मित्रो,
सप्रेम नमस्कार...
दूसरे सोमवार के लिए प्रस्तुत है मेरी यह रचना....
वो गुमनाम नहीं होगा............
तुमने जिसको महफ़िल-महफ़िल हँसी लुटाते देखा है,
हमने उसको इक कोने में आंसूं बहाते देखा है।
भीड़ में भी पहचान ही लोगे, वो गुमनाम नहीं होगा,
उसको अकेले क़दमों से भी धूल उड़ाते देखा है।
दूर देस में जाने वाले, लौट के वापस आएँगे,
चांद को अक्सर अपनी छत पर आते-जाते देखा है।
कह दो लेकर अपना उजाला, कभी न फ़िर सूरज निकले,
जंगल में रहने वालों को नगर बसाते देखा है।
इक-न-इक दिन आईने से भरम तुम्हारा टूटेगा,
हमने तो कई बार हकीकत इसे छिपाते देखा है।
निखिल आनंद गिरि
9868062333
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21 कविताप्रेमियों का कहना है :
दूर देस में जाने वाले, लौट के वापस आएँगे,
चांद को अक्सर अपनी छत पर आते-जाते देखा है।
बहुत ही सुंदर ...
इक-न-इक दिन आईने से भरम तुम्हारा टूटेगा,
हमने तो कई बार हकीकत इसे छिपाते देखा है।
सही और सुंदर भाव ...
आनंद जी कविता कॊ पढकर सचमुच आनंद आ गया। जैसे ही कविता कॊ पढना शुरू किया भाव और शब्द सीधे दिल में उतरते गए और मन कॊ अपार शान्ति मिलने लगी। कविता कॊ कई बार पढ गया परन्तु कविता इतनी छॊटी थी कि संतुष्टी नहीं हुई।
उम्मीद है अगला सॊमवार सब शिकायतें दूर कर देगा।
ग़ज़ल तो नहीं कहूँगा, लेकिन मित्र इसका एक-एक मुक्तक शानदार है। और इसने तो जान ही ले ली-
कह दो लेकर अपना उजाला, कभी न फ़िर सूरज निकले,
जंगल में रहने वालों को नगर बसाते देखा है।
इक-न-इक दिन आईने से भरम तुम्हारा टूटेगा,
हमने तो कई बार हकीकत इसे छिपाते देखा है।
निखिल जी, सुंदर भाव और उतने ही खूबसूरत शब्दों से सजी रचना के लिये आपको बधाई. मुझे तो यह गज़ल ही लगी, है या नहीं दावा नहीं कर सकता.
भीड़ में भी पहचान ही लोगे, वो गुमनाम नहीं होगा,
उसको अकेले क़दमों से भी धूल उड़ाते देखा है।
सुन्दर है
भीड़ में भी पहचान ही लोगे, वो गुमनाम नहीं होगा,
उसको अकेले क़दमों से भी धूल उड़ाते देखा है।
waah bahut hi sundar
एक बेहतरीन रचना
निखिलजी,
अपनी बात कहने का आपका अंदाज पसंद आया -
तुमने जिसको महफ़िल-महफ़िल हँसी लुटाते देखा है,
हमने उसको इक कोने में आंसूं बहाते देखा है।
सच है, सिक्के के दो पहलू होते है, बहुत कम लोग दूसरा पहलू देख पाते हैं।
सुन्दर कृति, बधाई स्वीकारें।
achchaa likha hai nikhil... itni achchi kavitaa hai par thoda aurjyaada likh sakte the
alok shankar
एक एक शेर गहरा है, बहुत सुन्दर कृति।
दूर देस में जाने वाले, लौट के वापस आएँगे,
चांद को अक्सर अपनी छत पर आते-जाते देखा है।
कह दो लेकर अपना उजाला, कभी न फ़िर सूरज निकले,
जंगल में रहने वालों को नगर बसाते देखा है।
भाव पर आपके शब्दों की अच्छी पकड है। एक छोटा सा सुझाव है। नीचे उद्धरित शेर में आंसू की जगह अश्क का प्रयोग ठीक लगेगा।
तुमने जिसको महफ़िल-महफ़िल हँसी लुटाते देखा है,
हमने उसको इक कोने में आंसूं बहाते देखा है।
*** राजीव रंजन प्रसाद
"भीड़ में भी पहचान ही लोगे, वो गुमनाम नहीं होगा,
उसको अकेले क़दमों से भी धूल उड़ाते देखा है।"
निखिल जी आपसे अपेक्षायें बढ गयी हैं
पूरी रचना ही बहुत उत्कृष्ट है
हार्दिक बधाई
सस्नेह
गौरव शुक्ल
हिंदीप्रेमियों,
नमस्कार..सबसे पहले राजीव जी का धन्यवाद जिन्होंने मुझे "यहाँ" भी नेट का पता दे दिया.....अभी दिल्ली से बाहर हूँ, इसीलिये आपकी प्रतिक्रियाएं पढने की बेताबी थी.....(ट्रेन का सफ़र तय कर आप तक पहुंच पाया हूँ)
शैलेश, आपको भी धन्यवाद.....मैंने आपसे पहले ही कहा है कि रचना ग़ज़ल है, गीत है या कविता, इससे विशेष फर्क नही पड़ता...मतलब है उसका सीधे आप तक संवाद करने की काबिलियत से....आप सबकी टिप्पणियाँ कह रही हैं कि मैं इसमे कुछ हद तक सफल हूँ.........
