सीमा -१
तुमने सीमा बना ली है
मैंने तोड़ दी है सीमायें
तुम गमों में कैद हो
मैं गमों के लिये आज़ाद हूँ..
सीमा -२
सीमाओं के पार
प्यार का पंछी उड़ता जाये रे
नदियों का पानी अंबर को
देख-देख इठलाये रे
मेरे मन में क्या बैठा है
ये तेरी आँखों जैसा
टीस-टीस दिल चीर गया है
जैसे दीमक खाये रे..
सीमा -३
ये मेरा दिल था
और तुम्हारे साथ मुहब्बत का धरातल
सरसों का खेत हो गया था
बीचों-बीच ये कैसी सीमा
मेरा कलेजा काट कर सरहद बना दिया है..
सीमा -४
मेरे गम की भी एक सीमा है
बहुत शाम तक खामोश रहता हूँ
रो लेता हूँ कभी-कभी
मन हलका नहीं होता लेकिन
हथेली पर सिर पटक लेता हूँ
और चुप्पी की आखों में आँखें डाल
तुम्हें नहीं सोचने की पूरी कोशिश करता हूँ
और जब टूट जाता हूं
बहुत खीज कर मुस्कुराता हूं...और मुस्कुराता हूं
मेरे गम की भी एक सीमा है
सीमा -५
एक बार देस में पंछी के
दो चार चिरैये लड़ बैठे
फिर आसमान में सीमायें बन गयीं अनेकों
कैसे सूरज बँटता लेकिन
किसके हिस्से चांद सिमटता
और हवाओं का क्या होता
बैठ चिरैये सोच रहे थे
तुम भी सोचो सीमा में क्या बंध जायेगा सब कुछ...
सीमा -६
तुमने कहा अब सीमा नहीं
तुम कुछ भी नहीं मेरे
अलविदा मेरी ज़ुल्फों के अंधेरे से
पलकों के सवेरे से
अलविदा मेरे सबकुछ..अलविदा
मुझे लगा खंडहर की दीवार की तरह
एकाएक ढह गया मैं
पर सोचता हूँ तुमने सीमाहीन किया ही नहीं था
आंखों को आसमान तक
बाँहों को कलेजे तक
और स्वयं को यादों के कटीले तार से घिरा पाया
जब महसूस हुआ
कुछ कुछ संभल रहा हूँ...
सीमा -७
तुम थे तो सपनों के पास सीमा नहीं थी
तुम नहीं हो
तो सपनों की सीमा तुम हो..
सीमा -८
आओ उदासियों
मेरे गिर्द अपने हाथ थाम
एक गोल घेरा बना लो
मुझे सीमा चाहिये है
पिंजरे का तोता उड़ान का सपना भूल चुका
सीमा -९
सीमा जब टूटेगी
तो क्या जीने की फिर भी सूरत होगी?
बाँध टूटते हैं तो विप्लव आते हैं..
*** राजीव रंजन प्रसाद
३०.१२.१९९५
तुमने सीमा बना ली है
मैंने तोड़ दी है सीमायें
तुम गमों में कैद हो
मैं गमों के लिये आज़ाद हूँ..
सीमा -२
सीमाओं के पार
प्यार का पंछी उड़ता जाये रे
नदियों का पानी अंबर को
देख-देख इठलाये रे
मेरे मन में क्या बैठा है
ये तेरी आँखों जैसा
टीस-टीस दिल चीर गया है
जैसे दीमक खाये रे..
सीमा -३
ये मेरा दिल था
और तुम्हारे साथ मुहब्बत का धरातल
सरसों का खेत हो गया था
बीचों-बीच ये कैसी सीमा
मेरा कलेजा काट कर सरहद बना दिया है..
सीमा -४
मेरे गम की भी एक सीमा है
बहुत शाम तक खामोश रहता हूँ
रो लेता हूँ कभी-कभी
मन हलका नहीं होता लेकिन
हथेली पर सिर पटक लेता हूँ
और चुप्पी की आखों में आँखें डाल
तुम्हें नहीं सोचने की पूरी कोशिश करता हूँ
और जब टूट जाता हूं
बहुत खीज कर मुस्कुराता हूं...और मुस्कुराता हूं
मेरे गम की भी एक सीमा है
सीमा -५
एक बार देस में पंछी के
दो चार चिरैये लड़ बैठे
फिर आसमान में सीमायें बन गयीं अनेकों
कैसे सूरज बँटता लेकिन
किसके हिस्से चांद सिमटता
और हवाओं का क्या होता
बैठ चिरैये सोच रहे थे
तुम भी सोचो सीमा में क्या बंध जायेगा सब कुछ...
