भरी गर्मी में जहाँ सावन का, रिमझिम फुहारों का इंतजार हो रहा है, गर ऐसी रेशमी फुहारों में 'वो' दिख जाऐं तो क्या कहने। जरूर दिखेंगे वो इस सावन में, यकीन रखें, गीत पढें और गुनगुनाऐं-
कितने दिन के बाद सखी तुम दी फिर दिखलाई,
जब सावन की पहली बारिश मेरे घर आयी।
बदली से सुधियाँ घिर-घिर जब उमडी़ आँगन में,
दो छन को ज्यों दौलत मैंने, दो जग की पायी।
नयनों की सुधियों में रच-बस, जब तुम आती हो,
बदली से सुधियाँ घिर-घिर जब उमडी़ आँगन में,
दो छन को ज्यों दौलत मैंने, दो जग की पायी।
नयनों की सुधियों में रच-बस, जब तुम आती हो,
अधरों की रेशमी छुअन सी क्यों छिप जाती हो?
साँसों की,दिल की घबराहट, आँखों से खेता हूँ।
प्रीत, गीत में गूंथ, हृदय में तुमको रख लेता हूँ।
प्रीत, गीत में गूंथ, हृदय में तुमको रख लेता हूँ।
गर्म हवाऔं ने भी देखो क्या पलटी खाई,
जब सावन की पहली बारिश मेरे घर आयी।
जब सावन की पहली बारिश मेरे घर आयी।
जा बदली जा जा कुछ बूँदें उस पर भी बरसा,
मैं तो कब से तरस रहा, कुछ उस को भी तरसा।
मैं तो कब से तरस रहा, कुछ उस को भी तरसा।
हमने सब कुछ जीत लिया, पर तुमको हार गये।
सपने,सपने रहे न हम सपनों के पार गये।
सपने,सपने रहे न हम सपनों के पार गये।
दो प्यारे से सपने आखिर रह गये परछाई,
जब सावन की पहली बारिश मेरे घर आयी।
जब सावन की पहली बारिश मेरे घर आयी।
जख्मी दिल के छाले अब हम किसको दिखलायें?
तन्हाई में अपने हाथों खुद ही घुट जायें।
तन्हाई में अपने हाथों खुद ही घुट जायें।
ऐ बादल मत बरस अभी तू मेरे आँगन में,
कुछ नाजुक लम्हे बंजर हैं अब तक सावन में।
कुछ नाजुक लम्हे बंजर हैं अब तक सावन में।
प्राकथ्थन पर रुकी कहानी पूर्ण न हो पाई,
जब सावन की पहली बारिश मेरे घर आयी।
जब सावन की पहली बारिश मेरे घर आयी।
- देवेश वशिष्ठ 'खबरी' (9811852336)
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)
12 कविताप्रेमियों का कहना है :
वाह देवेश आज तो आपका एक नया ही रूप देखा बहुत सुंदर मनमोहक गीत...दिल चाहता है मै गाऊँ
और फ़िर आज मौसम भी बारिश का है...ऐसे मे आपका ये मन-भावन गीत मन को मोह लेने वाला है...बहुत-बहुत बधाई...
अब जरा गीत के बारे में..क्यूँ इतने रोमांटिक गीत को लिखते-लिखते अचानक आप उदास हो गये और हमे भी उदास कर दिया...आपके स्वप्न अवश्य पूरे होंगे ...हमारी शुभ-कामनाएं आपके साथ है...:)
सुनीता(शानू)
बहुत सुन्दर रचना है\बधाई।
देवेश जी,
आप गीत बहुत अच्छा लिखते हैं। कुछ बिम्ब तो बिलकुल नये हैं-
गर्म हवाओं ने भी देखो क्या पलटी खाई
कुछ नाजुक लम्हे बंजर हैं अब तक सावन में
मुझे लगता है कि आनेवाले दिनों में और सुंदर-२ गीत पढ़ने को मिलेंगे।
नये बिम्बोँ के प्रयोग ने गीत को सुन्दर रूप प्रदान किया ह और इस भीष्ण गर्मी मेँ तो बरसात आह... जैसे मृत शरीर मेँ प्राण आ जायेँ.. इस भाव भरी कविता के लिये बधायी
वाह देवेश जी। बेहद सुंदर गीत और इस गर्मी में तो सावन और बारिश की बात तो यूँ भी दिल खुश कर देती है। पर आपने तो सचमुच खुशी के साथ उदासी भी दे डाली।
जख्मी दिल के छाले अब हम किसको दिखलायें?
