तुम कौन हो मेरे
तुम्हें देखकर जीती हूँ मैं शाम सवेरे
हरसू लिपटे हैं मुझसे तेरी बाहों के घेरे
तुम कौन हो मेरे.....
अंधेरे के बाद जैसे छटा हो कोई उजियारा
आँचल से मेरे बह निकली है तेरे प्रेम की धारा
तेरी बाहों में बसते देखा है अपना संसार सारा
पल-पल मेरे लब सिमरे नाम को तेरे
तुम कौन हो मेरे.....
करीबियों से तेरी, धड़कनें दिल की तेज़ चलीं
जैसे मुझसे बेवज़ह रंज़िश हो कोई
बीती रातें सारी और हसरतें न सोईं
मुझको पसन्द हैं अब तन्हाइयों के सिरे
तुम कौन हो मेरे.....
मेरी माँग में तुम्हीं तो सजे थे
टूटी चूड़ियों को हाथों में लिये खड़े थे
तेरे ही संग सातों फेरे पड़े थे
सूनी-सूनी आँखों में सपने ऐसे बसते हैं तेरे
तुम कौन हो मेरे.....
जिस दिन से तुमने मेरे मन को छुआ
जिस्म का रोम-रोम पावन हुआ
पलकों को आँसुओं का बोध हुआ
तुम संग बन्ध गये प्राण मेरे
तुम कौन हो मेरे.....
पाप धुले हैं तेरी देहरी पर आकर
मुक्त हुई हूँ आज तुम्हें पाकर
सर्वस्व अर्पित करती हूँ तुम्हें शीश झुकाकर
तुममें सिमट गये मेरी ज़िन्दगी के दायरे
तुम कौन हो मेरे.....
तेरी उपमा तेरे ही भीतर पल रही हूँ
रौशन नहीं रूह तेरी, के मैं डगमगा रही हूँ
ज़रा ठहरो दिया जला दूँ वहाँ, फिर जा रही हूँ
काधों पर तुम ही उठाना साँसें जब भी बिखरें
तुम कौन हो मेरे.....
खोने को कुछ भी नहीं पास मेरे तुम्हारे सिवा
ता उम्र जिऊँ तेरे बिन ये कैसी थी तेरी दुआ
युगों बाद,
आज मेरा मुकम्मिल अंत ले रहा है दुनियाँ से विदा
तुझको रुकसत करते हैं मेरी यादों के गलियारे
तुम कौन हो मेरे.....
**********अनुपमा चौहान*************
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13 कविताप्रेमियों का कहना है :
अच्छी रचना लगी अनुपमा जी।
मुझको पसन्द हैं अब तन्हाईयों के सिरे
तुममे सिमट गये मेरी ज़िन्दगी के दायरे
तेरी उपमा तेरे ही भीतर पल रही हूँ
रौशन नहीं रूह तेरी,के मै डगमगा रही हूँ
ज़रा ठहरो दिया जला दूँ वहाँ,फिर जा रही हूँ
काधों पर तुम ही उठाना साँसें जब भी बिखरें
लिखती रहिए। फिर से बहुत बधाई।
अंधेरे के बाद जैसे छटा हो कोई उजियारा
बीती रातें सारी और हसरतें न सोईं
पाप धुले हैं तेरी देहरी पर आकर
मुक्त हुई हूँ आज तुम्हें पाकर
सर्वस्व अर्पित करती हूँ तुम्हें शीश झुकाकर
तुममें सिमट गये मेरी ज़िन्दगी के दायरे
तुम कौन हो मेरे.....
अनुपमा जी, बहुत सुन्दरता से भावों को शब्द दिये हैं आपने। एक एक पंक्ति परिपक्व है।
*** राजीव रंजन प्रसाद
अनुपमा जी,
बहुत दिनों बाद युग्म पर आप की उपस्थिति ऐसी भावपूर्ण रचना के साथ अत्यन्त सुखद है
कविता बहुत सुन्दर है, और प्रबल भावपक्ष तो आपकी कविताओं की विशेषता है
"जैसे मुझसे बेवज़ह रंज़िश हो कोई
बीती रातें सारी और हसरतें न सोईं
मुझको पसन्द हैं अब तन्हाइयों के सिरे"
"पाप धुले हैं तेरी देहरी पर आकर
मुक्त हुई हूँ आज तुम्हें पाकर
सर्वस्व अर्पित करती हूँ तुम्हें शीश झुकाकर
तुममें सिमट गये मेरी ज़िन्दगी के दायरे
तुम कौन हो मेरे....."
