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Sunday, May 27, 2007

अभी उम्मीद नजर आती है......।


मेरे कस्बे के घर से,
दिल्ली तक।
एकदम तड़के,
एक रेलगाडी चलती है।
सुबह-सवेरे,
टिकट खिड़की पर,
छोटी-छोटी सड‌कों पर,
आपा-धापी चलती है।

कुछ साधू,
कुछ नमाज़ी,
कुछ सरदार,
और कभी कभी एक-दो सर और सिस्टर,
आपस में बतियाते हैं।
सडक, बिजली, पानी,
नई-नई सरकार और घूस के व्यवहार पर
चिंता जताते हैं।

कुछ चश्मिश चेहरे,
नई उम्र के,
रोज भागते हैं दिल्ली,
कुछ पढ़ने,
दुनिया से लड़ने,
कुछ कमाने, रूठने-मनाने,

एक बाप की बड़ी बेटी एम्स में भरती है।
दूसरे को छोटी के ब्याह की जल्दी है।

कुछ थैले लटकाकर दिल्ली आ रहे हैं,
तो कुछ मुँह लटकाकर।
कुछ बूढे,
कुछ बच्चे,
कुछ अधमरे जवान,
और कभी कभी मैं भी
'दिल्ली' हो आता हूँ।
धक्का देकर,
गाड़ी में चढ जाता हूँ।

लोहे की सीधी पटरियों पर सरकते-सरकते
जब थक जाता हूँ
तो कुछ पेड़ दिखाई देते हैं
तब थकान काफूर हो जाती है।
चिंता मिट जाती है।
सीट को लड़ते-लड़ते
जीने की उम्मीद नजर आती है।

बचेगा क्या......?

सोचता हूँ,
खुरच कर मिटा दूँ
उस रात के निशां,
अपने जिस्म से
हटा दूँ सारे पैबंद,
तेरे नाम के-
अपनी हर कविता से।
तोड़ दूँ वो हर कड़ी,
जो भेज देती है वहीं।
अब छोड़ भी दूँ तेरा साथ
तेरे जाने के बाद।
एक वो सादा-सा चेहरा,
जी तलक जो जा छिपा है,
सोचता हूँ ढूँढ लाऊँ,
और दरवाजे चढ़ा दूँ।
सोचता हूँ अब फेंक भी दूँ
बाल जो उलझे हैं, कंघी में ।
कुछ चूड़ियों के टुकड़े संभाले बैठा हूँ अब तक।
तुम्हें याद है, जब जोर से मैंने तुम्हारी कलाई पकड़ी थी।
इतनी ज़ोर से कि....
और वो गुड्डा तुम्हारा...
मेरे पास है,
वो कॉफी का कप,
बिस्किट का रैपर,
तेरी छुई हर चीज़ मेरे पास है।
सोच रहा हूँ
हूँ, सब हटा दूँ।
पर फिर बचेगा क्या......?

देवेश वशिष्ठ 'ख़बरी'
9811852336
(दिल्ली)

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15 कविताप्रेमियों का कहना है :

सुनीता शानू का कहना है कि -

देवेश जी..........सोच रहे है आप कहाँ से कहाँ पहुचाँ देते है हमे कविताओं में...आखिर आज ’खबर’ हमारी दिल्ली आ ही गये...:)
आपने रेलवे स्टेशन का और यात्रा का इतना सुंदर चित्रण किया है कि लगता है हम भी सफ़र कर रहे थे...
एक साथ दो-दो कवितायें...:)
कितनी सुंदर होती है बचपन की यादें और सरल होता है उन्हे समझना आपकी कविता ने ये कर दिखाया है कैसे भूला जा सकता है बचपन...

और वो गुड्डा तुम्हारा...मेरे पास है,वो कॉफी का कप,बिस्किट का रैपर,तेरी छुई हर चीज मेरे पास है।सोच रहा हूँ हूँ, सब हटा दूँ।पर फिर बचेगा क्या......?

बहुत सुंदर है जैसे की आपने हमारे मन के भावों को भी पिरोकर रख दिया है...

सुनीता(शानू)

गौरव सोलंकी का कहना है कि -

अब तक मैंने आपकी दो तीन रचनाएँ पढ़ी होंगी पर इन दोनों का कोई सानी नहीं है।
बहुत सच्ची और आशात्मक रचना है-अभी उम्मीद नजर आती है, और 'बचेगा क्या' में तो बहुत सारा दर्द उड़ेल दिया है आपने।
बाल, चूड़ियों के टुकड़े और रैपर, सब संभाल कर रखिएगा। कभी कभी टूटी हुई चीजें ज़िन्दगी जोड़ने के काम आ जाते हैं।

Reetesh Gupta का कहना है कि -

बढ़िया लिखा है ...बधाई

ghughutibasuti का कहना है कि -

बहुत सुन्दर कविताएँ लिखी हैं आपने ! फिर बचेगा क्या ? बहुत कुछ ! यादें तो नहीं मिटा सकोगे ।
घुघूती बासूती

परमजीत सिहँ बाली का कहना है कि -

सुन्दर भाव पूर्ण रचनाए है।

रंजू भाटिया का कहना है कि -

बहुत ही सुंदर भावों से भारी रचना है .

