वीणा के तार से गीत बजें
मैं गा लूँ जग की पीड़ा माँ
मेरे आँसू, मेरी आहें,
मेरे अपने हैं रहने दो
पलकों के गुल पर ठहर
कभी बहते हैं, बहने दो
सुख की थाती का क्या करना
करने दो दुख को क्रीड़ा माँ
वीणा के तार से गीत बजे
मैं गा लूं जग की पीडा माँ
देखो बिखरी है भूख वहाँ,
परती हैं खेत बारूद भरे
हर लाश है मेरी, कत्ल हुई
मेरे ही नयना झरे झरे
पीड़ा पीड़ा की क्रीड़ा है
हर लूँ, मुझको दो बीड़ा माँ
वीणा के तार से गीत बजे
मैं गा लूं जग की पीड़ा माँ
(विद्यालय काल के एक मित्र के अनुरोध पर यह रचना युग्म के पाठको के सम्मुख रख रहा हूँ। रचना लगभग 17 वर्ष पुरानी है, तथापि अपेक्षा है पाठक निराश नहीं होंगे)
*** राजीव रंजन प्रसाद
30.12.1990
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15 कविताप्रेमियों का कहना है :
मेरे आँसू, मेरी आहें,
मेरे अपने हैं रहने दो
पलकों के गुल पर ठहर
कभी बहते हैं, बहने दो
सुंदर भाव मुखरित हुए हैं ...दिल को छूती है रचना
अनुपम
बहुत सुन्दर
हर लाश है मेरी, कत्ल हुई
मेरे ही नयना झरे झरे
पीड़ा पीड़ा की क्रीड़ा है
मैं गा लूं जग की पीड़ा माँ
अद्भुत...माँ शारदा का आशीर्वाद आप पर बना रहे ऐसी मेरी विनती है उनसे
सस्नेह
गौरव शुक्ल
राजीव, १७ साल से ही इतनी बडी संवेदना को समेटे जा रहे हो ! सचमुच तुम्हारे गीत दिल को छू लेते है ! हम टिप्पणी करे या ना करे मेरे भाई हम छत्तीसगढिया तुम्हे दिल मे बसाये रहते है !
रंजन जी,
१७ वर्ष पूर्व आप इतना गहरी सोच रखते थे, जानकर आपको नमन करने की इच्छा हुई ।
"मेरे आँसू, मेरी आहें, मेरे अपने हैं रहने दो
पलकों के गुल पर ठहर कभी बहते हैं, बहने दो"
बहुत ही अच्छी पंक्तियां है ।
रचना दिल को छू गई ।
"परती है खेत बारुद भरे॰॰॰" में "परती" शब्द नही समझ पाया ।
आपको ह्रदय की अनन्त गहराईयों से नमन॰॰॰॰
आर्यमनु ।
राजीव जी,
मुझे तिवारी जी की टिप्पणी से इतेफ़ाक है.
सिर्फ़ छत्तीसगढ ही नहीं अब तो जो भी आप की कविता एक बार पढ ले... सुन ले.. बस आप का दीवाना हो जायेगा
"सुख की थाती का क्या करना
करने दो दुख को क्रीड़ा माँ
वीणा के तार से गीत बजे
मैं गा लूं जग की पीडा माँ"
अद्भुत पंक्तियाँ हैं राजीव जी, दिल को छू लेने वाले मार्मिक शब्द हैं ये..
क्या टिप्पणी करूँ, पता नहीं..आपकी रचनायें जितनी भी पढ़ते जाओ उतनी ही गहराई में जाती रहतीं हैं.. हर रचना कुछ कहती है..
मैं धन्यवाद करूँगा आपके मित्र का भी जिनके कहने पर आपकी यह कविता हिंद युग्म के पाठकों को पढ़ने का अवसर मिला..
मेरे आँसू, मेरी आहें,
मेरे अपने हैं रहने दो
पलकों के गुल पर ठहर
कभी बहते हैं, बहने दो
हर लाश है मेरी, कत्ल हुई
मेरे ही नयना झरे झरे
पीड़ा पीड़ा की क्रीड़ा है
हर लूँ, मुझको दो बीड़ा माँ
ati sundar kavita....17 saal turaani ho ya 17 ghante.....aapki poems are always rocking..:)
१७ साल पहले की रचना भी बहुत ही अच्छी है राजीव जी मगर एक बात हमे भी बताएं किस-किस के दिल में रहेन्गे...
इतना सुंदर लिखंगे तो सभी के दिल में रहेंगे आप..:)
शानू
सुख की थाती का क्या करना
करने दो दुख को क्रीड़ा माँ
बाल-ह्रदय से उद्भूत यह रचना अत्यन्त सराहनीय है।
राजीव जी, अब भी मेरे कहने के लिये कुछ रह गया हो, ऐसा कुछ मुझे समझ नहीं आता. आपकी हर कविता दिल में उतरती चली जाती है और आपके लिये हर दिल में एक मुकाम, एक घर बना लेती है. सभी आपको दिल में रखने की बात कर रहे हैं तो मैं भी कुछ बोल देता हूँ. हाँ मेरे पास शब्द नहीं हैं, इसलिये एक शायर (नाम मुझे याद नहीं) के शब्दों क इस्तेमाल कर रहा हूँ-
मुस्तकिल क्यों नहीं बस जाते मेरी आँखों में
इन मकानों का किराया नहीं माँगा जाता
आपको ये कैसे लगा कि इसे पढ़के किसी को निराशा हो सकती है। आप तब भी बहुत खूब लिखते थे, जैसा आज लिखते हैं।
मुझे बहुत खुशी है कि आपसे परिचय हुआ।
aapki koi bhi rachna chahe wo kitni hi purani kyon na ho niraash nahi kar sakti yah bhi apwaad nahi hai
आपकॊ शत शत नमन राजीव जी।
सत्रह साल पहले से ही आप निराला जैसे कवियॊं से मुकाबला कर रहे हैं।
गौरव जी ने सही हीं कहा है कि आपको कैसे लगा कि लोग इसे पढकर निराश होंगे।इसे पढकर यही लगा कि १७ साल पहले हीं आप एक पूर्ण कवि बन चुके थे।
सुख की थाती का क्या करना
करने दो दुख को क्रीड़ा माँ
पीड़ा पीड़ा की क्रीड़ा है
हर लूँ, मुझको दो बीड़ा माँ
सब की तरह मुझे भी बहुत खुशी है कि जो आपसे परिचय हुआ।
आपकी पुरानी लेखनी में भी आज का ही राजीव दिखता था-
देखो बिखरी है भूख वहाँ,
परती हैं खेत बारूद भरे
हर लाश है मेरी, कत्ल हुई
शत-प्रतिशत गेय भी है। ज़रा इसे अपनी आवाज़ भी दे दें।
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