ओ मेरे संशय, मेरे निर्णयकर!
तेरा परिचय मैं किस विध दूँ,
यही संशय है- तुझे क्या कहूँ।
मेरे अंतर्मन का राहु तू,
यह लघु-मोम, वज्रबाहु तू,
मेरे मानस पर छाये अंबर!
तेरा भार कहो, कैसे मैं सहूँ।
जिस ओर कदम बढते मेरे,
हैं दीखे शूल, तुझे बहुतेरे,
अगणित पुष्पों के राजकुंवर!
किस पथ के, बोलो,चरण गहूँ।
वह प्रिय मुझे स्वीकार्य हुई,
पर तुझको न शिरोधार्य हुई,
ओ, प्रेम-पुष्प के महाभ्रमर!
किस प्रेम ज्वार के संग बहूँ।
निज बंधुओं से जो भेद हुआ,
दिल रोया, तुझे न क्लेद हुआ,
स्वाभिमानी ,ओ सिद्ध प्रखर!
इस विश्व में किसके लिए रहूँ।
यह मर्त्यलोक जिसकी थाती,
नहीं महिमा तुझे उसकी भाती,
सुन, सर्वशक्तिशाली प्रभुवर !
अब खुद को मैं किस तरह लहूँ ।
मेरी कर्मभूमि, मेरा देश यहीं,
धनदेव जहाँ , तू गया वहीं,
ओ धन-कुबेर के प्रिय सहचर!
हूँ टूट चुका, किस ओर ढहूँ।
ओ मेरे संशय, मेरे निर्णयकर!
निस्संदेह मैं तेरे वश में हूँ-
यही दुविधा है, तुझे क्या कहूँ।
कवि- विश्व दीपक तन्हा
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17 कविताप्रेमियों का कहना है :
निज बंधुओं से जो भेद हुआ,
दिल रोया, तुझे न क्लेद हुआ,
स्वाभिमानी ,ओ सिद्ध प्रखर!
इस विश्व में किसके लिए रहूँ।
कहने के लिये शब्द नहीं मेरे पास ....बहुत अच्छा लिखा है ....बधाई
बहुत ही सुंदर रचना है
भ्रम, शंसय, दुविधा के भाव लिये आपकी कविता सुन्दर है
ओ मेरे संशय, मेरे निर्णयकर!
निस्संदेह मैं तेरे वश में हूँ-
यही दुविधा है, तुझे क्या कहूँ।
बहुत भा गया ये अंत । बधाई
शब्द-शिल्पी तन्हाजी,
इस सुन्दर "संशय" की प्रस्तुती के लिये बधाई स्वीकार करें। मनोस्थिति का अच्छा वर्णन किया है आपने। मन की दूविधा का सुन्दर चित्रण, आनन्द की अनुभूति हो रही है।
निज बंधुओं से जो भेद हुआ,
दिल रोया, तुझे न क्लेद हुआ,
स्वाभिमानी ,ओ सिद्ध प्रखर!
इस विश्व में किसके लिए रहूँ।
सही कहा है।
निज बंधुओं से जो भेद हुआ,
दिल रोया, तुझे न क्लेद हुआ,
स्वाभिमानी ,ओ सिद्ध प्रखर!
इस विश्व में किसके लिए रहूँ।
its all mirage...illusion....war between sub consious and unconcious.....very nice poem likes it...
आपके काव्य शिल्प का अद्भुत सौन्दर्य बरबस ही अभिभूत करता है बन्धु
"ओ मेरे संशय, मेरे निर्णयकर!
निस्संदेह मैं तेरे वश में हूँ-
यही दुविधा है, तुझे क्या कहूँ।"
प्रारम्भ से अन्त तक सरस निर्झर सी कविता
आभार
सस्नेह
गौरव शुक्ल
सुन्दर कविता....
अद्भुत काव्य शिल्प .
बहुत अच्छा
लिखा है
आभार
बधाई
पंकज जी और गौरव सोलंकी जी ने तथाकथित भगवान के अन्याय पर चुप्पी न साधते हुए, इसे कटघरे में खड़ा करने से नहीं चूके हैं। मुझे खुशी हो रही है कि आप भी इस शृंखला की नई कड़ी बन रहे हैं।
आपके इस कविता की कुछ पंक्तियाँ मुझे गदगद कर दे रही हैं-
निज बंधुओं से जो भेद हुआ,
दिल रोया, तुझे न क्लेद हुआ,
स्वाभिमानी ,ओ सिद्ध प्रखर!
