कब तक यूं गम की पोटली ,
ही ढोती रहे मेरी लेखनी,
कब तक पुराने कतरनों को,
संजोती रहे मेरी लेखनी,
जिनके रूह हीं नंगे हों,
उन्हें ढँककर क्या फायदा,
कब तक उन नंगों पर लिबास,
पिरोती रहे मेरी लेखनी
कब तक अँधेरे रास्तों में,
जले तेल-सी स्याही इसकी ,
एक अच्छे कल की तृष्णा में,
गले तेल-सी स्याही इसकी,
जिन्हें वर्तमान भी याद नहीं,
कल उनका जाने क्या होगा,
कब तक इस पागल बस्ती में ,
पले तेल-सी स्याही इसकी
कब तक मस्तिष्क की करनी का,
फल भोगे मेरा हृदय,
कब तक सुपथ के निर्णय का,
छल भोगे मेरा हृदय,
दुनिया बदली है किससे यहाँ ,
बुद्धि नहीं समझती है,
कब तक यूं आज की चोटों का,
कल भोगे मेरा हृदय
कब तक इन झंझावातों में,
इत-उत झूले एक कवि,
कब तक समाज में अकारण ,
पल-पल ही तुले एक कवि,
हर शै में खुशियाँ फले-फूले,
एक कवि की है चाहत इतनी,
फिर तो हर शै ही बदले,
या खुद को भूले एक कवि
-विश्व दीपक 'तन्हा'
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15 कविताप्रेमियों का कहना है :
बहुत वेदना है आपकी लेखनी में।
एक कवि की मनोःस्थिति का बहुत सटीक शब्दों में सजीव चित्रण किया है आपने ।
शब्द यूँ ही कलम से चलकर नही आ जाते, दर्द सहा जाता है, समय ज़लील करता है, अतीत चिढाता सा प्रतीत होता है । तो वर्तमान साथ चलने से मना कर देता है, तब भी सारे झंझावात सहकर कवि की कलम चलती है ।
"फिर तो हर शय ही बदले, या खुद को भूले कवि॰॰॰॰"
सटीक नपे-तुले विचार॰॰॰॰॰॰
आपका अभिवन्दन ।
आर्य मनु
कब तक इन झंझावातों में,
इत-उत झूले एक कवि,
कब तक समाज में अकारण ,
पल-पल ही तुले एक कवि,
हर शै में खुशियाँ फले-फूले,
एक कवि की है चाहत इतनी,
फिर तो हर शै ही बदले,
या खुद को भूले एक कवि
बहुत ही सुंदर रचना है ...कई भाव इस के दिल को छू गये..
किससे शिकायत है ?...लेखनी से! नहीं, संभव ही नहीं... आपकी शिकायत का कारण कुछ ऒर है!
रचना ने मन मॊह लिया|
विरह की अग्नि शांत हुई..
इस तरह की आवाज़ एक रचयिता की लेखनी से तभी निलकती है जब लेखक को लगने लगता है की उसकी कलम की ताकत किसी तरह का कोई बदलाव नहीं ला सकती।
इस तरह की कुंठा तो शायद हर लेखक को कभी न कभी घेरती होगी, मगर उसी अभिव्यक्ति को आपने जितने सुंदर तरीके से छंदों में पिरोया है वो काबिल-ए-तारीफ़ है।
हाँ भाई, जब आप हर शै को खुश देखना चाहते हैं तो इसे तो मानना ही पड़ेगा-
हर शै में खुशियाँ फले-फूले,
एक कवि की है चाहत इतनी,
फिर तो हर शै ही बदले,
या खुद को भूले एक कवि
बहुत सुन्दर रचना है तन्हा जी,
मै कहूंगा...
कलम में वो ताकत है जो तलवार में भी नहीं
कमी इन्सान में है तेरी कलम की धार में नहीं
सो लिखते रहो.. दुनिया के अहसासों को जगाते रहो... कौन जान कब इन्कलाव हो.
mujhe pura humdardi hai aap se. kyunki shayad mujhe pata hai ki aap ki shikayat kisse hai, kis liye hai...
itna kehna chahenge, ki jab bhi aap koi siddhant lo, to uspe arhe raho...
baki rahi samaj ki baat, to "kuchh to log kahenge, logon ka kaam hai kehna"...
क्या कवि ने हार मान ली है! नहीं ऐसा तो नहीं हो सकता.. तो फ़िर ये किस बात पे गुस्सा है..
जिनके रूह हीं नंगे हों,
उन्हें ढँककर क्या फायदा,
दिल को छुने वाली पन्क्तियां हैं..
