देख माँ, 'बिगडा़' नहीं हूँ,
तू बेकार डरती थी।
कहीं 'पछहुआ' ना मार दे तेरे सलौने को।
रोज होती हैं शराबी महफिलें यहाँ।
जाता हूँ...पर पीता नहीं हूँ।
पी नहीं पाता, तुझे याद कर।
माँ, आज तक शाकाहारी हूँ, तेरी तरह।
पैसे भी नहीं उड़ाता लडकियों पर, शान में...,
वो कुछ नहीं करता जो सब दोस्त करते हैं।
हमेशा आगे रहता हूँ रहता हूँ क्लास में..।
अब तो कमाने भी लगा हूँ।
खूब पढता हूँ,
रोज सुबह दौडने जाता हूँ।
पर सवेरे बडी तलब लगती है लस्सी की,
किसी को सिगरेट फूँकते देखकर।
तेरे पराठे याद आ जाते हैं
जब दोस्त खाते हैं 'पित्जा'।
दूर हूँ अब तक कोट-कचहरीओं से,
बेनाम हूँ पुलिसिया फाइलों में,
किसी से मारपीट भी नहीं हुई कभी।
नोंक-झोंक हो जाती है दोस्तों से,
तो तू याद आ जाती है।
फिर करा देती है सुलह तू ही जैसे,
पुचकारकर।
माँ मजबूरी है मेरी,
साथ रहना पडता है उनके जो रोज देते हैं लालच
'पछहुआ' का।
रोज जाना पढता है उनके पास,
जो हर दिन जनादेश लाते हैं और हर रात....।
मैं हँसता हूँ उन्हीं के साथ।
माँ मेरा यकीन कर,
मिलता जरूर हूँ पर घुला नहीं कभी।
माँ,
मैने तेरी सारी बातें मान लीं।
कभी तुझसे कुछ नहीं छिपाया,
सिवाय एक बात के.........
'वो' बड़ी प्यारी है.......।
तेरा बहुत खयाल रखेगी......।
देवेश वशिष्ठ 'खबरी'
9811852336
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14 कविताप्रेमियों का कहना है :
wah ,kya baat hai bade bhai
aapne to kamal kar diya
कविता कहाँ से शुरू होकर कहाँ खत्म होती है, जैसे सस्पेंसम धारावाहिकें अंत होती हैं। कवि माँ की चिंता कर रहा है या अपनी भावनाओं की , कुछ समझ में नहीं आता है।
आपको टंकण की शुद्धता का ध्यान रखना चाहिए। टाइप करने के बाद प्रूफ़-रीडिंग ज़रूर करें। यदि किसी शब्द की स्पैलिंग पर संशय हो तो शब्दकोश का सहारा लें।
बिगडा़'- बिगड़ा
'पित्जा'- पित्सा (यह इटालवी शब्द है, जब इटालवी शब्द में दो z आएँ तो उनका उच्चारण 'त्स' होता है, उदाहरण हेतु Paparazzi (पापारात्सी न कि 'पापारात्ज़ी') , वैसे भारत में Pizza का उच्चारण पिज़्ज़ा की तरह होता है जबकि इसका शुद्ध उच्चारण 'पित्सा' है)
कोट-कचहरीओ- कोट-कचहरियों (जब किसी इकारांत संज्ञा का बहुबचन बनाया जाता है तो हम इयों या इयाँ प्रत्यय जोड़कर बनाते हैं, जैसे लडकी- लड़कियों, लड़कियाँ, रोटी- रोटियों, रोटियाँ इत्यादि)
पडता- पड़ता
रोज जाना पढता है उनके पास- रोज़ जाना पड़ता है उनके पास।
सुन्दर लिखा है देवेश भाई,
मां के प्रति और अपने प्रति एक निष्ठावान पुत्र के मनोभाव समाहित है आप की रचना में.
शैलेश जी के दिये हुए टिप्स का ध्यान रखें निश्च्य ही लाभ होता जैसे मुझे हुआ है
देवेश जी, रचना बहुत हीं सुंदर बनी है। माँ के प्रति निष्ठा एवं प्रेम झलकता है। कविता का अंत ऐसा करोगे, मैंने सोचा न था। वैसे अंत भी अच्छा है। लेकिन रास्ते से थोड़ा हटकर है। आप हीं इस विषय पर सोचें।
देवेश जी.
बहुत ही कलात्मकता प्रदान की है आपने इस रचना में ईस प्रकार का मोड प्रदान कर। रचना एक क्लाईमेक्स पर खतम होती है जो पाठक को मुस्कुराने पर मजबूर करती है, स्पंदित भी करती है।
"मैने तेरी सारी बातें मान लीं।
कभी तुझसे कुछ नहीं छिपाया,
सिवाय एक बात के.........
'वो' बड़ी प्यारी है.......।
तेरा बहुत खयाल रखेगी......।"
(वैसे शैलेष जी नें कुछ गंभीर सुझाव दिये हैं जो आपके लिये अनुकरणीय हैं)
*** राजीव रंजन प्रसाद
देवेश बहुत अच्छा लिखते हो, आज तुमने जो लिखा है वहे होता है जब बेटा माँ से दूर जाता है तब माँ ढेर सारी दुआएं देती है और बुराई से दूर रहने की कसम भी दिलाती है..तुमने बिलकुल वही चित्र दिखाया है,एक आज्ञाकारी बेटा जो गलत लोगो की संगत मे भी बिलकुल नही बिगड़ा है...
मगर आखिर में क्या लिखा अब तो मुझे लगता है तुम माँ से जरूर पिट जाओगे...:)
सुनीता(शानू)
अच्छा लिखा है, देवेश भाई। अंत में पाठकों को चौंकाने में भी आप कामयाब रहे हैं।
देवेश भैया बहुत अच्छा लिखा है,
अक्षय
देवेशजी,
बताया क्यों नहीं, बता दीजिये :)
सुन्दर रचना है, शैलेशजी की क्लास लग गई, सुधारते रहो, मुझे भी बहुत फायदा हुआ है, खुलकर गलतियाँ निकालने वाले बहुत कम मिलेंगे।
:)देख माँ, 'बिगडा़' नहीं हूँ,...
सच क्या:)
कुछ हट के अच्छी लगी मुझे यह रचना...बाकी सबने बहुत कुछ कह दिया है ...:)
achchi kavita hai
aakhri lines bahut he dil ko chhu lene vali hain
bahut achi lagi aapki kavita bina kuch kahe bhi aapne us ldaki ke bare me apni maa se sab kuch kah diya.
I1989
नमस्कार देवेश भैया ,...बहुत ही सुंदर और ममस्पर्शी कविता है .....जिसमे हमे दूर परदेश में रहने वाले बच्चे के मन में अपनी माँ के प्रति प्यार तथा समझदारी की झलक दिखाई देती है ......
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