चाहा आग लगे हर दिल में,
सब कुछ गंगा सा हो शीतल,
पर दोराहे, दो बातें और दुनियादारी ऐसी थी,
सूरज में ही आग लगी है,
धरती भीग रही है जल जल;
गली में, नुक्कड़ बाजारों में
सब चीजों के हाट लगे थे,
पर तुझको भाने लायक चीज नहीं कुछ ऐसी थी,
मैं बिकने को आज खड़ा हूं,
लेता हो तो मुझको ले चल;
एक मरा है, एक कटा है,
मौन खड़े हैं बाकी क्योंकि
डर था भीतर तक या आदत सबकी ऐसी थी,
पर जितने भी चुपचाप खड़े हैं,
उनकी बारी आएगी कल;
पुचकारा जिनको मिट्टी ने
पर कंधों पर बहुभार दिए,
अन्नदाता की बेचारी नियति ही कुछ ऐसी थी,
बोया, काटा सब चला गया,
पथराई आँखों में है जल;
शौक था जिनको होशियारी का,
पगलाए से फिरते हैं,
शिखर की हरियाली सारी काँटों जैसी थी,
ऊंचाइयाँ गूँज रही हैं,
बलि माँगती हैं फिर पल पल;
मुझे सिखा दो भीख माँगना,
माँगूंगा मैं आज़ादी अब,
हल्ला बोला गया बहुत पर रीत यहाँ की ऐसी थी,
भीख में मोती मिल जाते हैं,
चिल्लाने वाला है पागल;
या कहो मुनादी वालों से,
अब जोशीले गीत बजाएं,
कल वाले गीतों की धुन बहुत उदासी जैसी थी,
ये दौर गया, जैसा भी था,
नई जवानी गाएगी कल।
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14 कविताप्रेमियों का कहना है :
सुंदर भाव है .... अच्छा लगा इसको पढ़ना
या कहो मुनादी वालों से,
अब जोशीले गीत बजाएं,
कल वाले गीतों की धुन बहुत उदासी जैसी थी,
ये दौर गया, जैसा भी था,नई जवानी गाएगी कल।
जोश और उमंग का संचार करते है इस के भाव..
प्रिय गौरव
मैं आपकी रचनाओं के स्तर से इतना प्रभावित हूँ कि मुझे युग्म पर आपकी रचना का इंतजार रहता है। आपकी मेधा इस रचना से भी झलक रही है:
"पर दोराहे, दो बातें और दुनियादारी ऐसी थी,
सूरज में ही आग लगी है,
धरती भीग रही है जल जल"
"मैं बिकने को आज खड़ा हूं,
लेता हो तो मुझको ले चल;"
"एक मरा है, एक कटा है,
मौन खड़े हैं बाकी
क्योंकि डर था भीतर तक
या आदत सबकी ऐसी थी,
पर जितने भी चुपचाप खड़े हैं,
उनकी बारी आएगी कल;"
और रचना का आशावादी अंत:
"या कहो मुनादी वालों से,
अब जोशीले गीत बजाएं,
कल वाले गीतों की धुन बहुत उदासी जैसी थी,
ये दौर गया, जैसा भी था,नई जवानी गाएगी कल"
"मुझे सिखा दो भीख माँगना,माँगूंगा मैं आज़ादी"
यही धार और पैनापन अपनी कलम में बनाये रखें। मेरी शुभकामनायें।
*** राजीव रंजन प्रसाद
बहुत सुंदर गौरव जी। कई दिनों से आपकी रचना की प्रतिक्षा थी और यह चाहत पूरी हुई तो क्या पूरी हुई। मजा आ गया।
हर एक बोल एक तथ्य सामने रखते हैं।चाहे वो दुनियादारी की बातें हों, कट मरने की बातें हों या फिर आजादी की, हर बात आपने स्वच्छता से कही है।
आशावादी अंत मुझे सबसे ज्यादा प्रभावित कर गया।
बधाई स्वीकारें।
एक गहरी प्रतिध्वनि है आपकी कविता में, बंधु।
चाहा आग लगे हर दिल में
सब कुछ गंगा सा हो शीतल
the ultimate paradox of thoughts!
'विडम्बनायें’...भई वाह !
गौरव जी,
आपकी सोच, शिल्प, कथन, कवित्त और सम्पूर्ण अभिव्यक्ति को नमन !
लिखते रहें, शुभकामनायें !
बहुत सुन्दर गौरवजी,
विडम्बनाओं का चित्रण भी आपने बड़े शालीन शब्दों में किया है वरना अधिकांशत: कवि आवेशित हो जाता है, दिल की तड़प शब्दों में भी गरमाहट भर देती है...
आशावादी अंत कविता की सुन्दरता को और भी निखार गया, बधाई स्वीकारें!
