(१)
हरी-भरी फसल है,
ख्वाबों की,
तुम्हारे यहाँ,
मेरे यहाँ तो,
नींद के खेत हीं नहीं।
(२)
कल रूठे थे तुम,
आज मान गए,
फिर कल रूठोगे- अकारण हीं,
जब चाहे बोओ, काटो,
तुम्हारी अपनी फसल है-
अदाएँ ।
(३)
मेरे सिरहाने -
आँखों ने खेती की है,
हर रात
आँसू डाल
सींचती है फसलों को।
जाने कब
ये निगोड़े फसल पकेंगे?
(४)
लो ,मेरे खेत,फसल सब तुम्हारे-
अब तो न ठुकराओ इ़से,
बीस साल सींचा है,
बिकवाली न हुई तो
लोग इसमें ऎब निकालेंगे,
चिन्ता है, क्योंकि
किसान हूँ -
इक लड़की का बाप हूँ ।
(५)
सूरज उबला,
झूलस गए फसल,
क्यों बोए थे तुमने-
नाजुक रिश्ते।
(६)
ओ मिट्टी के माधो,
अहम साधो,
इज़्ज़त की जमीं साटकर तुम,
फसलों में जड़-अजर बांधो,
तुम देश के बिरवान हो,
हो खेतिहर, किसान हो|
(७)
पानी पर अगर उगती फसल,
बाढ का डर तो न होता,
शायद खुदा नासमझ है,
जो
जिंदगी में गम भेजता है,
चलो हम-तुम हीं
गम में जिंदगी बोते हैं।
कवयिता- विश्व दीपक 'तन्हा'
विशेष- किन्हीं कारणों से शनिवार के स्थाई कवियों तुषार जोशी एवम् आलोक शंकर की कविताएँ नहीं आ पाई हैं। आज का दिन रिक्त न रह जाय, इसलिए विश्व दीपक 'तन्हा' की सात क्षणिकाएँ प्रकाशित की जा रही है।
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20 कविताप्रेमियों का कहना है :
बेहतरीन कविता. आगे भी इसी तरह की कविताओं की रचना करें .
आपकी भाषा शैली व शब्द चयन बहुत अलग उव उत्कृीष्ठ है
आदर्श राठौर
असाधारण , अतिसुन्दर !
sari kshanikayen behatreen hai....padh kar anand aa gaya.....
अरे वाह !
क्या खूब लिखा है आपने जनाब !
"मैं किसान हूं- एक बेटी का बाप हूं " पंक्ति को विशेष रुप से उद्धरित करना चाहूंगा,
यहां आपने भले ही बात अपनी चाहत की फसल की कही है, पर अन्य अर्थों मे इस पंक्ति के भाव "बहुत दूर" तक गये है, जहां मन की गहरी वेदनायें उभर कर आई है ।
अन्य क्षणिकाओं मे प्यार, मस्ती, अल्हड़पन जमकर बिखेरा है आपने ।
हर क्षणिका के बाद एक मोहक मुस्कान खुद ही चेहरे पर काबिज़ हो जाती है, जो आपकी सफलता की कहानी कहती है,
"विशेष" बधाई स्वीकार करने में कोई गुरेज़ न करें ।
आर्यमनु
सूरज उबला,
झूलस गए फसल,
क्यों बोए थे तुमने-
नाजुक रिश्ते।
तन्हा जी दिल को छू गयी आपकी लिखी हर पंक्ति...
बधाई
तन्हा जी,
सभी क्षणिकायें बेहद सुंदर हैं. बधाई स्वीकारें.
kya kahun ? khsanik kshan me khshanikayen khul gayeen...?
udaasee aisee ki hontho par he hansee ki mand
jhalakti rahee mano vidhata ka guudh lekh
wah ree teri haree-bharee fasal taiyyar ho gaee
umadtee -see yad sahasa geet lehree ho gaee!
x..............x..............x
raha hasta hi nayan,ashrumay v ek kona
chahte ho tum virah me v usse n duur rehna
tum swapna sajal nishwas pana chahte ho
ashru ban nayan ke paas rehna chahte ho
x......x....x
kyon chubh rahe hen putleon me ashru bankar shuul
kasaktee hen ghayal sanseen gum hen eske muul
khuda kee chaya tale gum ko palte ho
jo buund kabhi piya n hoga
ghuunt teekhee pee rahe ho?
parkate pakheru-sa kyon chatpata rahe ho?.....
apki rachna dil ko chuu gaee...
mafi chahungi ...udasee aisi ki hothon par hansee ki mand rekh...
तन्हा जी कहाँ तनहाईयों में बैठ कर झणिकाएं बना रहे थे भई...सिर्फ़ सुंदर कहूँ तो कवि की भावनाओं के साथ नाइन्साफ़ी होगी...मगर हाँ सवेंदनशील,अद्वितीय,भावपूर्ण रचना है और आशा करती हूँ सदैव आप एसे ही लिखते रहेंगे...
