तुम्हारा उपवन, मेरा निर्जन वन,
अपना जीवन अलग अलग था,
पर तुमने जीवन सोच लिया क्यों,
मैंने बस क्षण भर माँगा था,
मैंने प्रेम नहीं माँगा प्रिये,
मैंने बस उत्तर माँगा था।
मेरा समर्पण, मेरे प्रेम से
थोड़ा सा ज्यादा तो था,
पर तुमने खुद को मान लिया क्यों,
मैंने तो ईश्वर माँगा था,
मैंने प्रेम नहीं माँगा प्रिये,
मैंने बस उत्तर माँगा था।
सन्नाटे में शोर मचा है,
भीड़ में सूनापन सा है,
तुम्हें लगा ये चाहत है,
पर मैंने पागलपन माँगा था,
मैंने प्रेम नहीं माँगा प्रिये,
मैंने बस उत्तर माँगा था।
मेरे हाथ पे तेरे हाथ ने,
नाम लिखा था जब मेरा,
चाहा तो था हाथ माँग लूं,
मैंने बस कंगन माँगा था,
मैंने प्रेम नहीं माँगा प्रिये,
मैंने बस उत्तर माँगा था।
चलते चलते रुका था जब मैं,
तुझे लगा तस्वीर माँग ली,
तेरा चेहरा देख सका जो,
भाग्यवान दर्पण माँगा था,
मैंने प्रेम नहीं माँगा प्रिये,
मैंने बस उत्तर माँगा था।
प्रेम के उत्तर में दुनिया में,
सबने लाँछन खाए हैं,
अभिलाषाएं तोड़ सके जो,
शायद वो पत्थर माँगा था,
मैंने प्रेम नहीं माँगा प्रिये,
मैंने बस उत्तर माँगा था।
मुझको जिद्दी कहकर तुमने
हर चाह छिपा दी जिद के पीछे,
तुम्हें इच्छाओं का लगा पुलिन्दा
पर मैंने अंतिम वर माँगा था,
मैंने प्रेम नहीं माँगा प्रिये,
मैंने बस उत्तर माँगा था।
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)
26 कविताप्रेमियों का कहना है :
सौलंकी जी,
मुझको जिद्दी कहकर तुमने
हर चाह छिपा दी जिद के पीछे,
तुम्हें इच्छाओं का लगा पुलिन्दा
पर मैंने अंतिम वर माँगा था,
बहुत सुन्दर लिखा है
जिन्दगी में अधिकतर ऐसा ही होता है कि जो हम चाहते है उसका समय से इजहार नही कर पाते और यदि इजहार कर भी देते है तो वह चीज नही मिलती जिसकी चाह की थी...
एक बात जो मैं कहना चाहूंगा अगर आप हर बार अन्त "मैने बस उत्तर मांगा था" न कर के "उत्तर" के किसी अन्य प्रयाय से करते तो कविता में और भी चमक आ जाती... सिर्फ़ दोस्त की सलाह भर है. इसे अलोचना न समझे.
badhiya kavita...anaand nahi aaya...
छायावादी भाव लिए एक अच्छी कविता
गौरवजी,
आपकी लेख़नी में ग़ज़ब का सम्मोहन है, मैं मोहिन्दरजी से सहमत नहीं हूँ, "मैंने बस उत्तर माँगा था" पंक्ति भावों को सही प्रकार से व्यक्त करने में कामयाब रही है। वैसे यह मेरी व्यक्तिगत राय है, मोहिन्दरजी ने किस रूप में देखा है, उस पर भी विचार कर लिजियेगा।
इस खूबसूरत रचना हेतु हार्दिक बधाई!!!
सस्नेह,
- गिरिराज जोशी "कविराज"
"मै समझ नही पा रहा कि क्या टिप्पणी प्रेषित करुँ॰॰॰॰॰?
पर सही मायनों मे बहुत ही स्तरीय रचना और मुग्ध कर देने वाले भाव ।
इन भावों मे ऍक ऍसी बात, जो दिल को बहुत दूर तक छू जाती है,
बहुत बहुत साधुवाद ।
रचना बहुत प्रभावित करती है गौरव जी आनंद आ जाता है जब पढ्ते हुए कविता अप्ने पद में इन पंक्तियों तक पहुँचती है।
मैंने बस उत्तर माँगा था।
मैंने तो ईश्वर माँगा था,
पर मैंने पागलपन माँगा था,
मैंने बस कंगन माँगा था,
भाग्यवान दर्पण माँगा था,
शायद वो पत्थर माँगा था,
पर मैंने अंतिम वर माँगा था,
मैंने बस उत्तर माँगा था।
बहुत बधाई।
*** राजीव रंजन प्रसाद
nice one. kuchh hatke pyaar ko pribhashit karte hue.
