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Sunday, June 10, 2007

तृतीय यूनिमीमांसा (द्वारा जयप्रकाश मानस)



तुम्हारा प्यार

प्यार साहित्य और कला का सबसे अहम विषय है । लोक और शिष्ट दोनों ही साहित्य में प्रेम की नानाविध कवितायें हैं । कहा जाता है कि हर कविता या तो करुणा से अवतरित होती है या फिर श्रृंगार से । इसमें मिलन एवं विरह दोनों भाव उत्प्रेरणा का कार्य करती हैं । हिंदी का हर कवि शुरुआती दौर में ऐसा न हो कि प्रेम कविता न लिखे । प्रेम की कविताओं के लिए हिंदी में सबसे पहले जो समय याद आता है वह है वीरगाथा काल जिसमें नख-शिख वर्णन ही राज्याश्रयी कवियों का मुख्य कर्म था । इसे चारण काल भी इसीलिए कहा जाता है । भक्तिकाल का प्रेम अध्यात्म की श्रेणियों को प्रतिष्टित करता है । आधुनिक काल में भी प्रेम की कविताएं सर्वत्र हैं और घनीभूत हैं । पर लगातार इन कविताओं में दृष्टि, अनुभव, और अभिव्यक्ति हेतु चयनित शिल्प मे अंतर आता चला गया है । सच तो यह है कि बिंब भी युगानुकूल परिवर्तित होते रहे हैं । यही कविता में मौलिकता है और नवीनता भी । अन्यथा आप कहाँ से लायेंगे नया और नितांत नया भाव । मन तो वही है । मन की अनुभूति भी वही । पर उस अनुभूति और अनुभव के स्तर में जरूर परिवर्तन होता है । यह परिवर्तन समय, देश, काल और वस्तुओं पर केंद्रित होता है । चाहे जो भी हो पर प्रेम कविता का शाश्वत विषय है । कविता में प्रेम होता ही है और प्रेम में कविता भी इसी तरह । प्रेम ही कविता है और कविता ही प्रेम है । प्रेम में यदि कविता अनुपस्थित है तो वह प्रेम नहीं । चाहे वह पीड़ानुभूति की हो या सुखानुभूति की ।
तो अनुपमा की जो कविता है उसमें प्रेम का वर्णन कई समय को हमारे समय रख देता है । जब वे शबनम या शोला मानती है प्यार को तो लगता है हम मुगल काल के या फिर उर्दू की कविता काल में पहुँच गये हैं । एकाध बार मुझे तो लगा कि मैं बंबईया सिनेमा के गीतों का कोई रिकार्ड सुन रहा हूँ । और यदि ऐसा लगा तो यह कवि की सफलता भी हो सकती है । ऐसा इसलिए लगता है कि हिंदी कविता खासकर माडर्न पोएट्री में शोला या शबनम का एक साथ प्रयोग अधिक महत्वपूर्ण कवियों के यहाँ कम ही हुआ है । पर भारत में हिदीं और उर्दू की धारा एक साथ बहती रही है । ऐसे अनुप्रयोग या अनुभव का संसार वहाँ अधिकतर है । यानी कि नज़्मों, ग़ज़लों में ।
कवयित्री को कभी प्यार बरसात प्रतीत होता है तो कभी तृष्णा । यहाँ मुझे लगता है कि बरसात को कवयित्री ने तृप्ति का बिंब माना है । अगली पंक्ति में यहाँ काव्य सौदर्य के लिए मौसम का ही कोई शब्द आना था – तृष्णा की जगह । या फिर बरसात की जगह तृप्ति तब पद का वज़न बराबर नज़र आता । देखें उनकी कविता -

तुम्हारा प्यार
कभी शबनम तो कभी शोला
कभी बरसात, कभी तृष्णा
कभी बन्धन तो कभी मुक्ति
कभी आँसू कभी अंगार


यहाँ प्यार शबनम है तो शोला भी है । बंधन है तो मुक्ति भी है । यानी कि दोनों स्थितियाँ परस्पर विरुद्धार्थी हैं । आगे की पंक्ति में यह निर्वाह नहीं हो सका है । जैसे चौंथी पंक्ति में आँसू और अंगार है । यहाँ दोनों लगभग एक ही भाव के शब्द हैं । ऐसे में गीत का सौंदर्य कम लगे किसी पाठक और खासकर गंभीर पाठक को तो उसकी दृष्टि के लिए दोषी माना नहीं जा सकता है ।
अन्य पदों में प्यार को सभी आदर्श और औदात्यत्मक भावों में देखा, अनुभव किया गया है । पर प्रारंभ में कवयित्री ने शायद सोचा था कि प्यार के दो-दो रूपों और परस्पर विपरीत रूपों को रखे। वह सफल भी हुई है यहाँ, पर बाद में उसका निर्वहन न हो सका है । या दूसरों शब्दों में यह भी कह सकते हैं कि कवयित्री को प्यार के श्रेष्ठ अनुभावों का आस्वाद या अनुभूति ज्यादा है सो वही भाव अधिक हैं । जो भी हो – जब उसे प्यार - पहली बरसात की मिट्टी सा गीला अनुभव होता है वह उस आदिम घ्राण बिंब को पकड़ लेती है जो हर किसी को अपनी ओर खींचता है । तब भी और आज भी । यहाँ कवयित्री प्यार को एक ऊँचाई में प्रतिष्ठित कर देती है । पर कवयित्री की अभिव्यक्ति को समझने में पाठक वहाँ चकरा सकता है जहाँ प्यार को सूक्ष्म से मोक्ष सा विषैला कहा गया है । यहाँ कविता का भाव कठिन हो जाता है । सही और कवि के अनुभव या अर्थ तक पहुँचने में कठिनाई भी होती है । पाठक अपने मन, अनुभव और योग्यता से अर्थ ढूँढने लगता है । यानी कि वह एक अंधेरे में प्रवेश कर जाता है । चाहें तो आप इसे कवयित्री की विशिष्टता कह सकते है या कमजोरी । यह आपके ऊपर है ।

