सुन मछुआरे, यह मेरा जो शीशमहल है,
तू कहता है , मेरे घर की एक नकल है,
भरा-पूरा है, घिरा घड़ा है, शांत निरा है,
इस अदने-से प्राणी हेतु तूने गढा है,
दूँ धन्यवाद? गुण तेरे निशि-दिन गाऊँ,
करो क्षमा, मैं मूढ , मुझमें कहाँ अक्ल है।
तू कहता है , मेरे घर की एक नकल है,
भरा-पूरा है, घिरा घड़ा है, शांत निरा है,
इस अदने-से प्राणी हेतु तूने गढा है,
दूँ धन्यवाद? गुण तेरे निशि-दिन गाऊँ,
करो क्षमा, मैं मूढ , मुझमें कहाँ अक्ल है।
ओ मछुआरे, तूने दिया जो शीशमहल है,
तुझे मिला क्या? बस यह जो चहल-पहल है,
मेरे घर से इस महल का जो रस्ता था,
इतनी जल्दी तय हुआ- इतना सस्ता था?
नहीं मरा ! तूने ही लिया , तूने हीं दिया,
मैं जिंदा हूँ -सब कहते हैं ,तेरा सुफल है।
ओ मछुआरे, कुछ पुछूँ ?- जो शीशमहल है,
इक भ्रम है मेरे हित , इसमें जो जल है,
संशय है क्योंकि ना हीं ज्वार, ना हिचकोले है,
ना हीं केंचुए वो, जो मेरा जीवन तौले हैं,
सब शांत है, मानों मौत की यह बस्ती है,
यदि जल है, तो जीवन क्यों यूँ अचल है?
सुन मछुआरे, देख यह जो शीशमहल है,
तेरी दुनिया और इसमें ना कुछ अंतर है,
एक मछुआरे ने तेरे लिए यह गढ डाला है,
साँसों और रिश्तों का जल देकर पाला है,
पर तू भी मछली है, घर खोकर आया है,
उसके मनोरंजन को तेरा जीवन,बस दो पल है।
-विश्व दीपक 'तन्हा'
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20 कविताप्रेमियों का कहना है :
आपकी कविताएँ हमेशा से गहराई से, मन से से लिखी गईं प्रतीत होती हैं।
दूँ धन्यवाद? गुण तेरे निशि-दिन गाऊँ,
करो क्षमा, मैं मूढ , मुझमें कहाँ अक्ल है।
यह पंक्तियाँ आपके अतिरिक्त और कौन लिख सकता था!
सोचने की बात है-
सब शांत है, मानो मौत की यह बस्ती है,
यदि जल है, तो जीवन क्यों यूँ अचल है?
बहुत सुन्दर रचना है।
ओ मछुआरे, कुछ पुछूँ ?- जो शीशमहल है,
इक भ्रम है मेरे हित , इसमें जो जल है,
संशय है क्योंकि ना हीं ज्वार, ना हिचकोले है,
ना हीं केंचुए वो, जो मेरा जीवन तौले हैं,
सब शांत है, मानों मौत की यह बस्ती है,
यदि जल है, तो जीवन क्यों यूँ अचल है?
तन्हा जी,
आपने लिखा-
ओ मछुआरे, तूने दिया जो शीशमहल है,
तुझे मिला क्या? बस यह जो चहल-पहल है,
मेरे घर से इस महल का जो रस्ता था,
इतनी जल्दी तय हुआ- इतना सस्ता था?
आज ब्लोगर मीट में प्रश्न उठाया गया था कि कविता में उपदेश की प्रधानता न होकर भाव प्रधान हों
जबाब आपकी कविता ने दे दिया, कि हम सही रास्ते पर ही हैं।
'उसके मनोरंजन को तेरा जीवन,बस दो पल है।'
बहुत खूब।
मेरे घर से इस महल का जो रस्ता था,
इतनी जल्दी तय हुआ- इतना सस्ता था?