सीमा -६
तुमने कहा अब सीमा नहीं
तुम कुछ भी नहीं मेरे
अलविदा मेरी ज़ुल्फों के अंधेरे से
पलकों के सवेरे से
अलविदा मेरे सबकुछ..अलविदा
मुझे लगा खंडहर की दीवार की तरह
एकाएक ढह गया मैं
पर सोचता हूँ तुमने सीमाहीन किया ही नहीं था
आंखों को आसमान तक
बाँहों को कलेजे तक
और स्वयं को यादों के कटीले तार से घिरा पाया
जब महसूस हुआ
कुछ कुछ संभल रहा हूँ...
सीमा -७
तुम थे तो सपनों के पास सीमा नहीं थी
तुम नहीं हो
तो सपनों की सीमा तुम हो..
सीमा -८
आओ उदासियों
मेरे गिर्द अपने हाथ थाम
एक गोल घेरा बना लो
मुझे सीमा चाहिये है
पिंजरे का तोता उड़ान का सपना भूल चुका
सीमा -९
सीमा जब टूटेगी
तो क्या जीने की फिर भी सूरत होगी?
बाँध टूटते हैं तो विप्लव आते हैं..
*** राजीव रंजन प्रसाद
३०.१२.१९९५
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21 कविताप्रेमियों का कहना है :
यह तीन पंक्तियों की कविता अच्छी लगी :-
तुम थे तो सपनों के पास सीमा नहीं थी
तुम नहीं हो
तो सपनों की सीमा तुम हो..
रिपुदमन
राजीव जी ,
आप ने विचारों की सीमाओं के पार जा कर जो सीमाओं की परिकल्पना की है वह प्रशन्सनीय है
तुम थे तो सपनों के पास सीमा नहीं थी
तुम नहीं हो
तो सपनों की सीमा तुम हो..
behtareen panktiyan..bahut khoob
सुंदर क्षणिकाएं। विशेषकर यह पँक्तियाँ बहुत पसंद आयीं-
ये मेरा दिल था
और तुम्हारे साथ मुहब्बत का धरातल
सरसों का खेत हो गया था
बीचों-बीच ये कैसी सीमा
मेरा कलेजा काट कर सरहद बना दिया है..
एक बार देस में पंछी के
दो चार चिरैये लड़ बैठे
फिर आसमान में सीमायें बन गयीं अनेकों
कैसे सूरज बँटता लेकिन
किसके हिस्से चांद सिमटता
और हवाओं का क्या होता
बैठ चिरैये सोच रहे थे
तुम भी सोचो सीमा में क्या बंध जायेगा सब कुछ...
भाव-प्रवाह प्रशंसनीय है।
प्रशंसनीय
राजीवजी,
आपकी क्षणिकाएँ प्रमाण दे रही है कि कवि सीमाओं में नहीं बंधता। सभी क्षणिकाएँ एक से बढ़कर एक है, मुझे "सीमा -७" सर्वाधिक पसंद आई...
बधाई स्वीकार करें।
भाई बहुत अच्छी है आपकी सोंच जिसका मैं सदा अदर करता हूँ क्योंकि चिंतन तो शाश्वत न होकर आज की जबरदस्ती हो गई है…यानी जरुरत पर यहाँ आकर अच्छा लगत है…
एक सीमा तो व्यक्ति स्वय ही है और इसके पार तो परदे रखे हैं।
धन्यवाद!!!
क्षणिकाओं में वहीं खूबसूरती होती है जो लगभग लघु कथाओं में होती है। जिस प्रकार लघुकथा लिखना बहुत मुश्किल है, उसी प्रकार कवि के लिए क्षणिकाएँ। मगर राजीव जी, आपने 'सीमा' नामक विषयवस्तु पर सफलतम क्षणिकाकार की तरह क्षणिकाएँ लिखी हैं।
कितनी पीड़ा है इन पंक्तियों में!
ये मेरा दिल था
और तुम्हारे साथ मुहब्बत का धरातल
सरसों का खेत हो गया था
बीचों-बीच ये कैसी सीमा
मेरा कलेजा काट कर सरहद बना दिया है..
बिलकुल सटीक लिखा है आपने दुनिया में हर बात की सीमा है फ़िर आपका ग़म इससे अलग कैसे हो सकता है।
सच में मैं भी सोचने लगा हूँ 'सीमा में क्या बंध जायेगा सब कुछ'
इससे सुंदर और अधिक सत्य और कोई क्या लिखेगा!
तुम थे तो सपनों के पास सीमा नहीं थी
तुम नहीं हो
तो सपनों की सीमा तुम हो..
i like ur poetry, that is too good especially ..........part 4, 6, 7 & 9........
kuch mere jeevan ke jaisa hai yeh........
mere hi man mai chhipa mere man ka darpan hai yeh.....