महक उठी जैसे कस्तूरी

इस कविता का शीर्षक काव्यात्मक है । भाव भी बढ़िया है पर अभिव्यक्ति भाव के अनुकूल सिद्ध नहीं हो सकी है । गीत शिल्प में किसी रचना को प्रस्तुत करते वक्त हमें देखना होगा कि छंद सधा हुआ है नहीं । पदों में बराबर मात्राएँ या वज़न है या नहीं । शब्द कहीं अड़ तो नहीं रहे हैं । चुभ तो नहीं रहे हैं । लय है या नहीं । गीतकार तो अपनी किसी भी रचना को गाकर बता सकता है पर उत्कृष्टता की ओर यदि गीतकार जाना चाहता है तो उसे चाहिए कि उसके गीत एक बार पढ़ते ही कोई बहने लगे जैसे नदी में कागज बहने लगता है । मन इस तरह सरल हो जाये । कई ऐसे गीतकार है जिनकी पंक्तियों को पढ़ते समय ही हमारा मन एकाएक लयबद्ध हो उठता है । मन में एक नया राग स्वतः फूटने लगता है । फिर भी प्रयास अच्छा है । गीत को रचनाकार साधे तो वह एक अच्छा गीतकार बनकर नाम कमा सकता है ।
शब्द का चयन करते वक्त कवि की भाषाओं के परिसर मे आता जाता है । यह अच्छी बात है । पर खटकने वाली बात यह हो सकती है कि कई बार कथ्य या वाक्य को एक ही भाषा के शब्दानुशासन में साधने का और प्रयास कवि को करना चाहिए – जैसे इन पंक्ति में - ख्यालों के स्पर्श से सही । ख्याल उर्दू का है और स्पर्श हिंदी और मूलतः तद्-भव । एक गीत याद आ रहा है मुझे जो फिल्म का ही है – छूकर मेरे मन को किया तूने क्या इशारा । यहाँ यदि कवि कह बैठता कि – स्पर्श कर तेरे मन को – तो सोचिए भला कैसा लगता । यहाँ पढ़ तो लेते पर इसे सुनने का जो आनंद है क्या वह मिलता । नहीं ना । तो गीत में इन बातों को हमे जरूर देखना चाहिए कि वह गेय है या नहीं । शब्दों का लय मिल रहा है या नहीं । गाते वक्त कहीं अटकना तो नहीं पड़ रहा है । अब यह अलग बात है कि इन दिनों फिल्मों में भी ऐसे ही गीत लिखे और सराहे जा रहे हैं जिन्हें इन बातों से कोई लेना देना नहीं है । उदाहरण कई हैं पर यह मौका नहीं है ।

तुम्हारी उपमा

कविता गद्यमय है । कविता इसी रास्तों पर जाने लगी है । हिंदी के बहुत सारे कवि इसी तरह लिख रहे हैं । पर अभी भी कुछ कवि है जिन्हें समकालीन कविता के हस्ताक्षरों में देखा जाता है । यह इसलिए कि उनके पास एक फॉर्म है कविता की या भाषा है या फिर छंद है या कथ्य है नितांत नया । इसमें से कई प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में भी खूब जगह घेरते हैं ।
मैं यहाँ अपनी बात रखना चाहता हूँ । जब भी कोई कविता लिखता हूँ तो लिखने के बाद उसे गद्य लेखन की शैली में एक ही पंक्तियों में रख कर पढ़ता हूँ । यदि मुझे लगता है कि यहाँ एक लय है । एक रम्यता है । शुष्कता का अभाव है । यदि यह नहीं है तो कम से कम अर्थ या भाषा की चमक है तो फिर मैं उसे पद्य की तरह लाइन तोड़कर पुनः लिख लेता हूँ । यदि कहीं लगता है कि मैं स्वयं अटक रहा हूँ तो कई दिनों तक अलग-अलग शब्दों को स्थानापन्न रखते हुए उन्हें अनुभव करता हूँ । यदि कोई नया शब्द सटीक बैठकर नया अर्थ दे जाता है तो उसके धन्यवाद देते हुए वहीं बैठा देता हूँ जैसे पूजा घर में माँ छांठकर किसी पत्थऱ को देवता बना कर पूजने लगती है । यहाँ मैं कहना मात्र यही चाह रहा हूँ कि कविता यदि गद्य को तोड़-तोड़कर लिखना ही है तो दुनिया का हर व्यक्ति कवि है । और उसकी कही हुई कविता । हमें एक कवि के रूप में यह स्वयं तय करना होगा कि हम कैसे लिखें ? गद्य एक तरह का विस्तार है और पद्य एक तरह का संकुचन । जहाँ अर्थ छुपा बैठा होता है । उसे उस रूप मे वहाँ नहीं होना चाहिए जिस रूप में वह गद्य में होता है यानी कि अर्थ के रूप में ।



पंकज तिवारी



मेरी बीबी कैसी हो?

माँ जैसी पत्नी की तलाश लगभग भारतीय युवा करता है । पर यहाँ कवि को मम्मी जैसी पत्नी चाहिए । मम्मी और माँ में फ़र्क है । भारतीय मनीषा में माँ मम्मी नहीं होती । और मम्मी माँ नहीं हो सकती । माँ शब्द में बड़ी पवित्रता दिखाई देती है । मम्मी में वह पवित्रता नहीं दिखाई देती । कम से कम आम पाठकों को जो हिंदी से संस्कारित होते हैं । आज भारत में कुछ माँएँ हैं और कुछ मम्मी । दरअसल समकालीन भारतीय परिवेश के दबाब के कारण माँ की जगह मम्मी ने अतिक्रमण कर लिया है । क्योंकि आधा इंडिया है और आधा भारत । जो भी हो । मुझे कम से कम हिंदी कविता पढ़ते हुए लगभग 25-30 साल हो चुके हैं । पहली बार ऐसी कविता हिदीं में पढ़ने को मिली है । भावी पत्नी से जो यहाँ अपेक्षित है वह भारतीय नारी के अधोपतन और माँ की शाश्वत भूमिका दोनों का रेखांकन है । कवि अपने जीवनसाथी में माँ जैसा नहीं तो कम से कम मम्मी का गुण देखना चाहता है । कविता में एक बार पढ़ने का आमंत्रण अवश्य है । क्योंकि इसका भाव तो बहुत ही बढ़िया है पर कवि को इसे और बेहतर ढंग से कहने के लिए फिर से प्रयास करना चाहिए । तब शायद वह और अच्छी कविता बन पड़े ।

दोषी दिल बेरहम है।

शब्द सरल हैं। तुक का निर्वाह भी है। आम बोलचाल की भाषा है। भाव में भी रम्यता है यहाँ, पर साहित्यिक गीतों के जो तत्व होते हैं शायद उनका अभाव इस गीत को प्रभावशाली नहीं बना पाता। कुल मिलाकर साहित्य की दृष्टि से गीत सामान्य है। सामान्य पाठकों को रिझाने में सक्षम गीत कहा जा सकता है इसे।