बहुत अच्छी रचना है गौरव भाई मगर मुझे समझ नही आता कब तक मांगोगे प्यार मेरे ख्याल से मांग-मांग कर नही मिलता...वो तो बस दिल की पुकार है दिल से दिल की राह खुद ही मिल जाती है...भावो के बारे में सोचूं तो बेहद अच्छे भाव है रचना में कुछ पन्क्तियाँ गहरा असर छोड़ती है जैसे कि....
मेरे हाथ पे तेरे हाथ ने,
नाम लिखा था जब मेरा,
चाहा तो था हाथ माँग लूं,
मैंने बस कंगन माँगा था,
मैंने प्रेम नहीं माँगा प्रिये,
मैंने बस उत्तर माँगा था।
प्रेम के उत्तर में दुनिया में,
सबने लाँछन खाए हैं,
अभिलाषाएं तोड़ सके जो,
शायद वो पत्थर माँगा था,
मैंने प्रेम नहीं माँगा प्रिये,
मैंने बस उत्तर माँगा था।
मुझको जिद्दी कहकर तुमने
हर चाह छिपा दी जिद के पीछे,
तुम्हें इच्छाओं का लगा पुलिन्दा
पर मैंने अंतिम वर माँगा था,
मैंने प्रेम नहीं माँगा प्रिये,
मैंने बस उत्तर माँगा था।
बहुत अच्छा लगा पढ़कर...
शुभ-कामनाएँ
सुनीताशानू
ये भाव-प्रवण रचना थी और भावों के सम्प्रेषण मे
कवि गौरव जी ने शब्दों के भँवर -जाल से खुद को जितनी सफाई से बचा लिया है , काबिले-तारीफ है।
बड़े-बड़े लोग छायावादी सम्मोहन के वशीभूत होकर
शब्दों की व्यूह-रचना मे फँस जाते हैं ; सादगी से काम चलाकर कवि ने अपनी परिपक्वता का परिचय दिया है।.........
...... कुछ शब्दो मे हेर-फेर कर रचना का स्तर और भी बढाया जा सकता था, पर वो तो रचियता के विवेकाधीन शक्तियों मे आता है - सो विशेष टिप्पणी मैं करना नहीं चाहता ।
सशक्त रचना है... लगे रहो गौरव भाई
साभार ,
श्रवण
to Gaurav,
If some body would write ur biography then tell him to meet me as i've seen your growth rather seeing from a little closer....as far as this poetry is concerned again a mature and terrefic piece....not only thought wise but selection of words, their uses...every thish is fantastic...u r getting mature in terms of writing and current trend of writing...otherwise u r mature enough in other respect....ek bhai bolta hai ultimate piece hai bhai!
Very nice Dear.
keep it up.
एक और सुंदर रचना. लिखते रहें.
Gaurav, this poem says a lot aout the people who liv in solitude.. pobably... I mean ... who is really alone in a crowd...this i sbasically bery fine expression of your feeling & not only your feeling I guess millions o other fellow human being feeling if they could have understood....Congrats for this creation & Good Luck for future....I feel art in any form makes people better ... (I dun know how to wruite in HINDI FONT in this website else I would LOVE to use HINDI....
Interesting ! liked.
