ईश को जोडना इश्क से सिखाया है,
जमाने ने नही रब ने मुझको आजमाया है।
बिना तेरे भटकता था अभी तक जर्रे-जर्रे में,
भटकना जब से छोड़ा है, तभी से तुझको पाया है
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तेरे उन तीन शब्दों को मुझे स्वीकार करना है।
तेरी खातिर सँवरना है, तेरे ही संग चलना है।
तेरी बातों में गीता की कही लौ ढूँढ लानी है,
कभी खुद में उतरना है, कभी तुझमें उतरना है।
अभी कागज की कुछ कतरन इकठ्ठी कर न पाया हूँ,
जमाने भर की बातों की जुँबा भी बन न पाया हूँ।
खुदा ने मुझको भेजा है यहाँ तेरी ही खिदमत में,
खुदा की आशिकी की आरजू भी बन न पाया हूँ।
मगर तेरी ही बातों में मेरा दिन बीत जाता है।
कि तुझसे हार कर हर बार ये दिल जीत जाता है।
तेरे आने की उम्मीदें मैं कब से पाल बैठा हूँ,
हथेली की लकीरों पर मैं डोरे डाल बैठा हूँ।
तेरी हर बात तेरी याद मुझको ज्यों खजाना है।
तेरे खबरी की साँसों में तेरा ही आना जाना है।
कि तुझको गम नहीं होता जो तेरी याद आती है।
तुझे पाकर खुदा को भी तेरे ही संग पाना है।
कभी तपते हुऐ दिन में बरसती हो घटा सी तुम,
कभी होठों के छालों पर छिड़कती हो दवा सी तुम,
कभी माथे को सहलाती हो माँ बनकर दुआऔं में,
कभी रोती हो मेरे बिन अकेली राधिका सी तुम।
कभी चाहूँगा तुमको भी यही बस कह सका हूँ मैं,
जनम की दौड़ में सधकर-संभलकर चल रहा हूँ मैं।
तेरे रीते से बर्तन में बस दो बूँद, गंगा की,
बस दो बूँद, आँखों की समर्पण कर रहा हूँ मैं।
देवेश वशिष्ठ'खबरी'
(9811852336)
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21 कविताप्रेमियों का कहना है :
आपकी रचना में आपके मन का चित्र आज आखिर खुलकर आमने आ ही गया, तो मेरे मन से यही उद्गार निकले--
""आओ तपते अधर को अपने,
तुम मेरे अधरों पर धर दो,
नैनो की हाला छलकाओ,
साँसों मे अनुरागी स्वर दो,
चिंतन हेतु बहुत बातें है,
कर लेना पीछे को सजनी
लाज मेरी इच्छा की रख लो,
बाकी कोई लाज ना रहे,
सिवा तुम्हारी दो बाँहों के
कोई बँधन आज ना रहे॰॰॰॰॰॰॰""
आपकी अभिव्यक्ति की समीक्षा हेतु मेरे पास शब्द नही है,
अभिवन्दन स्वीकार कर मुझे अनुग्रहित करें ।
आर्यमनु ।
bahot hi acchi kavita hai.
manu bhaiya ne kaha thi, tan ise padha, aur mujhe khushi hui, jo aapne itni acchi kavita hume padhne ko di.
कविता और भाव दोनो ही बहुत अच्छे है।
सुन्दर बहुत दिनॊ बाद आपकी कलम सीधे दिल में उतरी है।
बधाई।
सुनील डॊगरा जालिम
+91-98918-79501
aapki nayi kavita padi
bahut bahut acchi lagi jo seedhe dil k ander tak jaane ka madda rakhti hai
aise hi likhte rahe
aut jeevan mein hamesha aage bade
my wishes r alwaz wid u.
all d best 4 ur future.
बधाई, बहुत ही अच्छी कविता
मगर तेरी ही बातों में मेरा दिन बीत जाता है।
कि तुझसे हार कर हर बार ये दिल जीत जाता है।
तेरे आने की उम्मीदें मैं कब से पाल बैठा हूँ,
हथेली की लकीरों पर मैं डोरे डाल बैठा हूँ।
खास कर ये पंक्तिया बहोत मिठी लगी पढने में ।
मैं तो कल इसे आपकी आवाज में सुन भी चुका हूं और उस समय भी इस कविता की सुन्दरता और प्रेम में खो गया था और अब भी खो गया हूं।
मैं चाहूंगा कि आप सबके लिए इसे गाएं...
