कांच के नगों में नूर वे तलाशते रहे,
हमने जो बनाई, तस्वीर को भुला दिया।
तस्वीर से रंग यूँ निकाल फेंके उसने,
ऐसी क्या खता हुई कि प्यार को भुला दिया।
जिस्म,जान,सोच,होश, पर था जिसका अधिकार,
मेरी जिन्दगी को वो पराये लगने लगे।
आयेगी बहार उम्र काटी तन्हा इंतजार,
फूल झरने लगे और शूल खिलने लगे।
जिन्दगी की सारी राह मोड दीं थी जिस तरफ,
हमने देख उनके कदम डिगने लगे।
अब क्या बतायें हमको क्या क्या वफा मिली,
कुछ सौदाइयों में हम बिकने लगे।
किस्मती की बात सब कोई शिकवा नहीं,
छोडो सोचना यार किसने क्या गिला दिया?
कांच के नगों में नूर वे तलाशते रहे,
हमने जो बनाई, तस्वीर को भुला दिया।
देवेश वशिष्ठ 'खबरी'
9811852336
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11 कविताप्रेमियों का कहना है :
आज ही अखबार मे कन्हैयालाल सेठिया साहब की टिप्पणी पढी " जो दर्द को जानता है, समझता है, जीता है, वही कविता को अच्छी तरह से लिखता है, "जीता" है ।"आप की कविता मे वही दर्द झलकता है ।
शब्दों के चयन मे सावधानी बरती गई है ।
काव्य यञ बहुत ही ठीक तरह से सम्पन्न हुआ है बस कहीं कहीं थोडी सी समिधा की कमी महसूस हुई।
"तस्वीर से रंग कुछ यूँ॰॰॰॰॰" , और अब क्या बतायें हमकों क्या क्या वफा॰॰॰॰॰" बहुत ही उम्दा शे'र है ।
इस काव्य यञ से हिन्द-युग्म को समृध्द करने हेतु आपका बहुत बहुत अभिवन्दन ।
आर्य मनु
देवेश जी, आपकी पिछली रचना की तुलना में यह मुझे बिल्कुल भी पसंद नहीं आई।आपके पास गहरे भाव जरूर थे, पर आप उन्हें अच्छी तरह तराश नहीं पाए।
लय बीच में टूट गई है और 'दिया' की जगह 'लगे' से अंत होने लगा है।ऐसा लगा कि दो अलग अलग वक़्त पर लिखी पंक्तियों को मिला दिया गया है।
बेहतर की आशा में
गौरव
मॊहब्बत से मिले गम का रस्ता नाजुक है तॊ चलते वक्त ध्यान जरा दें। कुछ एसी रचना हॊ कि इश्क में नाकाम नामुराद परवानॊं के जख्म भर जाएं।
इस कविता की चाल यह नवयौवना की चाल की तरह अल्हड़ है। कहाँ पाँव पड़ेगे न उस युवती को पता है और न ही दूर से देख रहे चटखरों को। मगर मस्त यह भी उतनी ही हैं जितनी अल्हड़ की चाल।
सुन्दर लिखा है देवेश जी,
यही रचना और भी निखर जाती और भाव और अधिक उभर आते यदि कुछ व्याकरिणक त्रुटियों और शिल्प पर आपने ध्यान दिया होता
देवेश जी..
कुछ पंक्तिया वाकई बहुत अच्छी हैं जैसे:
कांच के नगों में नूर वे तलाशते रहे,
हमने जो बनाई, तस्वीर को भुला दिया।
कविता आपका थोडा समय माँग रही है, इसे निखारें।
*** राजीव रंजन प्रसाद
सुंदर भाव हैं ....बाक़ी सबने बहुत कुछ लिख दिया :)
कांच के नगों में नूर वे तलाशते रहे,
हमने जो बनाई, तस्वीर को भुला दिया।
शुरूआत हीं सारी बात कह देती है। प्रेम में तिरस्कार खाए एक प्रेमी की वेदना का अच्छा चित्रण किया है आपने।
बधाई स्वीकारें।
अच्छा लिखा है खबरी जी
देवेश अच्छा लिखा है..प्रेम में हारे हुए तिरस्कृत एक प्रेमी की वेदना का आभास दिलाती है आपकी रचना...
कांच के नगों में नूर वे तलाशते रहे,
हमने जो बनाई, तस्वीर को भुला दिया।
तस्वीर से रंग यूँ निकाल फेंके उसने,
ऐसी क्या खता हुई कि प्यार को भुला दिया।
प्रथम पंक्तियाँ बहुत सुंदर बनी है..
लिखते रहो..बहुत-बहुत बधाई
सुनीता(शानू)
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