इस विश्व में किसके लिए रहूँ।
मेरी कर्मभूमि, मेरा देश यहीं,
धनदेव जहाँ , तू गया वहीं,
ओ धन-कुबेर के प्रिय सहचर!
हूँ टूट चुका, किस ओर ढहूँ।
विश्व दीपक जी, आप ने अपने संशय को काफी अच्छी तरह से पेश किया है;
इस उम्र पर ये बड़ी ही स्वाभाविक सी बात होती है।
हाँ, काव्य में बहाव थोड़ा अधिक होना चाहिये था;
मतलब थोड़ी और मेहनत कर देते तो बात बन जाती।
mere gyan ka simeet paridhi mujhe iss kavita pe apna "reaction" vyaqt karne se rokti hai. par ek hi baat kehni hai..
"vah priy muze sveekaary huee,
par tuzako na shirodhaary huee,
o, prem-pushp ke mahaabhramar!
kis prem jvaar ke sang bahoo."
inn panktiyon mein iss nacheej ne aapne aap ko kavi ke jagah kalpana kar baitha....
Badhaiyaan....
विश्व दीपक तन्हा जी क्या खूब कविता लिखी है बहुत सुंदर भावप्रद,..अपने अंतर्मन से लड़ते हुए...एक -एक शब्द जैसे कि झकझोरने वाला है... मेरे अंतर्मन का राहु तू,
यह लघु-मोम, वज्रबाहु तू,
मेरे मानस पर छाये अंबर!
तेरा भार कहो, कैसे मैं सहूँ।
हर पल दुविधा,संशय,बेबसी नजर आ रही है...
मगर फ़िर भी जीना ही होगा...क्या खूब कल्पना कि है आपने मानव मन की,
निज बंधुओं से जो भेद हुआ,
दिल रोया, तुझे न क्लेद हुआ,
स्वाभिमानी ,ओ सिद्ध प्रखर!
इस विश्व में किसके लिए रहूँ।
ओ मेरे संशय, मेरे निर्णयकर!
निस्संदेह मैं तेरे वश में हूँ-
यही दुविधा है, तुझे क्या कहूँ।
बेहतर रचना...शब्द कम है कुछ भी कहने के लिये...
सुनीता(शानू)
तन्हा जी,
आपकी कविता में आपने मानव की संशयपूर्ण मनोस्थिति को बहुत सुंदर अभिव्यक्ति दी है। हालाँकि वैचारिक स्तर पर मैं आपसे सहमत नहीं हो सकता, परंतु आपकी रचना निसंदेह उच्चकोटि की है। बधाई स्वीवारें।
निज बंधुओं से जो भेद हुआ,
दिल रोया, तुझे न क्लेद हुआ,
स्वाभिमानी ,ओ सिद्ध प्रखर!
इस विश्व में किसके लिए रहूँ।
यह मर्त्यलोक जिसकी थाती,
नहीं महिमा तुझे उसकी भाती,
सुन, सर्वशक्तिशाली प्रभुवर !
अब खुद को मैं किस तरह लहूँ ।
bahut hi umda lines hain...meri aapko haardik shubhkaamnaayein!!
तनहा जी
क्षमाप्रार्थी हूँ देर से टिप्पणी करने के लिये। आपकी रचना हमेशा की तरह शसक्त है, बहुत ही स्तरीय।
निज बंधुओं से जो भेद हुआ,
दिल रोया, तुझे न क्लेद हुआ,
स्वाभिमानी ,ओ सिद्ध प्रखर!
इस विश्व में किसके लिए रहूँ।
मेरी कर्मभूमि, मेरा देश यहीं,
धनदेव जहाँ , तू गया वहीं,
ओ धन-कुबेर के प्रिय सहचर!
हूँ टूट चुका, किस ओर ढहूँ।
हर एक प्रशंसनीय रचना पढने के बाद आपके प्रति अपेक्षा और सम्मान बढता जाता है।
*** राजीव रंजन प्रसाद
Gud one dude...Anchal forwarded me this poem.Keep doing gud work...All The Best!
Meri hindi acchi nahi hai,esliye english main likha hai ;-)
kavita padhte hue mujhe MPD ( multi personality disorder) ki yaad aa gayi. Har aadmi men kahin na kahin ek dusra aadmi bhi waas karta hai, aur in donon ki uljhan hin manushya ka antardwandya hai, mujhe aapki kavita men is baat ki bharpur jhalak milti hai. jise aapne 'shanshay' shabd ki sangya di hai shayad wahi mera 'antardwadya' hai.
I liked the poem.
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