और जहां जहां भाव चरम पर हैं, वो पंक्तियाँ मुझे लगीं-
बिना तेरे भटकता था अभी तक जर्रे-जर्रे में,
भटकना जब से छोड़ा है, तभी से तुझको पाया है
तेरी बातों में गीता की कही लौ ढूँढ लानी है,
मगर तेरी ही बातों में मेरा दिन बीत जाता है।
कि तुझसे हार कर हर बार ये दिल जीत जाता है।
कभी तपते हुऐ दिन में बरसती हो घटा सी तुम,
कभी होठों के छालों पर छिड़कती हो दवा सी तुम,
कभी माथे को सहलाती हो माँ बनकर दुआऔं में,
कभी रोती हो मेरे बिन अकेली राधिका सी तुम।
आप बहुत तेजी से आगे बढ रहे हैं...बहुत शुभकामनाएं।
कभी तपते हुऐ दिन में बरसती हो घटा सी तुम,
कभी होठों के छालों पर छिड़कती हो दवा सी तुम,
कभी माथे को सहलाती हो माँ बनकर दुआऔं में,
कभी रोती हो मेरे बिन अकेली राधिका सी तुम।
बहुत ही सुंदर रचना देवेश जी... भाव बहुत अच्छे है।....बधाई
मगर तेरी ही बातों में मेरा दिन बीत जाता है।
कि तुझसे हार कर हर बार ये दिल जीत जाता है।
तेरे आने की उम्मीदें मैं कब से पाल बैठा हूँ,
हथेली की लकीरों पर मैं डोरे डाल बैठा हूँ।
कभी चाहूँगा तुमको भी यही बस कह सका हूँ मैं,
जनम की दौड़ में सधकर-संभलकर चल रहा हूँ मैं।
तेरे रीते से बर्तन में बस दो बूँद, गंगा की,
बस दो बूँद, आँखों की समर्पण कर रहा हूँ मैं।
बहुत खूब खबरी जी। बात सीधे दिल में उतर गई। बधाई स्वीकारें।
कभी तपते हुऐ दिन में बरसती हो घटा सी तुम,
कभी होठों के छालों पर छिड़कती हो दवा सी तुम,
कभी माथे को सहलाती हो माँ बनकर दुआऔं में,
कभी रोती हो मेरे बिन अकेली राधिका सी तुम।
अति सुंदर देवेश जी. प्रेम को उसकी समग्रता में निरूपित करने का आपका ये अंदाज बहुत ही अच्छा लगा.कविता दिल को छू गयी.
बधाई स्वीकारें.
देवेश जी,
बहुत ही सुन्दर भावों से ओतप्रोत है आपकी यह रचना.