आप क्या कीजिए

ग़ज़ल फॉर्म को साधने का जो प्रयास हुआ है उसकी बड़ाई की जानी चाहिए। कहीं-कहीं शब्द मात्रा या मीटर के हिसाब से कम या ज़्यादा हैं । इसे ग़ज़लकार को ध्यान में रखकर कड़ाई से पालन करना चाहिए। जैसे अंतिम शे’र में (सुनते हैं इश्क़ का फलसफा है कठिन; ) 'हैं' शब्द दो बार आया है। दूसरी बार वाला अतिरिक्त है। इसके बिना भी यह गेय हो सकता है।

हैं कुछ खाते पुराने भी

वज़न पैदा कीजिए ग़ज़ल में। शब्दों को साधिए ज़रा। मेहनत कीजिए। रदीफ़ और काफ़िया का पूर्ण निर्वाह है यहाँ पर मीटर गायब है । तीसरे शे’र में रदीफ़ ही गड़बड़ा गया है। यहाँ उड़ना है जबकि शेष में पाना, चुकाना, निशाना आदि।

एक शरारत बचपन में।

बचपन पर अच्छी ग़ज़ल। यदि इसे आप भी मेरी तरह ग़ज़ल मानना चाहते हैं तो रदीफ-काफिया को निभाइये। फ़िर देखिए कैसे बेहतरीन ग़ज़ल बनती है यह। हाँ आप इसे कविता ज़रूर कह सकते हैं। आपमें ग़ज़ल लिखने की प्रबल संभावना है उसकी साधना कर सकें तो ज्यादा अच्छा होगा।

रंजना भाटिया


तलाश

हर शब्द कविता में फिट नहीं बैठते । कविता भी यह अपेक्षा कहाँ करती है कि उसके परिसर में वे सभी शब्द आ घुसें जो कवि की दुनिया में नियमित आते-जाते हैं। कविता अपेक्षा करती है कि कवि उसका शृंगार करे। उसे सजाये-संवारे। एक आकर्षण पैदा करे। पाठक एक बार आये तो बरबस उसमें रम जाये। कवि की अनुभूति पाठक की अनुभूति बन जाये। बात दुनिया की ही हो। स्वप्न हो या कल्पना। वहाँ पाठक को न लगे कि वह किसी कविता के बहाने निहायत बोलचाल का गद्य पढ़ रहा है। ऐसे में वह कविता के प्रति धारणा पाल सकता है कि कविता वही जो हम सामान्य जीवन के सामान्य भाषा में बोलते-फिरते हैं। शायद वह कवि और सामान्य गद्य-व्यवहारी अर्थात् व्यक्ति में भी कोई अंतर न कर सके। और यदि उसे लगे कि यहाँ सामान्य-सी नज़र आने वाली घटना, विषय वस्तु, या भाव में भी एक चमक है, एक अलंकार है, एक खास भाषा है, कुछ रस उमड़ रहा है तो कदाचित् वह भी कह उठे भई, क्या बात है ।

तेरे छुने से

प्यार के अंकुरण को लेकर जो बिंब यहाँ गढ़े गये हैं वे चित्ताकर्षक हैं। बिंबों के प्रयोग से कविता भाव के स्तर पर पुरानी होती हुई भी रोचकता उत्पन्न करती है। इन बिंबों में 'हिम नदी सी जमी हुई थी मैं, सोई हुई तितलियों के पंख में अकुलाहट' आदि । कविता में आखिर कुछ तो हो जो अभिव्यक्ति की दूसरी विधाओं से अलहदा हो। और वह यहाँ दिखाई देने लगा है।

नयनों की बात

प्रेमांकुरण का चित्र हैं यहाँ इस कविता में। लगता है जैसे बार-बार हम सुन रहे हैं किसी कविता को। जरा कहन में नयापन लाने की ज़रूरत है। वाक्यों में लिपिकीय त्रुटि भी है। ध्यान दीजिए। पर्यायवाची शब्दों के सही प्रयोग करने की तकनीक के बारे में जानकारी बढाइये। ताकि आपके शब्द संप्रेषण का संकट खड़ा न करें या अर्थ की तरलता को बाधित न करें। शब्द समय, देश, काल, परिस्थिति को भी अभिव्यक्त करते हैं शब्दों की इस ताकत को साधते रहिए। फ़िर देखिए आप कितनी अच्छी कविता लिखने लगी हैं ।

परछाइयाँ

इस कविता को एक बार आप स्वंय पढ़ें । मुझे विश्वास है आप इसमें जरूर कुछ हेर-फेर करना चाहेंगे । और यदि आप चाहते हैं कि मैं हर कविता पर अच्छाई तलाश करूँ तो यह बेमानी होगी । मेरे अपने प्रति, कविता के प्रति, मेरी अपनी समझ के प्रति और सबसे बड़ी बात कि आपके प्रति भी ।

राजीव रंजन प्रसाद


थोडा नमक था....

कथा प्रसंग अत्यंत महत्वपूर्ण है। समकालीन विडम्बनाओं की ओर इशारा करती है। सो कवि का सरोकार भी उजागर होता है। पर यह कविता जरा मन के भीतर और पैठे इसके लिए इसे कविता की शर्तों में और कसे जाने की गुंजाइश शेष है। विश्वास है कवि इसमें कतरायेगा नहीं।

तेरा चेहरा ही सौ गुना होगा

कवि का जनवादी तेवर यहाँ खुलकर पाठकों के समक्ष आया है। ऐसी कविताएँ पाठकों को ज्यादा आग्रह के साथ जोड़ती हैं। भाषा का खुलापन भी है पर उसे और नवीन बनाना पड़ेगा ताकि कवि को भाषा की ताज़गी भी मिले। कहीं-कहीं शब्द लगते हैं कि वे ज्यादा घिसे-पिटे हुए हैं और चमक नहीं दे पा रहे हैं। वैसे यहाँ लोक से भी शब्द उठाये गये हैं जैसे – पर्वत की जगह परबत। जो एक विशिष्ट भाव, अर्थ और भूगोल की ओर मन को ले जाने में सक्षम है। कई बार होता है कि हम कवि गण एक छोटी-सी कविता में भी बहुत सारे समान भावों (या उदाहरणों, घटनाओं आदि) को पिरो देते हैं। पर यह कई बार कथ्य को कमजोर कर देता है। इसे हम ऐसे बिंबों के माध्यम से भी कह सकते हैं जो इन सभी का प्रतिनिधित्व कम शब्दों में करें और समूचा भाव भी एक गंभीर पाठक के समक्ष प्रकाशित हो उठे।

और झलक भर.....

