महक उठी जैसे कस्तूरी
रोशन हुई मंज़िलें अंधेरी
गिरती बहकती आसमान पर चली
नाता नहीं किसी रहगुज़र से कोई
बैठी जब दर पर फुरसत से कभी
तपती जमीन ने दी शबनम की नमी
बनकर एक गुमनाम कहानी
छोड आयी थी यार की गली
झूमती रही फकीरन बनी
जब भी तेरी सदा सुनी
भटकी जैसे रात सारी
तनहा बडी ज़िन्दगी गुज़ारी
टूटे सब आईने मिलते रहे
और उनसे मैं सँवरती गई
ख्यालों के स्पर्श से सही
जिन्दगी तेरी बदौलत है सुनहरी
तेरे घर के आँगन पर पडी
ज़रा आहिस्ता से सँभालना चुनरी मेरी
महक उठी जैसे कस्तूरी
रोशन हुई मंज़िलें अंधेरी
*********अनुपमा चौहान**********
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20 कविताप्रेमियों का कहना है :
वाह अनूपमा जी क्या खूब लिखा है आपने...
"तेरे घर के आँगन पर पडी
ज़रा आहिस्ता से सँभालना चुनरी मेरी"
सचमुच भावनाओं को बड़ी सहजता से उतारा है आपने शब्दों में...
बैठी जब दर पर फुरसत से कभी
तपती जमीन ने दी शबनम की नमी
वियोग अपने चरम पर है इन पंक्तियों में...
टूटे सब आईने मिलते रहे
और उनसे मैं सँवरती गई
वैसे एक बात कहना चाहूँगा..कि प्रवाह और अच्छा हो सकता था ..अगर भावों को लय तथा प्रवाह् का साथ और ज्यादा सही तरीके से मिला होता तो पढ्ने में कही अधिक आनंद की अनूभूती होती...
वैसे अभी भी रचना काफी अच्छी है...
अनुपमा चौहान जी,्कविता बहुत भावों ओतप्रोत है। सुन्दर रचना है। मूक प्रेम को दर्शाती ये पंक्तियाँ बहुत सुन्दर बन पड़ी हैं-
"बनकर एक गुमनाम कहानी
छोड आयी थी यार की गली
झूमती रही फकीरन बनी
जब भी तेरी सदा सुनी"
वाह अनुपमा जी। क्या बात है।
प्रेम की अनुभूति करा दी आप ने,
त्याग और संतोष की अच्छी अभिव्क्ति।
टूटे सब आईने मिलते रहे
और उनसे मैं सँवरती गई.
महक उठी कलम तुम्हारी और महक उठी कस्तुरी
महक उठे सब पाठकगण और महक उठी कस्तुरी
झूमती रही फकीरन बनी
जब भी तेरी सदा सुनी
बहुत अधीर पंक्तियां हैं। भाव-प्रवण कविता देने के लिए बधाई स्वीकार करें।
sundar va' gehri rachna.
Likhtin' rahiyen'
kamlesh
वाह!
तेरे घर के आँगन पर पडी
ज़रा आहिस्ता से सँभालना चुनरी मेरी
आप भी प्रेम रंग में रंगी हुई है! अभी-अभी डॉ. विश्वासजी को पढ़ा :)
आज तो हिन्द-युग्म पर प्रेम-गंगा बह रही है :)
Hi Anupamaa...
प्रेममय सुधी की अंतर स्थित अभिलाषा को व्यापक रुप में अभिव्यक्त किया है…कविता शुरु कब हुई और खत्म भी हो गई पता नहीं चला… वाह!!! लिखती रहो…।
अनुपमा जी..
हार्दिक प्रसन्नता हुई आपकी कविता आज देख कर। बहुत सुन्दर शब्दों में आपने कविता को बुना है।
"गिरती बहकती आसमान पर चली
नाता नहीं किसी रहगुज़र से कोई"
"झूमती रही फकीरन बनी
जब भी तेरी सदा सुनी"
"टूटे सब आईने मिलते रहे
और उनसे मैं सँवरती गई"
"ख्यालों के स्पर्श से सही
जिन्दगी तेरी बदौलत है सुनहरी
तेरे घर के आँगन पर पडी
ज़रा आहिस्ता से सँभालना चुनरी मेरी"
प्रत्येक बिम्ब मन को छूता है। बहुत सुन्दर..।
*** राजीव रंजन प्रसाद
मेरे घुन्नेपन को भी अब शरम आने लगी है...उपर की सारी प्रतिक्रियायें करने वालों की तरह ही ऐसी अद्वितीय कविता मैने कभी नहीं पढी, क्या खूब लिखा है आपने..सचमुच भावनाओं को बड़ी सहजता से उतारा है आपने शब्दों में...वियोग अपने चरम पर है इन पंक्तियों में...्कविता बहुत भावों ओतप्रोत है। सुन्दर रचना है। मूक प्रेम को दर्शाती...बहुत अधीर पंक्तियां हैं। भाव-प्रवण कविता देने के लिए बधाई स्वीकार करें।
आज तो हिन्द-युग्म पर प्रेम-गंगा बह रही है...प्रेममय सुधी की अंतर स्थित अभिलाषा को व्यापक रुप में अभिव्यक्त किया है…कविता शुरु कब हुई और खत्म भी हो गई पता नहीं चला… वाह!!! प्रत्येक बिम्ब मन को छूता है।...वाह वाह.. आगे भी लिखती रहेंगी ??
वैसे ये सारे विरोधाभास प्रेम में ही दृष्टिगोचर होते हैं और आप तो प्रेम की कवयित्री हैं आपसे बेहतर कौन समझ सकता है!
अब टूटे आइने में कोई पिया से मिलने जाने वाली ही सँर सकती है-
टूटे सब आईने मिलते रहे
और उनसे मैं सँवरती गई
भटकी जैसे रात सारी
तनहा बडी ज़िन्दगी गुज़ारी
टूटे सब आईने मिलते रहे
और उनसे मैं सँवरती गई
बहुत ही सुंदर लिखा है आपने अनुपमा ..प्रेम रस में डूब गया दिल..
हर हाल में आप अपने प्रियतम पर कोई आक्षेप नहीं लगाना चाहती हैं। वियोग के कठिन पलों में भी उसकी यादों को याद कर रही हैं और उसे अपने जीने का सहारा बता रही हैं। सच में प्रेम का इसे बडा उदाहरण कुछ नहीं हो सकता।
एक अच्छी रचना के लिए बधाई स्वीकारें।
अच्छा लिखा अनुपमा जी
बधाई
सस्नेह
गौरव
अनुपमा जी बहुत सुन्दर प्रेमरस में डूबी कविता है..वैसे तो सारी की सारी कविता रोचक बन पड़ी है..परन्तु सर्वप्रथम दो लाईन बहुत अच्छी लगी..
महक उठी जैसे कस्तूरी
रोशन हुई मंज़िलें अंधेरी
बहुत-बहुत बधाई
सुनीता(शानू)
प्रेम की खूबसूरत और सरल अभिव्यक्ति। सुंदर काव्य।
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