तेरे उन तीन शब्दों को मुझे स्वीकार करना है।
तेरी खातिर सँवरना है, तेरे ही संग चलना है।
तेरी बातों में गीता की कही लौ ढूँढ लानी है,
कभी खुद में उतरना है, कभी तुझमें उतरना है।
एक तलाश जिसका कोई अन्त नहीं
कभी चाहूँगा तुमको भी यही बस कह सका हूँ मैं,
जनम की दौड़ में सधकर-संभलकर चल रहा हूँ मैं।
तेरे रीते से बर्तन में बस दो बूँद, गंगा की,
बस दो बूँद, आँखों की समर्पण कर रहा
मूक प्या की वेदना
कभी तपते हुऐ दिन में बरसती हो घटा सी तुम,
कभी होठों के छालों पर छिड़कती हो दवा सी तुम,
कभी माथे को सहलाती हो माँ बनकर दुआऔं में,
कभी रोती हो मेरे बिन अकेली राधिका सी तुम।
आप की यह रचना बहुत ही सधी हुई है।
देवेश जी, मुझे इस बात में कोई शक नहीं कि आप ने बहुत ही टूटकर प्यार किया है।
लेकिन दुनिया में जीने के लिये दुनियादारी को सीखना ही पड़ता है।
भटकना जब से छोड़ा है, तभी से तुझको पाया है
तेरी बातों में गीता की कही लौ ढूँढ लानी है,
कभी खुद में उतरना है, कभी तुझमें उतरना है।
खुदा की आशिकी की आरजू भी बन न पाया हूँ।
हथेली की लकीरों पर मैं डोरे डाल बैठा हूँ।
कभी होठों के छालों पर छिड़कती हो दवा सी तुम,
तेरे रीते से बर्तन में बस दो बूँद, गंगा की,
बस दो बूँद, आँखों की समर्पण कर रहा हूँ मैं।
जो पंक्तियाँ मुझे विशेष पसंद आयी वे मैं उपर उद्धरित कर रहा हूँ..एक एक मुक्तक सुन्दर बन पडा है। इसे पोडकास्ट भी करें।
*** राजीव रंजन प्रसाद
देवेशजी,
प्रत्येक मुक्तक लाजवाब है मगर फिर भी यह विशेष तौर से पसंद आया -
कभी तपते हुऐ दिन में बरसती हो घटा सी तुम,
कभी होठों के छालों पर छिड़कती हो दवा सी तुम,
कभी माथे को सहलाती हो माँ बनकर दुआऔं में,
कभी रोती हो मेरे बिन अकेली राधिका सी तुम।
इसमें आपने प्रेम की पवित्रता, मधुरता, और विरह की पीड़ा... सबकुछ समेट लिया है।
बधाई स्वीकार करें।
देवेश बहुत गहरे भाव है...इश्क को खुदा मान कर लिखी रचना...इस हद तक डूब जाना इश्क में क्या खूब पक्तियां है...
तेरे उन तीन शब्दों को मुझे स्वीकार करना है।
तेरी खातिर सँवरना है, तेरे ही संग चलना है।
तेरी बातों में गीता की कही लौ ढूँढ लानी है,
कभी खुद में उतरना है, कभी तुझमें उतरना है।
हर लफ्ज से प्यार की खुशबू आती है
शब्द व भाव दोनों ही उत्तम हैं ।
घुघूती बासूती
"तेरी बातों में गीता की कही लौ ढूँढ लानी है,
कभी खुद में उतरना है, कभी तुझमें उतरना है।"
"हथेली की लकीरों पर मैं डोरे डाल बैठा हूँ।"
"तेरे रीते से बर्तन में बस दो बूँद, गंगा की,
बस दो बूँद, आँखों की समर्पण कर रहा हूँ मैं।"
खबरी जी,
अनुपम रचना पढवाई आपने..सच कहूँ तो पढते पढते ही कविता के बहुत सुन्दर प्रवाह के साथ ही बहता चला गया
"तेरे रीते से बर्तन में बस दो बूँद, गंगा की".. पुनः उद्धृत कर रहा हूँ, ऐसे अनूठे बिम्ब मनमोहक हैं
हार्दिक बधई देवेश जी
सस्नेह
गौरव शुक्ल
Bhut sundar kavita padhne ko mili hai.....kai dino baad bahut aacha padhne ko mila hai....keep it up....
तेरी हर बात तेरी याद मुझको ज्यों खजाना है।
तेरे खबरी की साँसों में तेरा ही आना जाना है।
कि तुझको गम नहीं होता जो तेरी याद आती है।
तुझे पाकर खुदा को भी तेरे ही संग पाना है।
बहुत पसन्द आयीं पंक्तियां
मेरे हिसाब से पहली पंक्ति में 'ईश' के स्थान पर 'ईश्वर' होता तब नीचे की पंक्तियों से मात्रा का मिलाप अधिक हिता। यद्यपि यह शर्त कविता की अन्य विधाओं पर लगाना ज़रूरी नहीं है, लेकिन गीत विधा में प्रवाह पर शत-प्रतिशत ज़ोर देना होता है।
इस गीत के हर अंतरे पर अभी पुनर्विचार आवश्यक है। अभी यह सुंदर है, इसे सुंदरतम बनाया जा सकता है। थोड़ा विचारिएगा।
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