गीत अपनी शर्तों के साथ यहाँ विकसित होता जान पड़ता है। कुछ अतिरिक्त शब्द प्रवेश कर गये हैं। इन्हें काटना-छांटना रह गया है। होता क्या है कि हर बार एक ही स्ट्रोक में अच्छी कविता नहीं बन पाती है। फिर हम फूल-टाइम वाले भी कवि तो नहीं है। ऐसे मैं क्या ऐसा नहीं किया जाना चाहिए कि प्रारंभिक भावों को एक डायरी में लिख लें। या जिस समय मन मे उमड़न-घुमड़न मचा रहता है उसे कहीं टांकते चलें। फ़िर लिखकर स्वंय बार-बार गुनगुनायें। मित्रों को सुनायें। कोई न मिले तो परिवार में सुनायें। बच्चों को सुनायें। उनकी राय जानें। उनके अनुसार कुछ संशोधन करके देखें। फ़िर उसका पाठ करें। यदि तब भी लगता है कि कहीं खोट है तो उसे फ़िर से इसी या कोई और मनोवांछित पद्धति से मांजते रहें। तब तक जब तक कि उसे लेकर मन में पूरा विश्वास न बैठ जाये कि अब यह अंतिम रूप से श्रेष्ठ बन चुका है। ऐसा करने में कोई बुराई नहीं है। ऐसा करना कवि-कर्म की प्रकिया में ही आता है। बड़े-बड़े गीतकार और कवि-कहानीकार भी ऐसा करना स्वीकारते हैं। हम भी ऐसा करके तो देखें ।

निर्लज्ज युवा हैं...

युवाओं की दिशाहीनता पर अच्छा भाव है कवि के पास। यहाँ चमकीले शब्दों की धार भी दिखाई देती है पर विस्तार के कारण कविता कहीं कहीं अपनी प्रभावशीलता की निरंतरता बनाये रखने में चूकने लगती है। पाठक का तारत्मय एक सा कविता में नहीं बना रहता। यह कवि की कमज़ोरी है। कविता की नहीं।

मेरे सीने में जल रहा क्या है...

यह गीत एक पूर्ण गीत की तरह बन पड़ा है। यहाँ कला और भाव दोनों का आकर्षण है। ऐसे ही गीतों की अपेक्षा एक सुधि पाठक को होती है। हम ऐसे गीत लेकर ख़ास ज़गहों पर भी दस्तक दे सकते हैं। भई बधाई।

मोहिन्दर कुमार


अम्बा का संताप

मिथकीय कथन के कारण रचना में आकर्षण है। कवि का सामाजिक सरोकार भी है। पर वाक्यों में अनेक त्रुटियाँ हैं। शब्दगत और व्याकरणिक भी।

अन्दाज लगाना मुशकिल है

कविता में नैराश्य अधिक है। इसका मतलब नहीं कि कवि नैराश्य में डुबता-उतरा रहा हैं। यह समकालीन जीवन की दुसह परिस्थितियों का अच्छा आंकलन है पर पाठकों के लिए इसमें जरा विश्वास घोलिए।

कहीं ऐसा न हो जाये

सामान्य भाव, सामान्य प्रभाव। क्योंकि इसी भावभूमि पर हिंदी में कविताओं की विस्तृत श्रृंखला है। शब्दों का प्रयोग – मूल हिंदी से न होकर उर्दू से हुआ है। कहिए कैसे ? वह ऐसे – उमर भी लग जाये। सलामत तू हरदम। जान के सदके। गुलजार मिल जाये। कबूल ये दश्त। मुसाफिर हूँ। पैमानों की किस्मत में। मिटाती नक्शे-पा मेरे आदि। आपत्ति यह नहीं कि उर्दू के शब्द क्यों हुआ। आपत्ति यह कि इसे हम हिंदी कविता कह रहे है। उचित होगा कि इसे हम नज़्म कहें। आपत्ति इस बात को लेकर हो सकती है कि जब हम किसी प्रायोजित भाषा में लिखते हैं – अपनी भाषा को छोड़कर तो वह न अपना हो सकता है न पराया। और जो न ठीक से अपना हो न ही ठीक से पराया हो तो फिर वह किसका होगा ?

बिँधे हुए पँख

ऐसा क्यों होता है कि हमारा एक गीत कमज़ोर हुआ करता है और दूसरा बहुत प्रभावशाली? उत्तर की मीमांसा करने का समय अभी यहाँ नहीं है पर एक बात साफ है कि कमज़ोर, अच्छा, स्तरीय, प्रभावशाली, दिव्य जैसा भी रच जाता है वह रचनाकार के द्वारा ही रचा जाता है। और जबकि यह सच है तो क्या हम यह निर्णय अभी नहीं ले सकते है कि हमारी साधना ऐसी हो कि दो-चार रचना ही लिखें पर उत्कृष्ठ लिखें। यह सच है कि सैकड़ों भोथरी रचना लिखने से कहीं अच्छा है एक-दो रचना ही इत्मीनान से लिखें। इसमें नाम भी आगे बढ़ता है। कविता की उपयोगिता भी सिद्ध होती है। सामान्य पाठकों में भी कविता को लेकर एक आतुरता विकसित होती है। मैं यह इसलिए कह रहा हूँ कि आपकी यह कविता तो स्तरीयता को लांघकर श्रेष्ठता की ओर बढ़ रही है। सब कुछ ठीक है यहाँ। पर कुछ शब्द अतिरिक्त चढ़ बैठे हुए लगते हैं । छंद का मीटर टूटने लगता है वहाँ। साधिए छंद को।

ज़िन्दगी बस, यूँ ही चलते चले जाने के सिवा क्या है

उर्दू शायरी का प्रभाव है पर प्रयास अच्छा है। रदीफ़-काफिया का निर्वाह भी एक अनुभवी ग़ज़लगो की तरह हुआ है। पर कहन में वक्रोत्ति कम है। पर यह वक्रोत्ति अपने आप नहीं आती। किताब पढ़ने पर भी नहीं आती। यह आती है अनुभव और अनुभूति से। सो उसे विस्तार दीजिए। संवेदना को तेज़ कीजिए। वैसे यह भी कई मामलों में नियत होता है। आप को पता ही होगा आमतौर पर ग़ज़ल में हर शे’र एक अलग प्रसंग पर होते हैं। उसे मन में बिठाये रखें, बस्स, भविष्य में उम्दा ग़ज़ल लिख सकेंगे।