गौरव जी,सुन्दर रचना है।
या कहो मुनादी वालों से,अब जोशीले गीत बजाएं,कल वाले गीतों की धुन बहुत उदासी जैसी थी,ये दौर गया, जैसा भी था,नई जवानी गाएगी कल।
गौरव जी,
आपकी सभी कविताएँ कालजयी लगती हैं। कम से अंतरजाल पर ऐसी कविताएँ नहीं मिलतीं पढ़ने को। आपकी सोच ही अद्वितीय है, पाठकों को चौकाती हैं, स्थापित संस्कारों पर प्रहार करती है।
मुझे लगता है कि ऐसा लिखने का दम आपमें ही है-
तुझको भाने लायक चीज नहीं कुछ ऐसी थी,
मैं बिकने को आज खड़ा हूं,
लेता हो तो मुझको ले चल;
आपकी यह पंक्तियाँ अजीब-सा व्यंग्य करती हैं भयाक्रांतों पर-
एक मरा है, एक कटा है,
मौन खड़े हैं बाकी क्योंकि
डर था भीतर तक या आदत सबकी ऐसी थी,
पर जितने भी चुपचाप खड़े हैं,
उनकी बारी आएगी कल;
आप तथाकथित ईश्वर को हमेशा ही कटघरे में खड़ा करते आये हैं-
अन्नदाता की बेचारी नियति ही कुछ ऐसी थी,
बोया, काटा सब चला गया,
पथराई आँखों में है जल;
और नीचे की पंक्तियों ने मुझे गदगद कर दिया है, अगर आप करीब होते तो अपना शीश नवा देता-
मुझे सिखा दो भीख माँगना,
माँगूंगा मैं आज़ादी अब,
हल्ला बोला गया बहुत पर रीत यहाँ की ऐसी थी,
भीख में मोती मिल जाते हैं,
चिल्लाने वाला है पागल;
सभी ने सच ही कहा कि आपकी कविता में एक सकारात्मक संदेश भी है-
ये दौर गया, जैसा भी था,
नई जवानी गाएगी कल।
गली में, नुक्कड़ बाजारों में
सब चीजों के हाट लगे थे,
पर तुझको भाने लायक चीज नहीं कुछ ऐसी थी,
मैं बिकने को आज खड़ा हूं,
लेता हो तो मुझको ले चल;
गौरव भाई आपकी रचना को किसी टिप्पणी की जरुरत ही नही,..बहुत सुंदर यथार्थवादी कविता है..
इतने सुंदर चित्रण के लिए बहुत-बहुत बधाई
सुनीता(शानू)
गौरव जी,
बडा सुकून मिलता है आपको पढकर।
आपकी सोच को सलाम।
'मुझे सिखा दो भीख माँगना,माँगूंगा मैं आज़ादी'
कहते तो हैं कि बिन मागे सब कुछ मिले माँगे मिले न भीख,
पर आपकी जो ख्वाहिश है, यकीनन सकारात्मक और सार्थक है।
अच्छी कविता के लिये बधाई।
प्रिय गौरव
आपको पढने के बाद मन प्रसन्न हो उठता है
आपका लेखन इतना स्तरीय और गंभीर है कि कई कई बार पढे बिना मन नहीं मानता
माँ शारदा की क़ृपा है आप पर
एक बार फिर आशानुरूप अनुपम रचना
"मैं बिकने को आज खड़ा हूं,
लेता हो तो मुझको ले चल"
"जितने भी चुपचाप खड़े हैं,
उनकी बारी आएगी कल"
"मुझे सिखा दो भीख माँगना,माँगूंगा मैं आज़ादी "
प्रेरक,अद्भुत काव्य
तृप्ति हो गयी बन्धु
कैसे धन्यवाद दूँ तुम्हें ??
:-)
ऐसे ही लिखते रहो, प्लीज
सस्नेह
गौरव शुक्ल
बधाई स्वीकार करें गौरव जी..
अद्भुभुत रचना है..इतने सारे लोग आपको बधाइयाँ दे चुके हैं ..अब मेरे पास कहने कुछ रह ही नही गया है..
भावों का पूर्ण उत्कर्ष शायद इसी को कह्ते हैं..
"मैं बिकने को आज खड़ा हूं,
लेता हो तो मुझको ले चल;"
मुझे सिखा दो भीख माँगना,
माँगूंगा मैं आज़ादी अब,
आपका व्यंग्य सचमुच दर्शनीय है...
एक मरा है, एक कटा है,
मौन खड़े हैं बाकी क्योंकि
डर था भीतर तक या आदत सबकी ऐसी थी,
और अंत में सकारात्मक और आशावादी पंक्तियां रच्ना में चार चाँद लगा देती हैं ...
"या कहो मुनादी वालों से,
अब जोशीले गीत बजाएं,
कल वाले गीतों की धुन बहुत उदासी जैसी थी,
ये दौर गया, जैसा भी था,नई जवानी गाएगी कल"
"मुझे सिखा दो भीख माँगना,माँगूंगा मैं आज़ादी"
आशा ही नही वरन पूर्ण विश्वास है की हमे भविष्य मे6 ऐसी और भी कालजयी रचनाओं से रुबरु होने क अवसर मिलेगा...
या कहो मुनादी वालों से,अब जोशीले गीत बजाएं,कल वाले गीतों की धुन बहुत उदासी जैसी थी,ये दौर गया, जैसा भी था,नई जवानी गाएगी कल।
गौरव जी, आप ने एक बार फिर से दिल को खुश कर दिया।
सम्पूर्ण रचना ही सुन्दर है। पढ़कर कुछ सोचना पड़ा, यही आप की और रचना की सफलता है।
कविता के विषय में पहले ही काफी कुछ कहा जा चुका है, अतः कुछ और नहीं कहूँगा। सिर्फ मुबारकबाद।
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