सन्नाटे में शोर मचा है,
भीड़ में सूनापन सा है,
तुम्हें लगा ये चाहत है,
पर मैंने पागलपन माँगा था,
तेरा चेहरा देख सका जो,
भाग्यवान दर्पण माँगा था,
प्रेम के उत्तर में दुनिया में,
सबने लाँछन खाए हैं,
अभिलाषाएं तोड़ सके जो,
शायद वो पत्थर माँगा था,
मुझको जिद्दी कहकर तुमने
हर चाह छिपा दी जिद के पीछे,
तुम्हें इच्छाओं का लगा पुलिन्दा
पर मैंने अंतिम वर माँगा था,
मैंने प्रेम नहीं माँगा प्रिये,
मैंने बस उत्तर माँगा था।
uttam panktiyaan to yeh hai hi baak panktiyon ki tarah magar mujhe yeh sabse zyada choo gai...aachi ravangi hai.....lay bhi aacha hai kavita ka....ek hi saas me saari padh daali....pasand aai
होशियार कविता है। पसन्द आयी।
मेरे हाथ पे तेरे हाथ ने,
नाम लिखा था जब मेरा,
चाहा तो था हाथ माँग लूं,
मैंने बस कंगन माँगा था,
मैंने प्रेम नहीं माँगा प्रिये,
मैंने बस उत्तर माँगा था।
चलिए इसी बहाने आपकॊ प्रेम तॊ मिला
बहुत अच्छा लगा यह रचना पढ़ के .सुंदर भावो में ढली है यह रचना आपकी ग़ौरव जी....
सन्नाटे में शोर मचा है,
भीड़ में सूनापन सा है,
तुम्हें लगा ये चाहत है,
पर मैंने पागलपन माँगा था,
बहुत सुंदर है गौरव जी। मेरे पास कहने के लिए कुछ बचा नहीं है। सारे मित्रों ने तो कह हीं दिया है। और हाँ, मैंने टिप्पणी करने में देर भले हीं की है, पर पढने में कोई देरी नहीं की थी। अपनी कुछ पसंदीदा पंक्तियाँ पेश करता हूँ , आपकी हीं कविता से-
प्रेम के उत्तर में दुनिया में,
सबने लाँछन खाए हैं,
अभिलाषाएं तोड़ सके जो,
शायद वो पत्थर माँगा था,
मैंने प्रेम नहीं माँगा प्रिये,
मैंने बस उत्तर माँगा था।
सन्नाटे में शोर मचा है,
भीड़ में सूनापन सा है,
तुम्हें लगा ये चाहत है,
पर मैंने पागलपन माँगा था,
मैंने प्रेम नहीं माँगा प्रिये,
मैंने बस उत्तर माँगा था।
बहुत अच्छा लगा आपको पढकर।
ठीक ठीक है! कवि कुलवंत
http://kavikulwant.blogspot.com
es kavita ki pantiyo mai aaj ki
rup rekha pritibimbit hoti hai..
aaw sykta hai eske har ek sabd ko wayktigat zeewn mai uthrne ka..
बहुत गहरी संवेदनाएँ हैं, और जब कभी भी कविता संवेदनाओं के बिस्तर पर लेटी हो तो उसे निहारते रहने का मन करता है, वो किसी सोती हुई रूपसी-सा ज़ादू करती है। कुछ इसी प्रकार का सम्मोहन आपकी इस कविता में है।
कवि बहुत चतुराई से दूध का क्रीम माँग रहा है और यह भी जताना चाह रहा है कि उसे अधिक की तलाश नहीं। कहना चहा रहा है कि मुझे सागर नहीं चाहिए, अमृत की दो बूँद पिला दो।
प्रेम का अतिरेक इन पंक्तियों में दिखलाई पड़ता है-
सन्नाटे में शोर मचा है,
भीड़ में सूनापन सा है,
तुम्हें लगा ये चाहत है,
पर मैंने पागलपन माँगा था,
मैंने प्रेम नहीं माँगा प्रिये,
मैंने बस उत्तर माँगा था।
मौज़ूदा संस्कारों पर कवि इस प्रेम कविता से भी प्रहार करने में सफल हुआ है-
अभिलाषाएं तोड़ सके जो,
शायद वो पत्थर माँगा था,
अनगिन से निकलना कठिन है, मगर आप अनगिन में अलग हैं।
hi solanki,
ur poam was amazing and its ture. i have no word to explain ki how mach i like it.
keep writing and inform me also
bye
Monika
प्रिय सोलंकी साह्ब
इस रचना के अगर किसी एक छ्न्द को विशेष,कहा जये तो दूसरे के साथ पक्षाघात का आरोप मुझ पर आ सकता है। पहले तो कोई वस्तु पुर्ण नही हो सक्ती पर मेरे विचार से यह कृति पूर्णता के काफी निकट जरुर है।
गौरव जी, अगर आप ने इस रचना की मरम्मत में थोड़ा और समय दिया होता तो ये बात ही कुछ और होती।
रचना में बहाव कम है।
Kewal do hi shabd hain mere paas,
ati sundar!!
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)