मनीष वंदेमातरम्


अहमियत भूख की

हर शे’र में यहां छंद बदल रहा है। क्यों। क्या यह ग़ज़ल है? यदि इसे सामान्य कविता या गीत कहा जा रहा है तब भी एक अनुशासन तो होना ही चाहिए। पहले तय कीजिए कि किस विधा में अभिव्यक्ति चाह रहे हैं। तब फ़िर उसके तासीर के साथ लय स्थापित कीजिए। यूँ ही कुछ मत लीखिए। शब्दों को बउरना जानना होगा यदि आप कविता कर्म में निरंतर अपनी उपस्थिति चाहते हैं तो। यदि यह टाइम पास है तो मुझे और कुछ भी नहीं कहना आगे। क्योंकि कहन या कथ्य तो बहुत ही अच्छा है आपके पास। चाहे इसे आपका अनुभव भी कह सकते हैं । जैसे कि अंतिम दो पंक्तियों में।

रहेगा ही

आज की लगभग कविताओं को परखने पर लगता है कि आज का समय गद्य का है। पद्य का नहीं। कदाचित् यही वह कारण है जिससे काव्य या कविता भी गद्य में आत्मलीन होती चली जा रही है। गद्य और पद्य के बीच जो अंतर है वह धीरे-धीरे विकसित हो रहा है – कवि के यहाँ । फिलहाल इस कविता को देखने के बाद इतना को कहा ही जा सकता है। समकालीन कविता और छंदमुक्त कविता में गद्यात्मकता का इतना आग्रह है कि जैसे लगता है वही उसकी मूल प्रवृत्ति हो या कि शर्त ही। पर कई बार ऐसे में कवि की शुष्कता भी उजागर हो जाती है। इन्हीं पंक्तियों को आप यदि एक लकीर में लिख कर देखेंगे तो वह कथोपकथन या बातचीत जैसा मात्र ही दिखाई देगी। फ़िर भी यहाँ काव्य के कुछ बीज दिखाई देते हैं। यह मात्र ऐसी रचनाओं के लेखकों का ही नहीं बल्कि समय के अनुभव की भी चुनौती है जो लगातार गद्यात्मक रूप में अपना शक्ल धारण कर लेती है और इस तरह यह हज़ारों कवियों की या तो कमज़ोरी है या फ़िर यही आज की कविता का रूप है। और आगे ऐसी कविताएँ पाठकों को कितना लुभा पायेंगी इसे पाठक तो तय करेगा ही, कवियों को भी तय करना पड़ेगा। चिंतन करना पडेगा।

बुचईया!

कविता कथा भी है। कथा भी कई बार कविता बन जाती है। इस रचना को देखने के बाद हम यह कह ही सकते हैं। इस कविता के लिए खासकर विषय-वस्तु के लिए कवि आकर्षित करने लगता है। पाठकों को। कवियों को भी। आलोचकों को भी। जब ऐसे मुकाम कोई कवि पा जाये तो और क्या चाहिए उसके लिए। शब्द-शब्द में कविता है। लोक शब्दों को पिरोकर कविता में ग्राम्यगंध डालने का प्रयास भी अच्छा है। कवि की यह प्रगतिशीलता है। बुचईया का संत्रास, उसका इतिहास और भविष्य सब कुछ इस कविता में अनावृत हो उठा है। अच्छा प्रयास है।


तुषार जोशी, नागपुर

मिलने जाइए

आज की व्यक्तिवादी समय में मनुष्य इतना स्वार्थी हो चुका है कि वह मित्रता भी गणित के आधार पर करने लगा है। कविता मनुष्य के पतनशील चरित्र का बयान। संबंधो के लगातार औपचारिक होते जाने के विरूद्ध यह मन की पुकार है। वैसे इसी भाव की कविता हाल ही में कई कवियों ने कुछ खास लघुपत्रिकाओं में लिखी हैं। पर इस कविता का शिल्प और कथ्य उनसे हटकर है। इस कविता में मौलिक आस्वाद भी है। यह कविता अपनी अभिव्यक्ति के लिए सामान्य शब्दों को चुनता है पर वहाँ उसके अर्थ विशिष्ट हो उठते हैं। और यही है शब्दों का सही प्रयोग जिससे कोई सामान्य सा कथन या भाव भी कविता बन जाता है। इसे कविता प्रधान किसी अच्छी पत्रिका में भी छपने भेज सकते हैं।

आखरी मुलाकात

कविता सब कुछ देख लेती है। सब कुछ सुन लेती है। सब कुछ सूँघ लेती है। फ़िर भी कुछ ऐसे भाव हैं, ऐसे दृश्य हैं, ऐसे गंध है जिनसे वह बचती है या कवियों ने उन्हें कविता में आने से रोका है। अब तक की हिंदी कविता इसकी गवाही देती है। कविता निजी होकर भी सार्वजनिक हो जाती है। कविता मात्र स्वांतः सुखाय नहीं है। वह समाज की है। उसमें संस्कार की क्षमता है। सो मित्र कुछ भावों को हिंदी कविता में आने से रोकिए। यदि लाये बिना मन नहीं मान रहा है तो प्रतीकों या बिंबों का सहारा लीजिए। सीधे-सीधे मत कह दीजिए।
प्रेम शाश्वत है पर प्रेम का सारा वार्तालाप शाश्वत नहीं होता। सो क्या इन्हें पचाकर, इनकी अनुभूति को समाजोपयोगी बनाते हुए प्रस्तुत नहीं किया जा सकता है ताकि वह कम से कम मनोरंजन तो करे ही पाठकों का। मेरी बात शायद आप समझ गये होंगे। इसका मतलब यह नहीं कि ऐसी कविताएँ नहीं लिखी जानी चाहिए।

श्रेय

कविता में दव विन्दु सबके समझ में नहीं आयेगा। कुछ पाठक घबराकर भाग सकते हैं। सो ऐसे शब्दों के स्थान पर आम प्रयुक्त किन्तु सारगर्भित और वांछित शब्दों का चयन करें। कविता में कथ्य प्रभावकारी है।


आलोक शंकर


मैं तुम्हारा मृदु चितेरा

कविता मधुर है। भाव मधुर है। रम्यता है। शब्द, शिल्प, भाषा भी। किन्तु यह ट्रेंड समकालीन रचनाओं में लगभग गायब सा है। लगता है छायावाद के समय से गुजर रहे हैं या कोई खंडकाव्य या महाकाव्य पढ़ रहे है। युगपरक भाषा में यदि यह लिखा गया होता तो आज के शुष्क पाठकों को भी और अधिक आग्रह के साथ अपने पास बुलाता और जोड़े रखता। परन्तु छंद को साधने में कवि यहाँ सफल होता जान पड़ता है। तद्भव के शब्द आजकल गायब होते जा रहे हैं। कवि ने यहाँ नया शब्द गढ़ने का भी प्रयास किया है – नीर वर्षक। यह नितांत मौलिक शब्द है। कम से कम हिदीं कविता में यह नहीं दिखाई देता। पर देखते हैं भाषाशास्त्री इस शब्द को स्वीकार करते हैं या नहीं। और हाँ आम पाठक या लोग भी इसे दोहराते हैं या नहीं।


वरुण स्याल


मुहब्बत में तेरी . . .

