मेरे शहर में बारिश, क्या गुल खिला गयी
चेहरों के रंग सारे, सभी के बहा गयी
झूठा था आइना कभी, सच बोलने लगा
सबकी असली सूरत, नकाबों पे छा गयी
मोहब्बतों के फलसफ़े, प्यार की कहानियाँ
आई जो बाढ़ शहर में, सबको मिटा गई
गलियों में सब सियार हैं, सड़कों पे भेड़िये
वहशत जो थी ज़हन में, इन्साँ को खा गयी
रास्तों पे इस कदर, कीचड़ बिछी थी चार सू
हमने बचाये पाँव वो दामन पे आ गयी
सियासतो-मज़हब सदा, झगड़ों के बायस ही बने
ये नफरतों की आग तो, हर आशियाँ जला गई
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13 कविताप्रेमियों का कहना है :
hi
ajay
ek baar phir khoobsurat rachna.
is baarish k kya kehne.
मेरे शहर में बारिश, क्या गुल खिला गयी
चेहरों के रंग सारे, सभी के बहा गयी
झूठा था आइना कभी, सच बोलने लगा
सबकी असली सूरत, नकाबों पे छा गयी
good very good.
namaskar ajay jiiiiiiii
ajay ji aapki kavita me yadharth sach jhalakta he aapki rachana hame apne baare me sochane par mazboor karti he
hame hamesha apne baare me hi nahi sochana chahiye
ham apne apko kab tak is kichad se bachayenge
hame is kichad ko hi khatm karna hoga jabhi ham isse bach sakte he
hame apne niji swarth se upar uthna hoga
apki rachna bohat achhi he hame kuch sochne par mazbur karti he
asha karta hu ki apki is koshish par sab amal kare
aapki is rachana ke liye aapka tahe dil se shukriya ap is tarah ki rachnaye age bhi likhte rahe
dhanyavad AJAY JI
OMVEER
CHAUHAN
अच्छी रचना है अजय जी, किंतु रवानगी खटकती है। ये शेर विषेश पसंद आये:
झूठा था आइना कभी, सच बोलने लगा
सबकी असली सूरत, नकाबों पे छा गयी
गलियों में सब सियार हैं, सड़कों पे भेड़िये
वहशत जो थी ज़हन में, इन्साँ को खा गयी
*** राजीव रंजन प्रसाद
Acchi rachna hai Ajayji khaas taur par yeh sher pasand aaye..
झूठा था आइना कभी, सच बोलने लगा
सबकी असली सूरत, नकाबों पे छा गयी
रास्तों पे इस कदर, कीचड़ बिछी थी चार सू
हमने बचाये पाँव वो दामन पे आ गयी
Keep writing
सियासतो-मज़हब की जगह यदी सियासते-मजहब होता तो बोलने में ज्यादा आसान लगता है...वैसे रचना भाव-पूर्ण और सच्चाई का प्रतिनिधित्व करती
नजर आती है...
सियासतो-मज़हब सदा, झगड़ों के बायस ही बने
ये नफरतों की आग तो, हर आशियाँ जला गई
vaah ajay bhaai shayarii me bhii aap bilkul chhaa gaye.. bahut hi sundar prastuti .....
आपकी काव्य वर्षा के रस में मै भी भीगनें का आनन्द उठा लिया।
ग़ज़ल तारीफ़-ए-काबिल है....
मुबारका....
मेरी तरफ़ से भी एक शेर.............
की हर बशर की ख़ुशकिस्मती ऐसी नही होती,
वो तो मेरी ही मासूमियत परिंदों को भा गयी.
झूठा था आइना कभी, सच बोलने लगा
सबकी असली सूरत, नकाबों पे छा गयी
अच्छी रचना है अजय जी.....
सभी शेर खूबसूरत बन पडे हैं खास कर
मोहब्बतों के फलसफ़े, प्यार की कहानियाँ
आई जो बाढ़ शहर में, सबको मिटा गई
गलियों में सब सियार हैं, सड़कों पे भेड़िये
वहशत जो थी ज़हन में, इन्साँ को खा गयी
रास्तों पे इस कदर, कीचड़ बिछी थी चार सू
हमने बचाये पाँव वो दामन पे आ गयी
कहीं कहीं थोडी सी रवागनी की कमी के अलावा सुन्दर गजल
शेयरॊं में तॊ कॊई कमी नहीं है। रवानगी भी कुछ हद तक जायज है रही सही कसर अगली बार पूरी हॊ जाएगी।
शानू जी,
रचना पढ़ने में आसान बनाने के लिए व्याकरण और अर्थ के साथ समझौता नहीं किया जा सकता।
सियासतो-मज़हब का अर्थ है 'सियासत और मज़हब' दोनों जबकि सियासते-मज़हब मतलब 'मज़हब की सियासत'। यहाँ अजय जो कहना चाह रहे हैं उसके लिए 'सियासतो-मज़हब' ही सटीक है।
ग़ज़ल के कुछ शे'र बहुत ही खूबसूरत हैं-
मोहब्बतों के फलसफ़े, प्यार की कहानियाँ
आई जो बाढ़ शहर में, सबको मिटा गई
गलियों में सब सियार हैं, सड़कों पे भेड़िये
वहशत जो थी ज़हन में, इन्साँ को खा गयी
अजय जी बहुत खूबसूरत शेर हैं..
हर एक शेर उम्दा बन पड़ा है.. दिल को छू गये सारे के सारे शेर..
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