
वरना मुलाकात तो जाने कितनों से होती है
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