कविता को छपने से पहले कुछ दिन डायरी में पड़ी रहने दीजिए। कुछ दिन बाद उसे मांजिए। फिर कहीं छपने भेजिए। इस पर ऐसा कहना मेरा किसी को निराश करना नहीं हैं। मित्रवत सलाह है। मानना न मानना मित्र का धर्म हो सकता है।


प्रमेन्द्र प्रताप सिंह


अंकनी

कविता में कुछ शाब्दिक और व्याकरणिक त्रुटियाँ है। इन्हें पहले दूर कर लीजिए। कविता का शिल्प अच्छा है।


गिरिराज जोशी


वो सिर्फ “माँ” है

हिंदी और उर्दू दोनों भारतीय तासीर की ही भाषा है जिन्हें मिलाकर हम हिंदुस्तानी भाषा भी कहते हैं। पर दोनों ऐसे मिल जाती हैं कि दोनों का रंग-रूप भिन्न-भिन्न नज़र नहीं आता। खेद है कि यहाँ इस कविता में दोनों पृथक अस्तित्व के साथ हैं। सो कवितायी आस्वाद भी खंडित हुआ है।


सैक्रेटरी

मंच की कविता कह सकते हैं इसे। पार्टी में अवश्य सुनाइये इसे। पर जब कभी हिंदी कविता संग्रह छपवायेंगे आप, मेरा आग्रह है कि इसे उसमें सम्मिलित नहीं करेगें। साधारण कविता आपकी अन्य कविताओं की ताकत को कमज़ोर कर सकती है। कुछ त्रुटियाँ हैं भाषा में। दूर कर लीजिए।


अजय यादव

तीन चार रोज़ हुए

यह भी मंच की कविता जैसी है। पर पिछली कविता से श्रेष्ठ है। यदि आपने तय कर लिया है कि आप अशोक चक्रधर बनना चाहते हैं तो मुझे शिकायत नहीं होगी। वे ज्यादा सुने जाते हैं। मंचो में बुलाये भी जाते हैं। पर कवि-सम्मेलन के बाद उनकी कविताओं का प्रभाव मन से ठीक उस तरह उड़ जाता है जैसे आग बूझ जाने पर कर्पूर की गंध।

अब हम से और अपने दिल को बहलाया नहीं जाता

शे’र क्रमांक में कथ्य या कहन स्पष्ट होकर नहीं खुल सका है। मीटर में ग़ज़ल को लाने की कोशिश कीजिए। अन्यथा यह कविता ही कहलायेगी जबकि इसे आप ग़ज़ल के फॉर्म में लिखे हैं। रदीफ़-काफ़िया भी सटीक है।

इंगितों के अर्थ

कविता और विचार दोनों जरूरी हैं परस्पर। कुछ लोग कविता में विचार की आवाजाही का निषेध करते हैं। कुछ विचार को ही कविता कहते हैं। जो भी हो। कविता में नयी बात कह कर कवि चौकाता भी है। लगता है वह एक ऊँचे अर्थ की ओर पाठकों को ले जा रहा है किन्तु अंत में जब वह लिख बैठता है कि - पर सदा भाषा बदन की सत्य ही होती तो यह भ्रम साबित होने लगता है। भारतीय दर्शन या साहित्य में देह को मन और आत्मा के ऊपर कभी नहीं रखा गया है। यह पश्चिमी दर्शन है। मुँह से यद्यपि भाषा या शब्द जरूर निःसृत होते हैं यानी कि देह से, बदन से तथापि उसे आत्मिक माना जाता है। यह भी सत्य है कि बदन यानी देह की भाषा होती है पर वह मांसल ज्यादा मानसिक कम होती है। वहाँ वह शब्द होकर भी वाणी नहीं हो पाती। सो वाणी रचिये देहगंध या देहशब्द नहीं। यहाँ रोमानी होने का संकट भी हो सकता है। इसका आशय यह कदापि नहीं कि कविता रोमानी कदापि नहीं हो सकती है। वह ज़रूर होती है, हो सकती है फ़िर भी वह वाणी के मूल संस्कारों से ऊपर नहीं हो सकती है जैसा कि कविता में ऐसा विचार उठाया गया है। मेरा दावा है यह आपकी उम्र बढने के साथ अस्थिर होता चला जायेगा और अंत में आप स्वयं को अतिक्रमित कर जायेंगे। फलतः यह सामयिक विचार है शाश्वत नहीं।


गौरव सोलंकी


विडम्बनाएँ

कविता अनावश्यक शब्दो से विस्तृत हो गई है। जरा संपादित करके देखें तो। आप स्वयं समझ जायेंगे कि आपने कितनी अच्छी कविता से पाठकों को वंचित कर रखा है हड़बड़ी में। कविता को साधना बनाइये। साधन नहीं कहीं बार-बार छपने का।

एक पागल दूजे से बोला

लोकवाणी या लोक शैली में अच्छा प्रयास है। नागार्जुन बाबा की धुंधली सी याद जगाती है यह कविता। विडम्बनाओं, विद्रपताओं की खिंचाई की गई है। कहीं-कहीं दार्शनिकता की ओर कदम बढ़ाता नज़र आता है कवि। छंद लगभग सधा हुआ है। शब्दस्फीति का संकट एकाध बार कविता को भोथरी कर सकता है। आगे इससे बचिएगा।

मेरा युग

कविता में नास्टेलजिया जरूरी है पर वह केवल अरण्यरोदन न लगे इसका ध्यान एक अच्छे कवि को रखना होता है। आदर्श भी युग के अनुरूप बदलते रहते हैं। परवर्तन शाश्वत है। फ़िर भी इस कविता में कहीं एक अंतर्लय है कि कहीं कोई उपदेश ज्यादा दे रहा है। कई बार कविता कृष्णपक्षीय मानव चरित्र को बखान कर चुप हो जाती है। ऐसी कविता में आदर्श की पहचान स्वयं पाठक कर लेता है कि कवि अंततः कहना क्या चाहता है। बावजूद इसके कविता में आत्ममूल्याँकन है। आत्मस्वीकृति है। और एक कविता जिसमे आत्मस्वीकृति हो बड़ी बात है। और यह बड़ी बात कविता में है।


