कल रात छत पर लेटकर, मैं था गगन को देखता
अनगिनत तारों ने मिलकर, था जिसे जगमग किया
इस छोर से उस छोर तक, गुच्छों में बिखरे थे सितारे
आकाश लगता था हो जैसे, बाग इक फूलों भरा
या कोई मेला हों जिसमें, मासूम चेहरे मुस्कुराते
देखता निश्चल पड़ा मैं, दृश्य क्या इसमें नया है
सब नजारे हैं वही, बस इन्सान ही बदल गया है
इतने में देखा क्षितिज पर, चाँद का रथ आ रहा था
उस ओर के तारों ने हटकर, शायद उसे रस्ता दिया था
चाँदनी छिटकी ज़मीं पर, सब अँधेरा मिट गया
रहस्यमय था जो नजारा, फिर से मनमोहक हुआ
दिखने लगा इक बार फिर, वो पेड़ थोड़ी दूर का
जिसकी छाँव में खेलते, कितनों का बचपन गया है
सब नजारे हैं वही, बस इन्सान ही बदल गया है
सोचता था मैं हृदय में, काश हो पाता कुछ ऐसा
इन्सान भी मिलजुल के रहता, आकाश के तारों के जैसा
सर उठा पाते न दंगे, देश धर्म समाज के
सुलझते कितने ही मसले, नासूर हैं जो आज के
पर बदल पायेंगे क्या, इन्सान अपनीं आदतें
सोच वो कि स्वार्थ जिसमें, पैठ अंदर तक गया है
सब नजारे हैं वही, बस इन्सान ही बदल गया है
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12 कविताप्रेमियों का कहना है :
jo aap keh rahe hai us par amal main lane ko to sabhi kehte lekin wo bhi tab. jab wo us dour se gujar rahe hote hai . jab unko kissi ke sath ki jarorat hoti hai
रचना में कुछ गुंजाइश और थी, कहीं कहीं अच्छा संदेश देते हुऐ भी प्रभाव नहीं छोड पायी ।
अजय भाई
आपने तारों को बहुत दूर से देखा है ।
इसी लिए तुम्हें तारे सुन्दर लगे । करीब जाकर देखोगे
तभी उनका दर्द समझ पाओगे । अच्छी कल्पना है ।
आर्य मनुजी से सहमत हूँ, अभी गुंजाइश है...
कुछ पंक्तियों ने आकर्षित किया अजय जी....
आकाश लगता था हो जैसे, बाग इक फूलों भरा
या कोई मेला हों जिसमें, मासूम चेहरे मुस्कुराते
देखता निश्चल पड़ा मैं, दृश्य क्या इसमें नया है
सब नजारे हैं वही, बस इन्सान ही बदल गया...
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दिखने लगा इक बार फिर, वो पेड़ थोड़ी दूर का
जिसकी छाँव में खेलते, कितनों का बचपन गया है
सब नजारे हैं वही, बस इन्सान ही बदल गया है
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कुछ बात तॊ है कविता में। पर वॊ आंनद नहीं आया जिसकी आरजू थी।
सुनील डॊगरा जालिम
+91-98918-79501
अजय जी आज फ़िर बेहद सुन्दर रचना...
सुन्दर है अजय जी...
जरूरी नहीं की हर कोई कवि के मन के भावों को पकड सके.. हर शब्द हर भाव के पीछे कवि क्या सोच रहा है वही जानता है.
लिखते रहिये...
अजय जी, रचना का सन्देश सुन्दर है।
लेकिन लय कहीं -२ अवरुद्ध हो रही है।
भाव तो प्रबल है, मगर कविता न तो आवेगित करती है, न संवेदित और न ही आनंदित कर पाती है। आगे बेहतरी की उम्मीद है।
mushkil hai aisa hona, mushkil hai insaanon ka mil kar khilna zindgi bhar koi gile shikwa nahi karna
aapki baat ajay ji socho to bahut achhi magar jano to kitni asambhav
log kitne khudgurz ho gaye hai mushkil hai bahut mushkil hai
magar kavi ka bhavuk man kaha samjhta hai ye hai na
Hemant said.........
u r write mr. yadav
human being has been changed
but u know that who is responsible 4 that think abt it
if u get it then tell me sure
by the way ur all poems r excellent or i say superb
keep it continue byeeeeee
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