"रौशन नहीं रूह तेरी, के मैं डगमगा रही हूँ
ज़रा ठहरो दिया जला दूँ वहाँ, फिर जा रही हूँ
काधों पर तुम ही उठाना साँसें जब भी बिखरें"
वाह!! कितना गहरा लिखा है...
"तुझको रुकसत करते हैं मेरी यादों के गलियारे
तुम कौन हो मेरे....."
अच्छे बिम्ब और गहरे भाव पढते समय बाँधे रहते हैं
अनुपमा की अनुपमेय कविता :-)
बहुत सुन्दर
हार्दिक बधाई
सस्नेह
गौरव शुक्ल
आपके पद्य में एक रहस्य का आवरण है. परदे की ओट से सब कुछ नजर नहीं आता. क्या आप गद्य में कुछ खुलासा करेंगी.
अनुपमा जी!
हिन्द-युग्म पर काफी समय बाद आपको देखकर अच्छा लगा. कविता भी बहुत सुंदर है. भावों की गहनता तो यूँ भी आपकी रचनाओं की विशेषता है. बहुत खूब! बधाई.
जिस दिन से तुमने मेरे मन को छुआ
जिस्म का रोम-रोम पावन हुआ
पलकों को आँसुओं का बोध हुआ
तुम संग बन्ध गये प्राण मेरे
तुम कौन हो मेरे.....
बहुत खूब.... बधाई.
सुंदर रचना है अनुपमा जी,
रचना बेहतरीन है। बाकि भाव बहुत ही रॊचक एवं दिल कॊ छूने वाले हैं। प्रेमरस हॊता ही एसा है।
सुंदर रचना अनुपमा जी!!
शुक्रिया!
Its great Achivement..
Really u deserve a Excellent Reward for This..
Any way ,, Heartiest congrats 2 u.
4 ur Marvelous Achivement..........
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CONGRATS
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बहुत सुन्दर रचना...
दो लाईन में सार कहूंगा
कुछ सुबहें ऐसी हैं जिनकी कोई शाम नही
कुछ रिश्ते ऐसे भी हैं जिनका कोई नाम नही
करीबियों से तेरी, धड़कनें दिल की तेज़ चलीं
जैसे मुझसे बेवज़ह रंज़िश हो कोई
बीती रातें सारी और हसरतें न सोईं
मुझको पसन्द हैं अब तन्हाइयों के सिरे
तुम कौन हो मेरे.....
ज़रा ठहरो दिया जला दूँ वहाँ, फिर जा रही हूँ
काधों पर तुम ही उठाना साँसें जब भी बिखरें
तुम कौन हो मेरे.....
आज मेरा मुकम्मिल अंत ले रहा है दुनियाँ से विदा
तुझको रुकसत करते हैं मेरी यादों के गलियारे
उपरोक्त पंक्तियाँ मुझे विशेषकर पसंद आईं।
खोने को कुछ भी नहीं पास मेरे तुम्हारे सिवा
ता उम्र जिऊँ तेरे बिन ये कैसी थी तेरी दुआ
दिल का दर्द उड़ेल दिया है आपने यहाँ। जिसके बिना जीने की मजबूरी हो और जो दिल के सबसे करीब हो , उससे यह पूछना कि तुम कौन हो मेरे,अपने आप में हीं एक अनूठा काम है। आपने बखूबी अपनी रचना के साथ न्याय किया है।
बधाई स्वीकारें।
जैसा की मै हमेशा से ही पक्षधर रहा हूँ की कविता हमेशा गत्यत्मक होनी चाहिए....
ख़ास कर यह तब बहुत ही ज़रूरी हो जाता है जब की यह नयी कविता ना हो कर एक लय और टुक युक्त गद्य हो.....
पर आप के भाव बड़े ही अच्छे है और शब्द चयन भी अच्छा है...
इस प्रकार की कविता तब निकलती है जब आप बिना मूड के लिखने बैठ जाय..........
अब भी कविता अच्छी है ....
बधाइयाँ
अगर यह गीत विधा की कविता है तो इसमें प्रवाह का बहुत अभाव है। भाव गहरे हैं। पढ़ने में मज़ा तो आता है लेकिन गीत गाने में सरल होनी चाहिए।
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