विश्व दीपक 'तन्हा'


तेरे पग के नूपुर-

रम्य भाव की अच्छी कविता। छंद और तुक ठीक है।

ओ मेरे संशय

विषय मौलिक उठाया है कवि ने। अंत तक साध नहीं सका है। कारण अतिरिक्त विस्तार। छोटी कविता रचिए। भाव को छोटा करिए। धीरे-धीरे यह कौशल अपने आप विकसित होता चला जायेगा।


देवेश वशिष्ठ'खबरी'


शुरूआत

कविता और कवि के मध्य संवाद में यदि रचनाकार कुछ ही भावों को पकड़ लेता उसे रखता तो कदाचित् कविता मे आपादमस्तक एक आकर्षण बना रहता। एक जादू भी पढ़ने का। वह चाहता तो इस शृंखला में कई भावों को अलग-अलग लेकर भी कई कवितायें लिख सकता था। इसका मतलब है कि कवि या तो लंबी कविता में अपनी बात कहने की साधनारत है या फिर भाव की गंगा में वह अविरल बह रहा है । ये दोनों स्थितियाँ यूँ तो बूरी नहीं है पर शुरूआती दिनों में छोटी कविताएँ ज्यादा प्रभावशाली होती हैं। और इसमें किसी के कवि न होने का प्रश्न भी नहीं लगता। सो ऐसा करने में कोई बुराई नहीं है। वैसे कवि अपने साम्राज्य का खुद राजा होता है। वह ज़रूरत समझे तो बीरबल की सलाह मान सकता है। न समझे तो बीरबल को और भी कई काम है जग में करने के लिए।

अभी उम्मीद नजर आती है......

कविता में जो कहना चाहता है कवि। सफल है। बस जरा सी सावधानी शब्दों को काव्य बनाने की कला भर जान ले। इस कविता में दो यात्रायें है। एक कवि की दूसरा पाठकों की। दोनों यहाँ एकाकार हो जाते हैं यानी कि दोनों के बीच कोई बाधा नहीं खड़ी होती। यह है संवेदना की साम्यता। कविता की यानी कि कवि का कौशल।

बचेगा क्या......?

हर आक्रोश कविता नहीं होती। हर प्रसन्नता कविता नहीं होती। हर बात को कविता में यदि हम ले आये तो फिर दैनिक जीवन के लिए क्या बचा रहेगा। कुछ को गोपन कक्ष में रखिये कविता में उसे लाने से दैनिक जीवन का रस खत्म हो जायेगा। यह पश्चिम की कविता में बहुत हो चुका है। यदि यह सब हमारी कविताओं में आने लगेंगी तो एक दिन ऐसा आयेगा जब हमारी अगली पीढ़ी कविता के सभी सरोकारों में दैहिक प्रेम को ही अंतिम समझने लगेगी। जैसा कि वह मीडिया की अन्य विधाओं की जादू में आकर समझने भी लगा है और अपने जीवन में उतारने भी लगा है।

यूनिमीमांसक- जयप्रकाश मानस


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10 कविताप्रेमियों का कहना है :

Mohinder56 का कहना है कि -

नमस्कार मानस जी,

जिस प्रकार आप अपने कीमती समय में से समय निकाल कर हिन्द युगम की रचनाओं की यूनिमीमांसा कर रहे है वह अतयन्त प्रशन्सनीय है.
एक एक रचना को पढना और फ़िर उस की समीक्षा करना अपने आप में एक कठिन कार्य है. आप की दर्शायी हुई रूप रेखा पर कार्य करते हुये निश्चय ही रचनाओं के स्तर में सुधार हुआ है और आशा है कि आगे आने वाले समय में हिन्द युगम पर केवल उच्च स्तरीय रचनाओं का ही पदापर्ण होगा. हम आप के मार्गदर्शन हेतु आभारी हैं

विश्व दीपक का कहना है कि -

जयप्रकाश जी, यूनिमीमासा के लिए आपका सहृदय धन्यवाद। आपकी बातों पर अमल कर उम्मीद करता हूँ कि कुछ अच्छा लिखने लगूँगा। बस आप इसी तरह मार्गदर्शन करते रहें।

राजीव रंजन प्रसाद का कहना है कि -

आदरणीय मानस जी..

आपकी समीक्षा का इंतज़ार रहता है जिससे कि हम अपनी त्रुटियों का अवलोकन कर सकें और लेखन में सुधार हो। आपने जिन त्रुटियों की ओर मेरा ध्यानाकर्षण किया है उससे मैं पूर्णत: सहमत हूँ। कुछ शंकायें शेष हैं आशा है आप मार्गदर्शित करेंगे:

--थोडा नमक था....

आपनें लिखा है "पर यह कविता जरा मन के भीतर और पैठे इसके लिए इसे कविता की शर्तों में और कसे जाने की गुंजाइश शेष है।" कृपया कविता की उन शर्तों को स्प्ष्ट करें क्योंकि बात शून्य में छूट गयी है और आपके मंतव्य को नहीं समझ सका।

--तेरा चेहरा ही सौ गुना होगा

आपने लिखा है "कहीं-कहीं शब्द लगते हैं कि वे ज्यादा घिसे-पिटे हुए हैं और चमक नहीं दे पा रहे हैं।" कृपया उन घिसे-पिटे शब्दों पर प्रकाश डालें जिससे स्प्ष्ट हो कि किन शब्दों से परहेज आवश्यक है और क्यों?

--और झलक भर.....

मैंने इसे गीत के स्वरूप में नहीं लिखा है यद्यपि अत्यधिक तुकांत होनें के कारण यह भ्रम इस रचना में अवश्य होता है। इसलिये मुझे लगता है कि आप सत्य कह रहे हैं "गीत अपनी शर्तों के साथ यहाँ विकसित होता जान पड़ता है।कुछ अतिरिक्त शब्द प्रवेश कर गये हैं। इन्हें काटना-छांटना रह गया है।" आपकी राय अनुकरणीय है इसे मैं मुकम्मल गीत बनाने का यत्न करता हूँ।

--निर्लज्ज युवा हैं...