क्या कहूँ , मुझे आपकी सारी सीमाएँ पसंद आईं। मैंने तो इन्हें कल हीं पढ लिया था। लेकिन क्या लिखूँ, यह सम्झ ना पाया , इसलिए बाकी लोगों की टिप्पणियों का इंतजार कर रहा था।
मुझे विशेषकर आपकी ७वीं एवं ९वीं नें ज्यादा मुग्ध किया।
बधाई स्वीकारें।
बहुत सुंदर लगी सभी क्षणिकायें...
मै क्या कहूं...लेट जो हो गई हूँ मेरे सभी शब्द सभी ने चुरा लिये है...
ये मेरा दिल था
और तुम्हारे साथ मुहब्बत का धरातल
सरसों का खेत हो गया था
बीचों-बीच ये कैसी सीमा
मेरा कलेजा काट कर सरहद बना दिया है..
सबसे खूबसूरत लगी...
तुम थे तो सपनों के पास सीमा नहीं थी
तुम नहीं हो
तो सपनों की सीमा तुम हो..
ये भी कुछ कम नही जनाब...:)
सीमा जब टूटेगी
तो क्या जीने की फिर भी सूरत होगी?
बाँध टूटते हैं तो विप्लव आते हैं..
बहुत-बहुत शुक्रिया..
सुनीता(शानू)
बहुत सुंदर लगी सभी क्षणिकायें...
मै क्या कहूं...लेट जो हो गई हूँ मेरे सभी शब्द सभी ने चुरा लिये है...
ये मेरा दिल था
और तुम्हारे साथ मुहब्बत का धरातल
सरसों का खेत हो गया था
बीचों-बीच ये कैसी सीमा
मेरा कलेजा काट कर सरहद बना दिया है..
सबसे खूबसूरत लगी...
तुम थे तो सपनों के पास सीमा नहीं थी
तुम नहीं हो
तो सपनों की सीमा तुम हो..
ये भी कुछ कम नही जनाब...:)
सीमा जब टूटेगी
तो क्या जीने की फिर भी सूरत होगी?
बाँध टूटते हैं तो विप्लव आते हैं..
बहुत-बहुत शुक्रिया..
सुनीता(शानू)
राजीव भैया, आप तो युग्म पर याद ही नयेपन के लिये किये जाते हैं, पर इस बार मुझे दिल के ज्यादा करीब लगे हो। सामयिक विषयों पर के साथ साथ ईंसानी फितरत पर लिखना भी कोई आपसे सीखे।
आब यह क्षणिका देखें, आपकी कविता पर पूरी तरह फिट है-
तुमने सीमा बना ली है
मैंने तोड़ दी है सीमायें
तुम गमों में कैद हो
मैं गमों के लिये आज़ाद हूँ..
---------------------------
दूसरी क्षणिका ने तो टीस से दिल भर दिया,
आप जिस भाव में लिखते हैं उसमें अंतिम सीमातक रस भर देते हैं, चाहे निठारी की घृणा हो, या राजस्थान की व्याकुलता या इस कविता का दर्द-
मेरे मन में क्या बैठा है
ये तेरी आँखों जैसा
टीस-टीस दिल चीर गया है
जैसे दीमक खाये रे..
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'मेरा कलेजा काट कर सरहद बना दिया है..'
इसी सरहद से मैं भी परेशान था। इंडिया हैबिटेट सेंटर में हुए सम्मेलन में भी यही बात मैंने अपनी कविता में कही थी।
'ऐ मेरे मालिक मुझे तू ऐसी रबर दे दे, इस पन्ने पर उकरी कुछ तिरछी रेखाऔं को हटा सकूँ।
आपने और अच्छे से वह बात कह दी।
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मेरे गम की भी एक सीमा है
बहुत शाम तक खामोश रहता हूँ
रो लेता हूँ कभी-कभी
मन हलका नहीं होता लेकिन-
सच में मैं आपसे कविता सीखता हूँ,
इसी घुटन को मेंने लिख था कि-
"चिल्लाता हूँ मैं पागल बन गूँज वहीं रह जाती है, खिजलाता हूँ खीज स्वयं को बन नासूर सताती है।"
-----------------------------------
सारी क्षणिकाऐं अच्छी हैं पर उदासियों को आपका निमंत्रण विशेष पसंद आया।
"आओ उदासियों
मेरे गिर्द अपने हाथ थाम
एक गोल घेरा बना लो
मुझे सीमा चाहिये है
पिंजरे का तोता उड़ान का सपना भूल चुका"
बहुत सी बधाइयाँ।
"खबरी'
9811852336
-
सीमाएं अंतहीन सौन्दर्य लिए हुए हैं और राजीव जी, सच कहूं, मेरा भी मन किया कि मैं क्षणिकाएं लिखूं और जब कोई कवि प्रेरणा देने लगे तो वह चरम पर होता है। सबसे पहले आपको इसके लिए शुभकामनाएं।
सीमा-1-
दर्द को खुला आमंत्रण
सीमा-2-
लगा कि जैसे गीत है पर जल्दी खत्म हो गया।'दीमक खाए रे' बहुत अनुपम प्रयोग है।
सीमा-3-
मैं जब पढ़ रहा हूं तो कवि का हृदय ज्यों का त्यों देख पा रहा हूं, जिस पर सरहदें खींच दी गई हैं।
सीमा-4-
खीझ और हताशा का प्रतिबिम्ब
सीमा-5-
लगा कि सीमा-3 का दर्द उन पंक्तियों में नहीं समाया और फिर उभर आया है।
सीमा-6-
अब तक आप सीमाओं की आदत डाल चुके हैं पर समझौता करना तो शायद आपकी तबियत का हिसा नहीं है...!