बहु-बहुत बधाई
सुनीता(शानू)
शब्द-शिल्पीजी,
सभी क्षणिकाएँ लाजवाब है, मुझे ख़ासतौर पर यह पसंद आयी -
लो ,मेरे खेत,फसल सब तुम्हारे-
अब तो न ठुकराओ इ़से,
बीस साल सींचा है,
बिकवाली न हुई तो
लोग इसमें ऎब निकालेंगे,
चिन्ता है, क्योंकि
किसान हूँ -
इक लड़की का बाप हूँ ।
अंत तक आते-आते इसमें जो वेदनाएँ उभरी है, सोचने को मजबूर करती है।
बधाई स्वीकार करें!
तन्हा जी!
सभी क्षणिकायें
बेहद सुंदर ,
लाजवाब है |
बधाई
स्वीकारें.
देरी के लिये माफ़ी और सुन्दर क्षणिकाओं के लिये बहुत बहुत बधायी.
"मेरे यहाँ तो,
नींद के खेत हीं नहीं।"
"तुम्हारी अपनी फसल है-
अदाएँ ।"
"हर रात
आँसू डाल
सींचती है फसलों को।"
"चिन्ता है, क्योंकि
किसान हूँ -
इक लड़की का बाप हूँ ।"
"क्यों बोए थे तुमने-
नाजुक रिश्ते।"
"इज़्ज़त की जमीं साटकर तुम,
फसलों में जड़-अजर बांधो"
"चलो हम-तुम हीं
गम में जिंदगी बोते हैं।"
विश्व दीपक जी, असाधारण क्षणिकायें किखी हैं आपनें। अध्भुत बिम्ब।
*** राजीव रंजन प्रसाद
तन्हा जी बचपन मे एक बात पढ़ी थी
एक गूंगे आदमी को मीठा आम खिला के पुछा गया
बोल कैसा लग रहा है?
कुछ ऐसा ही लगा ये क्षणिकाएं पढ़ कर......
दीपक जी,
आप अनुपम रचनाकार हैं इसमें तो कोई संशय मुझे कभी रहा नहीं
और इस बार तो आपने अपने इन छोटे-छोटे भाव-कुंड में डुबो दिया है
एक एक क्षणिका के भाव इतने गहरे हैं कि देर तक स्पंदित करते हैं
"हरी-भरी फसल है,
ख्वाबों की,
तुम्हारे यहाँ,
मेरे यहाँ तो,
नींद के खेत हीं नहीं।"
क्या बिम्ब है...
"जब चाहे बोओ, काटो,
तुम्हारी अपनी फसल है-
अदाएँ ।"
"हर रात
आँसू डाल
सींचती है फसलों को।"
"" क्योंकि
किसान हूँ -
इक लड़की का बाप हूँ ।"
बहुत गहरी बात कह गये आप
"क्यों बोए थे तुमने-
नाजुक रिश्ते।"
"चलो हम-तुम हीं
गम में जिंदगी बोते हैं।"
अद्भुत रचना के लिये बधाई
नमन
सस्नेह
गौरव शुक्ल
मैं समझता था कि इंटरनेट की दुनिया में राजीव जी ही इस विधा के मास्टर हैं, मगर आप तो ग्रैंड-मास्टर निकले।
मगर एक सलाह है-
जबकि पंक्ति तोड़ी जा रही हो, तब अल्पविराम का क्या मतलब? आपको यह ध्यान देना चाहिए कि विराम या अल्पविराम वहाँ लगे जहाँ बात पूरी हो रही हो, जैसे-
हरी-भरी फसल है
ख्वाबों की
तुम्हारे यहाँ,
मेरे यहाँ तो
नींद के खेत हीं नहीं।
sabhi mitron ko bahut-bahut dhanyawaad. main ghar par hone ke kaaran khud se ise post nahi kar paaya.is naate giri ji ka wishesh shukragujaar hoon. Is ravivar bhi ghar par hi rahoonga. prayas karoonga ki post kar paoon.
अति सुन्दर प्रयास है । बहुत दिनो बाद कम शब्दों में विचारों का
इतना सटीक प्रवाह दिखाई पड़ा। बहुत आशीर्वाद तथा बधाई ।
मेरे यहाँ तो,
नींद के खेत हीं नहीं।
कल रूठे थे तुम,
आज मान गए,
फिर कल रूठोगे- अकारण हीं,
जब चाहे बोओ, काटो,
तुम्हारी अपनी फसल है-
अदाएँ
जाने कब
ये निगोड़े फसल पकेंगे?
सूरज उबला,
झूलस गए फसल,
क्यों बोए थे तुमने-
नाजुक रिश्ते।
बहुत कम शब्दों में बहुत सी दिल में उतर जाने वाली बातें कह गए आप..वैसे मैं देरी से पढ़ पाया तो शायद सही किया...अब लग रहा है कि इनसे मैं जरूर प्रभावित हो जाता।
पहली क्षणिका तो ऐसी लगी, जैसे मैंने बाद में इसे अनजाने में कहीं चुरा लिया हो बिना पढ़े ही..
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