कब तक यूं गम की पोटली ,
ही ढोती रहे मेरी लेखनी,
कब तक पुराने कतरनों को,
संजोती रहे मेरी लेखनी,
जिनके रूह हीं नंगे हों,
उन्हें ढँककर क्या फायदा,
कब तक उन नंगों पर लिबास,
पिरोती रहे मेरी लेखनी
लगा कि जैसे मैंने ही लिखा है और इसी तादातम्य का असर था कि कविता दिल में उतर गई।मुझे पता है कि ये कुछ भी लिखने के लिए नहीं लिखा गया है और ये लिखने से पहले आपके दिल में कितने बादल घुमड़ कर बरसे होंगे।
यह एक कवि की विवशता है कि वो संसार को अपनी तरह से बदल नहीं पाता, ऐसा मुझे भी कई दफा लगता है कि फिर उस वेदना को लिखने का क्या फायदा...परंतु फिर कोई और रास्ता भी नजर नहीं आता। फिर सोचता हूं कि यदि एक इंसान के जीवन में भी कलम से कुछ परिवर्तन आ पाता है तो फिर हम सबकी रचनाएं सफल हैं।
कलम की साफबयानी और अपनी कुशल लेखनी के लिए आपको बहुत बधाई।
kya kahun...
aajtak sochta tha ki aapki harr kavita ek sandesh hai...ek kalpna hai,
sach kahun to ise padh kar darr lagta hai ki kahin ye sach to nahi...
kyonki agar sach hua to jaane aage kya hoga,
ek kavi ki sacchi bhavna ko ujagar kon karega...
acchi rachna hai..par haan iske bhav bhale hi sacche hon par iske andar jo aapke mann ki bhavna hai usse haavi matt hone dena...sayad aap samajh gaye honge....
विश्व दीपक जी,
आप गहरा सोचते हैं इस लिये स्वयं से ही प्रश्न पूछ रहे हैं। व्हई प्रश्न जिसके उत्तर आपके अपने ही आत्ममंथन को देने हैं:
जिनके रूह हीं नंगे हों,
उन्हें ढँककर क्या फायदा,
कब तक इस पागल बस्ती में ,
पले तेल-सी स्याही इसकी
दुनिया बदली है किससे यहाँ ,
बुद्धि नहीं समझती है,
मैं मानता हूँ यह कुंठा नही एक प्रश्न है लेखनी से।
हर शै में खुशियाँ फले-फूले,
एक कवि की है चाहत इतनी,
फिर तो हर शै ही बदले,
या खुद को भूले एक कवि
अंतिम पंक्तियों में वह स्पष्ट भी होता है। पुन: एक अच्छी रचना।
*** राजीव रंजन प्रसाद
तन्हाजी,
कविता में वेदना झलक रही है, एक कवि मन की छटपटाहट झलक रही है, वह बहुत कुछ बदलना चाहता है मगर उसे सुनने वाले सभी बहरे हैं...
ऐसे क्षणों में निराशा जायज़ है, बधाई स्वीकार करें।
कविराज ये कैसे हो सकता है...आपकी लेखनी की धार तो किसी नश्तर से कम नही है...
जिनके रूह हीं नंगे हों,
उन्हें ढँककर क्या फायदा,
कब तक उन नंगों पर लिबास,
पिरोती रहे मेरी लेखनी
बहुत सुन्दर लिखा है देखिये ना कैसा असर है इन पक्तिंयों में...
कब तक इन झंझावातों में,
इत-उत झूले एक कवि,
कब तक समाज में अकारण ,
पल-पल ही तुले एक कवि,
हर शै में खुशियाँ फले-फूले,
एक कवि की है चाहत इतनी,
फिर तो हर शै ही बदले,
या खुद को भूले एक कवि
ये क्या लिखा आपने इतनी वेदना मगर क्यूँ?
कवि की तलवार ही कलम है जो अकारण नही उठती
खुद को भूल कर भी भला कोई जी पाया है...
मेरी ढेरो शुभ-कामनाएं है आपके साथ...आप बहुत ही अच्छे विचारों के साथ रचना लिखते है जो हमेशा एक नई प्रेरणा लेकर आती है..हमे तो बहुत कुछ सीखना है अभी आपसे...मगर क्या बात आपको हमसे कैसी नाराजगी की आप हमे अपनी टिप्पणी से अभी तक वंचित किये हुए है..हमारे ब्लोग पर आने का जरा कष्ट करे श्रीमान... [:)]
सुनीता(शानू)
प्रतीक्षा रहती है आपकी क्योंकि हर बार उत्कृष्ट काव्य आपके माध्यम से पढने को मिलता है
लेखनी की वेदना आपके शब्दों के सहारे हृदयस्पर्शी हो गयी है
"कब तक इस पागल बस्ती में ,
पले तेल-सी स्याही इसकी"
आप बिल्कुल सही कह रहे हैं, लेकिन प्रयास तो करते ही रहन होगा न!!
अभिनंदन
सस्नेह
गौरव शुक्ल
अपने मन की वेदना एवं क्रोध को अपनी केखनी पर आरोपित करते हुए कवि के लेखनी से
निकला एक एक शब्द सीने को छ्छलनी करने वाले है ....
हैर एक पंक्ति मानो बता रही है कि ...
अब बस और नही .....
कवि कि इस आह को सुन शायद ....समाज में कुच चेतना आए |
aapke vichaar aur aapki lekhni dono ko pranaam kaviji, hriday ko bhedte chale gaye aapke ek ek shabd, bahut hi utkrisht kavita :)
Deepak
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