आपने कहा है कि "पाठक का तारत्मय एक सा कविता में नहीं बना रहता। यह कवि की कमज़ोरी है।" अपनी कमज़ोरी मुझे स्वीकार्य है और सुधार भी करना चाहता हूँ किंतु वे स्थल इंगित करें जहाँ तारतम्य टूटता प्रतीत होता है जिससे आपकी अपेक्षा पर सुधार खरा उतर सके।

मानस जी, आपके मार्गदर्शन की हमें आवश्यकता है। कृपया हमारी बारीक कमियों को उजागर करने में न चूकें जिससे सुधार की दिशा ज्ञात हो। आभार।

*** राजीव रंजन प्रसाद

SahityaShilpi का कहना है कि -

आदरणीय मानस जी, आपकी मीमांसा का इन्तजार रहता है हम सभी को। आप अपने कीमती समय में से जो कुछ समय हमें देकर, हमारा उत्साह बढ़ाते हैं, मार्गदर्शन करते हैं, इसके लिये हम आपके आभारी हैं। इस बार भी आपने जो सुझाव दिये, मैं उनका पालन करने का प्रयास करूँगा।
आपने 'इंगितों के अर्थ' के संदर्भ में जो बात कही, उसे मैं अपनी संप्रेषणीयता की कमी ही मानूँगा। मैं दरअसल देहगंध की नहीं, अपितु आत्मिक व मानसिक भाषा की ही बात कर रहा था। परंतु आत्मिक अनुभूतियों को प्रकट करने के लिये शरीर की आवश्यकता पड़ती ही है। अपनी बात को स्पष्टतः कहने का, मैं भविष्य में ध्यान रखूँगा।
एक बार फिर से धन्यवाद।

Pramendra Pratap Singh का कहना है कि -

आपकी मीमांसा हमारे लिये प्रेरणा प्रद है ।
धन्‍यवाद

Anonymous का कहना है कि -

आदरणीय मानसजी,

अपना अमूल्य समय निकालकर रचनाओं की मीमांसा करने के लिये धन्यवाद।

निश्चय ही सैक्रेटरी स्तरीय कविता नहीं है, मैं इसे कदापि इसे कदापि अपने कविता संग्रह में शामिल नहीं करूँगा। यह बस कुछ पाठकों की मांग पर स्वाद को बदलने का प्रयास भर था।

पुनश्च धन्यवाद!

शैलेश भारतवासी का कहना है कि -

आदरणीय मानस जी,

यह सच में अंतरजालीय हिन्दी के लिए सौभाग्य की बात है जिसे आपके जैसा हिन्दी-सेवक मिला है। आप हम हिन्द-युग्म के कवियों को भी समय दे रहे हैं। यह हमारी खुशनसीबी है।

आपने लिखा था कि आपको लगता है कि कवि लोग आपकी बातों पर अमल नहीं कर रहे हैं। मगर मुझे लगता है कि कर रहे हैं, हो सकता है सभी न करते हों, मगर कुछ तो ज़रूर कर रहे हैं। आप अपना काम मन से कीजिए, बाकी इन्हें इनके हाल पर छोड़ दीजिए।

आपकी शुरूआती कविताओं पर लम्बी प्रतिक्रिया और अंतिम कविताओं पर थकी प्रतिक्रियाएँ देखकर यह अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि आप ऊब भी जाते हैं। आगे से मैं निवेदन करूँगा कि सभी कवि को अलग-अलग समय दें।

जयप्रकाश मानस का कहना है कि -

सबके लिए कैंची मेरे हाथ में और मेरे लिए कैंची खुद शैलेष पकड़ा बैठा है । आप लोग डरे चाहें ना डरें मैं तो अपने समीक्षक (शैलेष भारतीय)से बहुत घबराता हूँ.....

पंकज का कहना है कि -

सबसे पहले तो मैं मानस जी को बधाई देना चाहूँगा कि उन्होंने यूनीमीमांसा को बेहतरीन तरीके से पेश किया।
इसके पीछे आप की मेहनत और संकल्प साफ झलकता है। इतनी सारी रचनाओं को पढ़ना, उनके अर्थों को आत्मसात करना और फिर उनको अपनी कसौटी पर कसना। काफी मुश्किल काम होता है और समय लेने वाला भी।
शायद यही कारण है कि कहीं-२ आप थोड़े थके से लगे,लेकिन बात समझ में आने वाली है।
मुझे यह अंक सबसे अच्छा इसलिये लगा क्योंकि इस अंक में मानस जी अधिक बेबाक लगे। साथ ही साथ नये रचनाकारों के लिये बहुत सारे टिप्स भी मौजूद हैं इस अंक में। मैं तो अपनी अगली रचना से ही उनको आजमाने वाला हूँ।
और अब मैं आता हूँ अपनी मीमांसा पर---
१- मेरी बीवी कैसी हो?---
मानस जी, आप यह बात सोलहों आने सही है कि आधा इंडिया है और आधा भारत लेकिन मैं आप की इस बात से सहमत नहीं हो पा रहा हूँ कि अगर जन्म-दात्री को माँ के बजाय मम्मी कह दिया तो संस्कार में कोई अन्तर आ जाता है; या फिर माँओं में मम्मियों से ज्यादा ममता होती है या फिर इसका उल्टा।
आजतक मेरी तो यही मान्यता रही है कि आप उस महान,पावन और त्याग की मूर्ति जन्म-दात्री को चाहे 'माँ' कहें या 'माई', 'मइया' कहें या 'अम्मा','मम्मी' पुकारें या 'अम्मी' या फिर कुछ और मूल भावना तो समान ही होती है।
हाँ, अगर आप का ऐतराज़ मम्मी शब्द से है तो वह भी मुझे उचित नहीं लगता क्योंकि जब हम अन्य भाषाओं के तमाम शब्दों का प्रयोग हिन्दी में कर ही रहे हैं तो इसी शब्द से नाराज़गी क्यों?
२-दोषी दिल बेरहम है---
दरअसल,इसमें दोनों शब्द फरक हैं; एक है-"हैं" और दूसरा है-"है"।
३-हैं कुछ खाते पुराने भी--
आप ने बिल्कुल सही पकड़ा है मुझे। वास्तव में, मैं "उड़ाना है" ही लिखना चाह रहा था, लेकिन मेरी गलती थी। शायद ये मेरे पार्ट-टाइम लेखक होने का नतीज़ा है। हड़बढी मे बड़बडी।
और अन्त में बस इतना ही कहना चाहूँगा कि अगली बार आप को असर ज़रूर दिखाई देगा-धन्यवाद।

रंजू भाटिया का कहना है कि -

नमस्कार मानस जी,आपकी बताई हुई बाते बहुत ही अनमोल लगी ..अब लिखते वक़्त इन सब बातो का ध्यान ज़रूर रहेगा ...शुक्रिया अपने इतना वक़्त दे कर इनको इतने ध्यान से पढ़ा ..

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