परिंदा उडा,
लडखडाया,
गिर गया।
फिर उठा,
लडखडाया,
गिर गया।
आसमान ने धक्का मारा,
धरती ने जंजीर डाल दी।
पखेरू भी उड़ गये साथ के।
पंछी नवेला,
बैठा अकेला।
गुमसुम,
चुपचाप,
पसीना,
घुटन,
कांप
सारी रात रोया,
चिल्लाया,
डरा,
म्यांउ की हर घुडकी पर
कई कई बार मरा।
पैरों में खो गया
पागल सा हो गया।
जंजीर बहुत गर्म हो गई,
जलाने लगी,
प्यास लगी,
भूख कलेजे तक आने लगी,
सब उम्मीद मिट गईं,
सब अरमान खो गए।
सारे सपने जैसे नींद में सो गए।
उसे आकाश नहीं मिला
और धरती भी नहीं बची
कुछ बोने को,
पर अब क्या बचा था
खोने को?
परिंदा उडा,
लडखडाया,
गिर गया।
फिर उठा,
लडखडाया,
उड़ गया।
देवेश वशिष्ठ 'खबरी'
9811852336
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13 कविताप्रेमियों का कहना है :
"आदमी 'गर मुस़ाफिर है तो सफर है ज़िन्दगी,
आदमी 'गर व़क्त है तो ग़ज़र है ज़िन्दगी ।
आदमी 'गर ज़र्रा है तो इमारत है ज़िन्दगी,
काँटों की ज़मीं पर की जाये वो इब़ादत है ज़िन्दगी ।"
"परिन्दा" अच्छा है भैया,
इस परिन्दे से पूरी हमदर्दी है पर ज़िन्दगी इस प्रकार की ठोकरें तो देती रहेगी,
आप उस परिन्दे से मिले तो उसे थोडा समझाना कि वो घबराये नही, यही धरती, यही आकाश एक दिन उसे सर आँखों पर बिठायेगें ।
आर्य मनु
आपने इस कविता से तुषार जी की याद दिला दी। यह कविता बहुत आशा लिए हुए हैं। अब तक मैं लोगों में आशा का संचार करने के लिए मकड़ी और राजा वाली कहानी सुनाता था, हब आपकी यह कविता भी सुनाया करूँगा।
परिंदा उडा,
लडखडाया,
गिर गया।
फिर उठा,
लडखडाया,
उड़ गया।
बहुत ही सरलता से अपने बहुत गहरी बात कह दी ..गिरना और फिर संभल के जीना ही ज़िंदगी है .. बधाई सुंदर रचना के लिए
एक आशावादी रचना।
कहने का तरीका भी अलग और बेहतर।
एक गाना है.... कैलाय खेर का 'अल्लाह के बन्दे' कविता पढने के बाद यह गाना सुनने की ललक पैदा हॊ गई...
बधाई!
परिंदा उडा,
लडखडाया,
गिर गया।
फिर उठा,
लडखडाया,
उड़ गया।
एक सुंदर आशावादी रचना । बधाई स्वीकारें।
देवेश जी
यही उठना, लडखडाना, गिरना और फ़िर गिर के सम्भलना ही तो जिन्दगी है.
गर न मुश्किलें हो जिन्दगी में तो जिन्दगी दुश्वार हो जाये.
सुन्दर भाव भरी कविता है आपकी... मुबारक हो
देवेश
आपकी इस कविता के शिल्प से मैं बेहद प्रभावित हुआ हूँ। एक-एक मोती जैसे शब्द...गहरे गहरे। एसे भी लिखी जाती है कविता, तुम्ने उदाहरण लिखा है:
परिंदा उडा,
लडखडाया,
गिर गया।
फिर उठा,
लडखडाया,
गिर गया।
गुमसुम,
चुपचाप,
पसीना,
घुटन,
कांप
आशावादिता का चित्र खींच दिया है तुमने:
परिंदा उडा,
लडखडाया,
गिर गया।
फिर उठा,
लडखडाया,
उड़ गया।
बहुत बधाई।
*** राजीव रंजन प्रसाद
पढ़्ते हुए मुझे भी अल्लाह के बन्दे गीत याद आया, लेकिन मैं यह नहीं कहूंगा कि आपकी कविता उस से प्रेरित थी। आपकी अपनी नई भावना और व्यक्त करने का नया तरीका है।एक बात बताता हूं...मैंने भी एक कविता लिखी थी-कुछ लोग रुक जाते साथ मेरे...इसका शिल्प देखकर उसकी याद हो आयी. वह भी बिल्कुल इसी तरह लिखी थी, इसलिए मुझे और भी अधिक प्रभावित किया आपकी रचना ने।
लिखते रहें।
देवेशजी,
जीवन की सच्चाई को बहुत ही सरलता से काव्य में पिरोया है आपने, बधाई!
देवेश सचमुच तुम्हारे विचार अत्यन्त उत्तम है कितनी खूबसूरती से तुमने परिन्दे की व्यथा व्यक्त की है...
आसमान ने धक्का मारा,
धरती ने जंजीर डाल दी।
पखेरू भी उड़ गये साथ के।
पंछी नवेला,
बैठा अकेला।
गुमसुम,
चुपचाप,
पसीना,
घुटन,
कांप
सारी रात रोया,
चिल्लाया,
डरा,
म्यांउ की हर घुडकी पर
कई कई बार मरा।
पैरों में खो गया
पागल सा हो गया।
जंजीर बहुत गर्म हो गई,
जलाने लगी,
प्यास लगी,
भूख कलेजे तक आने लगी,
सब उम्मीद मिट गईं,
सब अरमान खो गए।
सारे सपने जैसे नींद में सो गए।
उसे आकाश नहीं मिला
और धरती भी नहीं बची
कुछ बोने को,
पर अब क्या बचा था
खोने को?
मगर फ़िर भी विश्वास नही खोया उसने और फ़िर उड़ा अबकी बार उड़ ही गया...जैसे की एक कविता है...
लहरो से डर कर नौका पार नही होती,
कोशिश करने वालों की हार नही होती....
आप लिखते रहे मेरा आशीर्वाद हमेशा आपके साथ है...
सुनीता(शानू)
खबरी जी,
अच्छी कविता. साहस देती सी कविता है
"परिंदा उडा,
लडखडाया,
गिर गया।
फिर उठा,
लडखडाया,
गिर गया।"
बहुत गम्भीर बात बहुत ही सरलता से समझा दी है आपने
बधाई
सस्नेह
गौरव शुक्ल
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