संशय है क्योंकि ना हीं ज्वार, ना हिचकोले है,
ना हीं केंचुए वो, जो मेरा जीवन तौले हैं,
सब शांत है, मानों मौत की यह बस्ती है,
यदि जल है, तो जीवन क्यों यूँ अचल है?
पर तू भी मछली है, घर खोकर आया है,
उसके मनोरंजन को तेरा जीवन,बस दो पल है।
मैं आपके सोच की गहराई का कयल हूँ। ब्लॉगर्स मीट मे उठे प्रश्न का जिक्र देवेश ने किया है तो मैं यहाँ उनसे सहमति जताना चाहूँगा कि समकालीन कविता और कवि केवल बडे नामों का महात्म्य क्यों..तनहा जी की कविता का शिल्प और भाव की गहराई देखें। कविता की समझ भी गहराई तलाशती है।
*** राजीव रंजन प्रसाद
तन्हा जी, इस युग मे इतनी गहरी रचनाएं बहुत सुकून दे जाती हैं।सबसे पहले तो मैं इतनी कम टिप्पणियाँ देख कर दुखी हूं। फिर आपकी ही पंक्तियाँ याद आ जाती हैं-
सब शांत है, मानों मौत की यह बस्ती है
आप एक बहुत चिंतनशील कवि हैं और प्रेरणा देते हैं।मैंने दो बार पढ़ी और अब भी आशंकित हूं कि पूरा समझ सका या नही! अच्छी कविता की यही खासियत है कि हर बार नया अर्थ देकर जाती है।
इन पंक्तियों ने विशेष प्रभावित किया-
एक मछुआरे ने तेरे लिए यह गढ डाला है,
साँसों और रिश्तों का जल देकर पाला है,
पर तू भी मछली है, घर खोकर आया है,
उसके मनोरंजन को तेरा जीवन,बस दो पल है।
आप लिखते रहिए...पथ बहुत दुश्वार है, आपकी कविताएं साथ होंगी तो सम्बल मिलता रहेगा।
बहुत साधुवाद।
पर तू भी मछली है, घर खोकर आया है,
उसके मनोरंजन को तेरा जीवन,बस दो पल है।
तन्हा जी, इस बार तो आपने सचमुच कमाल कर दिया। यूँ तो आपकी रचनाएं हमेशा ही बहुत सुंदर और भावपूर्ण होतीं हैं, पर इस कविता में आपने शब्दों और भावों का चमत्कार पैदा कर दिया है। बहुत बहुत बधाई। आपकी अगली रचना की प्रतीक्षा रहेगी।
बहुत ही सुंदर दिल से लिखी हुई है आपकी यह रचना ...
मेरे घर से इस महल का जो रस्ता था,
इतनी जल्दी तय हुआ- इतना सस्ता था?
नहीं मरा ! तूने ही लिया , तूने हीं दिया,
मैं जिंदा हूँ -सब कहते हैं ,तेरा सुफल है।
मेरे घर से इस महल का जो रस्ता था,
इतनी जल्दी तय हुआ- इतना सस्ता था?
नहीं मरा ! तूने ही लिया , तूने हीं दिया,
मैं जिंदा हूँ -सब कहते हैं ,तेरा सुफल है।
Ati sundar rachna.....bhaav pramookh....bahaav pramookh
कविता दो बार पढी अब कुछ समझ में आ रहा है। गूढ है किसीने कहा मैने अनुभव कर लिया। जितना समझ पाया हूँ अच्छा लगा।
सब शांत है, मानों मौत की यह बस्ती है,
यदि जल है, तो जीवन क्यों यूँ अचल है?
बहुत सुंदर रचना है ।
क्या कहूँ दीपक जी?
आपकी सोच की गहराई की थाह ले पाना मेरी क्षमता से बाहर है
आपका शिल्प,शब्द्चयन, और सबसे बडी बात भावों की ऐसी ह्र्दयंगम अभिव्यक्ति अद्वितीय है
नमन आपकी लेखनी को
कोई पंक्ति विशेष उद्धरित कर किसी अन्य पंक्ति के साथ अन्याय कर पाने का साहस मुझमें नहीं है
अनुपम,अद्भुत रचना
बधाई
सस्नेह
गौरव शुक्ल
एक चिंतनशील कवि की
बहुत सुन्दर.
