जिन्दगी से इस कदर मायूस हो गये
चुप्पी का कफ़न ओढ़ लिया और सो गये
हर कारवाँ लुटता रहा, रहबरों के सामने
वो रेत की दीवार थे, महसूस हो गये
वो चीख सी उठी कहीं और खो गयी
रस्ते तमाम शहर के, मनहूस हो गये
अब यूँ नहीं रहा कि बस उठके चल पड़े
इन्सानियत का आइना, मलबूस हो गये
न यकीं रहा कोई 'अजय' के भी ईमान का
हमको तो इतने हादसे, मानूस हो गये
मलबूस - कपड़े (लिबास का बहुवचन)
मानूस - परिचित
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19 कविताप्रेमियों का कहना है :
वाह भाई वाह क्या गज़ब ढा रहे हो ,
एक के बाद एक छक्का लगा रहे हो.
अजय जी
बहुत अच्छी गज़ल है
"जिन्दगी से इस कदर मायूस हो गये
चुप्पी का कफ़न ओढ़ लिया और सो गये"
खूबसूरत
सस्नेह
गौरव शुक्ल
वाह,आप तो हर विधा में हाथ आजमा रहे हैं
अजय भाई
ज़िन्दगी की छोटी बड़ी घटनाएँ प्रभावित तो करती हैं किन्तु हिम्मत हारना ग़लत है ।
दिल की वेदना को अभिव्यक्ति दो और आगे बढ़ जाऒ । निराशा वादी कवि मत बनो ।
कुछ मज़ेदार लिखो । खुश रहो और खुशियाँ फैलाऒ । शुभकामनाऒं सहित
Kshama prarthi hu,devnagarime na jaane kyo type naahi ho raha..."Mayoos ho gaye"rachna behad achhi lagi!
shama
vry gud,, can u send me 8 dohe on mitirta(friendship) its urgent...
plzzzz plz i wl be vry thankful.....
भाव बहुत सुन्दर थे परन्तु आपकी गजल संतुष्ट नहीं कर पाई। कम से कम पढ कर वॊ संदेश नहीं मिला जॊ शायद आप देना चाहते थे।
शुभकामनांए।
अजय भाई, लाजवाब शे'र मारे हैं। अब इनको अपनी आवाज़ में पॉडकास्ट कर दीजिए।
बहुत सुन्रद लिखा है।
बहुत सुंदर लिखा है अजय जी आपने
हर कारवाँ लुटता रहा, रहबरों के सामने
वो रेत की दीवार थे, महसूस हो गये
अजय भाई,
बहुत अच्छी गज़ल
शे'र जबरदस्त बन पड़े हैं; पढते-पढते डूब सा गया। अजय भाई ,इक इल्तिजा है आपसे -
"अब यूँ नहीं रहा कि बस उठके चल पड़े
इन्सानियत का आइना, मलबूस हो गये".... को थोड़ा स्पष्ट कर देंगे। शायद मै किसी और नजरिये से इसे देख पा रहा हूँ ; बिम्ब की अवधारणा पर थोड़ा प्रकाश डालेंगे ।
भावों का चित्रण तो मस्त था । पर हाँ ,गज़ल पूरी नही हो पाई ... अपने अंदर जाते-जाते फिर "उसी" से ही मिलना पड़ता है ( तत्वमसि )।
सस्नेह,
श्रवण
वो रेत की दीवार थे, महसूस हो गये॰॰॰॰॰॰॰ भई वाह !
क्या खूब कही ।
बस और कुछ नही कहना॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰
वाह!
बहुत ही खूबसूरत ग़ज़ल!!!
बधाई स्वीकार करें!
बहुत हीं खुबसूरत गज़ल ।
अजय जी..
आपकी इन पंक्तियों से जाहिर होता हओ कि आपके लेखन में परिपक्वता है:
चुप्पी का कफ़न ओढ़ लिया
रेत की दीवार थे, महसूस हो गये
रस्ते तमाम शहर के, मनहूस हो गये
इन्सानियत का आइना, मलबूस हो गये
हादसे, मानूस हो गये
बहुत अच्छी रचना।
*** राजीव रंजन प्रसाद
मेरे इस तुच्छ प्रयास को पढ़ने और उस पर अपने विचार जाहिर करने के लिये मैं सभी पाठक और कवि-मित्रों का अत्यंत आभारी हूँ. यह गज़ल मैंने जल्दबाजी में ही पोस्ट कर दी थी जिसके चलते इसमें कुछ ऐसी खामियाँ भी रह गयीं जो खुद मुझे भी खटक रहीं थीं और शायद इसी के चलते यह कुछ पाठकों को संतुष्ट नहीं कर पाई. इसके लिये मैं क्षमाप्रार्थी हूँ.
रितु जी ने मुझे निराशावादी न बनने की राय दी है, तो मैं यह स्पष्ट कर देना चाहूँगा कि मैं बिल्कुल भी निराशावादी नहीं हूँ. यह तो वर्तमान हालात को देखकर कभी कभी मन में उठने वाले विचारों की अभिव्यक्ति है. होने को हर रात की सहर आती ही है और ये बुराइयाँ भी एक दिन खत्म हो जायेंगीं.
अब यूँ नहीं रहा कि बस उठके चल पड़े
इन्सानियत का आइना, मलबूस हो गये
भाई श्रवण ने इस शेर को स्पष्ट करने को कहा था. मैं इस शेर में महज उस मानसिकता की बात कहना चाह रहा था जो मानव और उसकी मानवीयता का मूल्य उसके बाहरी रूप, ऐश्वर्य, वस्त्र आदि से आँकती है.
सभी का पुनश्च: धन्यवाद.
oy tandoori y kya likhta hai itna udas kyon rahata hai kabhi khushi ke bare main bhi likha kar
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