सभी साथियों को "थोक" मे धन्यवाद.....सुनील जी व आलोक जी, अगला सोमवार आपको निराश नही करेगा, एक "बड़ी" रचना पोस्ट करुंगा....
आपका,
निखिल आनंद गिरि
राजीव जीं,
आपके सुझाव का ध्यान रखूँगा...अश्क शायद ज्यादा सही लग रहा है....धन्यवाद.........
निखिल
निखिल आन्नद जी,
सुन्दर भाव भरी रचना है और आप के कहने का अन्दाज भी पसन्द आया
विषेश कर यह पंक्तियां बहुत पसन्द आयी
तुमने जिसको महफ़िल-महफ़िल हँसी लुटाते देखा है,
हमने उसको इक कोने में आंसूं बहाते देखा है।
इक-न-इक दिन आईने से भरम तुम्हारा टूटेगा,
हमने तो कई बार हकीकत इसे छिपाते देखा है।
निखिल जी बेहतरीन रचना के लिये बधाई...आपकी शब्दो पर पकड़ अच्छी है...हर पक्तिं अपने आप में बेहद खूबसूरत है भई...
आपने तो आईना जो सच बोलता है उसके कहे पर भी हमे संशय में डाल दिया...सोचेंगे अब इसके बारे में भी कही सूरत हमारी कीसी ओर की तो नही हो गई...:)
बस हल्का सा मजाक था मगर दावेदार रचना पर तो विश्वास करना हि होगा...
पुनः बधाई
सुनीता(शानू)
इक-न-इक दिन आईने से भरम तुम्हारा टूटेगा,
हमने तो कई बार हकीकत इसे छिपाते देखा है।
इस जानमारु शेर के लिऍ धन्यबाद
सुन्दर रचना
आनंद जी भावों की सुन्दर अभिव्यक्ति है।अन्तर्मन को छू जाने वाली क्रिति है।
तुमने जिसको महफ़िल-महफ़िल हँसी लुटाते देखा है,
हमने उसको इक कोने में आंसूं बहाते देखा है।
बहुत सुन्दर रचना।
- रितु रंजन
निखिल जी आपसे मेरी पहली बातचीत हो रही है। आप युनिकवि ठहरे , इस नाते उम्मीदे आपसे बढ जाती हैं। बड़े हीं हर्ष से कह रहा हूँ कि आप उम्मीदों पर खरे उतरे हैं।
तुमने जिसको महफ़िल-महफ़िल हँसी लुटाते देखा है,
हमने उसको इक कोने में आंसूं बहाते देखा है।
भीड़ में भी पहचान ही लोगे, वो गुमनाम नहीं होगा,
उसको अकेले क़दमों से भी धूल उड़ाते देखा है।
दूर देस में जाने वाले, लौट के वापस आएँगे,
चांद को अक्सर अपनी छत पर आते-जाते देखा है।
कह दो लेकर अपना उजाला, कभी न फ़िर सूरज निकले,
जंगल में रहने वालों को नगर बसाते देखा है।
इक-न-इक दिन आईने से भरम तुम्हारा टूटेगा,
हमने तो कई बार हकीकत इसे छिपाते देखा है।
कुछ छोड़ न पाया , पूरी रचना पसंद आई।
तनहा कवि, रितुजी, रवि कान्त व मनीष जी,
रचना अच्छी लगी, धन्यवाद......तनहा जी आगे भी सम्पर्क कायम रखें, मुझे अच्छा लगेगा....सुनीता जी आईने ने इस बार आपके मिथक तोड़े कि नही....मोहिंदर जी, आपकी पहली टिपण्णी का शुक्रिया...इस बार की कविता भी आपके सुपूर्द है...
निखिल
निखिल जी
वंदे मातरम.
कविता में भाव व शिल्प दोनों की महत्ता है. निस्संदेह भाव सीधे पाठक के दिल तक पहुँचते हैं किंतु शिल्प भी उत्तम हो तो सोने में सुहागा. आपकी रचना की विविध पंक्तियों का पदभार या वज्न अलग-अलग है, यदि समान पदभार के साथ यही भाव रचना को और अधिक सशक्त बना देंगे. अन्यथा न लें यह मेरी ही नहीं सभी काव्य शास्त्रियों की राय है. शुभाकांक्षी संजीव सलिल
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