मन से
गहराई से,
लिखी गईं रचना
सब शांत है, मानो मौत की यह बस्ती है,
यदि जल है, तो जीवन क्यों यूँ अचल है?
बहुत खूब।
आपकी लेखनी को
नमन
बधाई
गीता पण्डित
Deepak bhai ki rachna kafi bhavpurn aur navnin rachna hai hai , usme tadap hai usme ek tarah ki gahrai hai , woh ek vayakti ke dil ki pida ko bakhubi ubhar lane main kafi had tak safal rahe hai , meri shubh kamnaye unko aur is acchi rachna ke liye sadhuwad
विश्वजी,
आपकी रचनाएँ बहुत गहराई लिये होती है, शब्दों को आप बहुत ही खूबसूरती से सजाते हैं -
दूँ धन्यवाद? गुण तेरे निशि-दिन गाऊँ,
करो क्षमा, मैं मूढ , मुझमें कहाँ अक्ल है।
बस वाह! वाह! करने को दिल करता है। कुछ पंक्तियाँ बहुत गहरी चोट करती है, यथा -
सब शांत है, मानों मौत की यह बस्ती है,
यदि जल है, तो जीवन क्यों यूँ अचल है?
बधाई स्वीकार करें।
बहुत ही ख़ूबसूरत रचना ...या यूँ कहें भावों की गहराई में डूबे तन्हा भाई की तन्हाई का अल मस्ती है ..
इस सुंदर कविता के लिए मेरी और से ढेरो बधाइयाँ.....
आप की हमेशा की नाराज़ई को दूर करने के लिए मैने एह टिप्पणी लिखी...
वरना मैं तो अभी भी भवविमूध हूँ......
इक भ्रम है मेरे हित , इसमें जो जल है,
संशय है क्योंकि ना हीं ज्वार, ना हिचकोले है,
ना हीं केंचुए वो, जो मेरा जीवन तौले हैं,
सब शांत है, मानों मौत की यह बस्ती है,
यदि जल है, तो जीवन क्यों यूँ अचल है?
maati kahe kumharse..tu kyu ronde hai mujhko?..eik din aisa bhi aayega main roundungi tujhko...
wahiwali baat aapke kavitase pratit hoti hai...achhi lagi!
aapki rachna achhi lagi...
mujhe eik baat yaad aa rahi hai...
maati kahe kumharse,"tu kyu ronde hai mujhko?eik din aisa aayega ,main roundungi tujhko"
""सब शांत है, मानो मौत की यह बस्ती है,
यदि जल है, तो जीवन क्यों यूँ अचल है? ""
Loved it!!!
Yaar ek suggestion dun??
aap TI ko full time join kar lo..........
As an Engineer kitna progress karoge pata nahi.......
par e kbahut achchhe KAVI ban jaaoge agar isi tarah sundar sundar rachnaayein likhte rahe to.........
yaar ek Quaid machhli ke mann ki gahraaiyo tak pahunch gaye ho aap......
bahut Gahraayi hei aapke vichaaro me.....
dhanyawaad aisi rachnaa padhwaane ke liye
vd bhai... , aapki ye rachna mujhe bahut achhi lagi. Aapne machaliyon ke madhyam se manav sabhyata ke samukhkh ek bahut hin vicharniya prashn ko bahut hin jordar dhang se prastut kiya hai. Aaj hum jo chidiyagharon men janwaron aur pachhiyon ko sarnchhit karne ki baten karte hain, sab humari beyimani nahi to aur kya hai?
aaj ek kavi ke alava un bejuban praniyon ki byatha ko kaun sun sakta hai.
Bahut pahle pinzre men band pachhi ki byatha kavita ke madhyam se suni thi, par aaj aapki rachna usse bhi kahin badhkar malum padti hai.
..........thnk u for such a nice poetry....waiting 4 ur next one.
Aise to main kavita padhne wala insaan nahi huun...magar aapki kavita padh ke achcha laga!!!
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)