सीमा-7-
तुम थे तो सपनों के पास सीमा नहीं थी
तुम नहीं हो
तो सपनों की सीमा तुम हो..
अतुलनीय
सीमा-8-
सीमा-6 का दर्द फिर से उफन कर आया है।
सीमा-9-
बाँध टूटते हैं तो विप्लव आते हैं..
आप अकल्पनीय, अतुलनीय और अनुपम लिखते हैं, राजीव जी।
Rajeevji deri ho gai is bar...waise maine teen to tuesday ko hi padh li thi aur baaki kal padhi hain...magar comment aaj kar paa rahi hu....aapki parikalpanayon ki koi seema nahi hai......na hi hamaari aapse apekshaaon ki...jab bhi lagta hai aapki rachna padhkar ki isse aacha aur kuch nahi ho sakta aap aur ek zabardast kavitaa ke saaath aa jaate ho.:)
i'll simply say..superb
प्रिय राजीव जी,
विलम्ब से टिप्पणी के लिये क्षमा चाह्ता हूँ
लेकिन गलती आपकी है :-)...
आपकी एक कविता ही,चाहे वो क्षणिका ही क्यों न हो,मुझे पूरे दिन मथती रहती है...और आपने ९ पढा दीं एक साथ :-)
क्या कहूँ??? सभी क्षणिकायें अनुपम हैं
दो पंक्तियों मे इतनी सारी बातें?
खुद से कितनी सहजता से बात कर लेते हैं आप?
"तुम गमों में कैद हो
मैं गमों के लिये आज़ाद हूँ.."
"टीस-टीस दिल चीर गया है
जैसे दीमक खाये रे.."
"मुहब्बत का धरातल
सरसों का खेत हो गया था"...वाह
"मेरे गम की भी एक सीमा है"
"सीमा में क्या बंध जायेगा सब कुछ..." प्रश्न तो बहुत गंभीर कर दिया आपने!!
"अलविदा मेरे सबकुछ..अलविदा"
"स्वयं को यादों के कटीले तार से घिरा पाया
जब महसूस हुआ
कुछ कुछ संभल रहा हूँ..."
"तुम थे तो सपनों के पास सीमा नहीं थी
तुम नहीं हो
तो सपनों की सीमा तुम हो.."....अद्भुत
"पिंजरे का तोता उड़ान का सपना भूल चुका"
"बाँध टूटते हैं तो विप्लव आते हैं..".....सच बात है
बहुत सुन्दर
आभार सहित धन्यवाद
सस्नेह
गौरव शुक्ल
मुझे सारी सीमाएँ पसंद आईं।
विशेषकर-
एक बार देस में पंछी के
दो चार चिरैये लड़ बैठे
फिर आसमान में सीमायें बन गयीं अनेकों
कैसे सूरज बँटता लेकिन
किसके हिस्से चांद सिमटता
और हवाओं का क्या होता
बैठ चिरैये सोच रहे थे
तुम भी सोचो सीमा में क्या बंध जायेगा सब कुछ...
अच्छी लगी!!
बधाई!!!!
सीमा की क्या आवश्यकता है उडॊ नील गगन में पंख पसार.. हां, क्षणिकाएं बहुत सुन्दर हैं|
राजीव जी आपकी रचना बहुत कुछ नया सीख जाती है ....
मेरे मन में क्या बैठा है
ये तेरी आँखों जैसा
टीस-टीस दिल चीर गया है
सुंदर ...
मेरे गम की भी एक सीमा है
बहुत शाम तक खामोश रहता हूँ
रो लेता हूँ कभी-कभी
मन हलका नहीं होता लेकिन
हथेली पर सिर पटक लेता हूँ
एक सच है यह ज़िंदगी का ....
सीमा जब टूटेगी
तो क्या जीने की फिर भी सूरत होगी?
बाँध टूटते हैं तो विप्लव आते हैं..
बहुत बहुत सुंदर ....जितनी तरीफ की जाये कम है
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)