तन्हाई में अपने हाथों खुद ही घुट जायें।
ऐ बादल मत बरस अभी तू मेरे आँगन में,
कुछ नाजुक लम्हे बंजर हैं अब तक सावन में।
प्राकथ्थन पर रुकी कहानी पूर्ण न हो पाई,
देवेश जी..
पहली बारिश से उठने वाली सोंधी मिट्टी की खुश्बू सा यह गीत है, बहुत सुन्दरता से अहसासों को अनूठे बिम्बों के साथ आपने पिरोया है, बहुत बधाई।
*** राजीव रंजन प्रसाद
खबरी जी, आप ने विषय तो सामयिक चुना है, लेकिन रचना उतना प्रभावित नहीं करती।
हाँ, कुछ उपमायें बेहतर हैं--
"गर्म हवाऔं ने भी देखो क्या पलटी खाई",
जब सावन की पहली बारिश मेरे घर आयी।
जख्मी दिल के छाले अब हम किसको दिखलायें?
तन्हाई में अपने हाथों खुद ही घुट जायें।
ऐ बादल मत बरस अभी तू मेरे आँगन में,
कुछ नाजुक लम्हे बंजर हैं अब तक सावन में।
प्राकथ्थन पर रुकी कहानी पूर्ण न हो पाई,
बहुत ही सुंदर गीत ठीक सावन के बदरा की तरह है ...भाव भरी कविता है:)
जख्मी दिल के छाले अब हम किसको दिखलायें?
तन्हाई में अपने हाथों खुद ही घुट जायें।
ऐ बादल मत बरस अभी तू मेरे आँगन में,
कुछ नाजुक लम्हे बंजर हैं अब तक सावन में।
प्राकथ्थन पर रुकी कहानी पूर्ण न हो पाई,
बहुत सुंदर रचना है देवेश भाई।कल रात हीं बेंगलूर में बारिश हुई है और आज आते हीं बारिश पर आपकी यह रचना मिली तो मन प्रसन्न हो गया । लिखते रहिये।
जब सावन की पहली बारिश मेरे घर आयी।जा बदली जा जा कुछ बूँदें उस पर भी बरसा,
मैं तो कब से तरस रहा, कुछ उस को भी तरसा।हमने सब कुछ जीत लिया, पर तुमको हार गये।
सपने,सपने रहे न हम सपनों के पार गये।दो प्यारे से सपने आखिर रह गये परछाई,
जब सावन की पहली बारिश मेरे घर आयी।जख्मी दिल के छाले अब हम किसको दिखलायें?
तन्हाई में अपने हाथों खुद ही घुट जायें। ऐ बादल मत बरस अभी तू मेरे आँगन में,
saawal ki rim jhi boondon ne kya khoob baat kahalaai hai aapki kalam se.....sundar rachna....likhte rahiye
अभीभूत हूं...मैं बड़ा दुख कर रहा हूं इसी बात पर कि मैं इंसान क्यों हूं, भूत ही क्यों नहीं हूं । गर्म हवायें पलटी खा रही हैं, जख्मी दिल के छाले...तन्हाई में आपके हाथ.. और इतना सब ही नहीं, कहानी प्राकथ्थन(हाय राम!!), पर ही रुक गयी...ये कविता भी रेशमी छुवन सी छूकर ही निकल जाये यही कामना है...नयनों की सुधियों मे रच बस न जाये...बधाई ।
जख्मी दिल के छाले अब हम किसको दिखलायें?
तन्हाई में अपने हाथों खुद ही घुट जायें।
ऐ बादल मत बरस अभी तू मेरे आँगन में,
कुछ नाजुक लम्हे बंजर हैं अब तक सावन में।
बारिश के मोसममे बारिश की कविता. अच्छा मोका पाया है आपन.े
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)