तेरी छुई हर चीज़ मेरे पास है।
सोच रहा हूँ
हूँ, सब हटा दूँ।
पर फिर बचेगा क्या......?

बहुत सुंदर है....बधाई

विश्व दीपक का कहना है कि -

खबरी भाई बड़ी हीं सुंदर रचना है, दोनों । दूसरी वाली खासी प्रभावित कर गई । हर विधा में आपका बराबर का अधिकार है।
यूँ हीं लिखते रहें ।

Mohinder56 का कहना है कि -

देवेश जी कवितायेँ सुन्दर हैँ, एक एक कर के पढायेँगे तो अधिक आन्न्द आयेगा क्योकि दोनो कविताये अलग अलग विचार लिये होती है.. काक्टेल बन जाती है..
अभी उम्मीद नजर आती है

रेलगाडी का सफर और जिन्दगी का सफर बहुत कुछ मिलता जुलता है, फर्क इतना है कि हम बयाँ कर सकते है, रेलगाडी मूक है

बचेगा क्या

जिन्दगी मेँ आखिर मेँ हिसाब करने पर शून्य ही मिलता है...

सपने मेँ जो बाग लगाये, आँख खुली तो विराने थे, हम भी कितने दीवाने थे

ख्वाब है अफसाने हक़ीक़त के का कहना है कि -

Dear Devesh. Bahut hi sunder Rachnaaye hain. Bahut achhe. Keep it up.

Anonymous का कहना है कि -

ख़बरीजी,

सुन्दर रचनाएँ, दूसरी वाली कुछ ज्यादा युवा मन के कुछ ज्यादा निकट लग रही है, इस कारण सीधे दिल में उतर रही है।

तेरी छुई हर चीज़ मेरे पास है।
सोच रहा हूँ
हूँ, सब हटा दूँ।
पर फिर बचेगा क्या......?

सचमुच, कुछ भी नहीं बचेगा।

बधाई स्वीकार करें।

Gaurav Shukla का कहना है कि -

वाह खबरी जी,
आपकी कविताओं की अपनी विशेषता है
भाषा की सरलता से बहुत आसानी से आत्मासात हो जाती है
बहुत सुन्दर
"बचेगा क्या?" बहुत ही अच्छी है
बधाई
सस्नेह
गौरव

पंकज का कहना है कि -

धक्का देकर,
गाड़ी में चढ़ जाता हूँ।

देवेश जी, सबसे पहले आप को बधाई;
आप में अपनी आलोचना करने का साहस है, इसे और बढ़ाइयेगा।

सोचता हूँ,
खुरच कर मिटा दूँ
उस रात के निशां,
अपने जिस्म से
हटा दूँ सारे पैबंद,
तेरे नाम के-
अपनी हर कविता से।

ये लाइनें तो अच्छी बन पड़ी हैं,
लेकिन क्या आप को लगता है कि ऐसा कर पाना आसान होता है?

शैलेश भारतवासी का कहना है कि -

देवेश जी,

मैं सोचा करता था कि रेल की आपाधापी पर कोई कविता लिखूँ और जैसा लिखना चाहता था कि उसका आपने पहला एपिशोड तो बना दिया है। अच्छा चित्रण किया है आपने। रेल यात्रा का अपने-आप में एक खूबसूरत संसार है।

मगर मुझे दूसरी कविता अत्यधिक पसंद आई। पढ़ते-पढ़ते लगा कि नायक कितना निर्दयी है, नायिका की यादों से छुटकारा पाना चाहता है, लेकिन अंत में आपने चौका दिया है। आप सफल रहे हैं।

SahityaShilpi का कहना है कि -

देवेश जी,
दोनों ही कविताएं बहुत अच्छी लगीं। यूँ ही लिखते रहिये।

राजीव रंजन प्रसाद का कहना है कि -

देवेश जी.
आपकी दोनों ही रचनायें विविध है और बहुत ही अच्छी। जब साधारण से दिखने वाले बिम्ब बडी बडी बातें कहते हों तो स्वत: अच्छी कविता बन जाती है। ऑब्जरवेशन का सही विश्लेषण है आपकी पहली रचना में:

"लोहे की सीधी पटरियों पर सरकते-सरकते
जब थक जाता हूँ
तो कुछ पेड़ दिखाई देते हैं
तब थकान काफूर हो जाती है।
चिंता मिट जाती है।
सीट को लड़ते-लड़ते
जीने की उम्मीद नजर आती है"

दूसरी कविता मन को स्पर्श करती है"
लोहे की सीधी पटरियों पर सरकते-सरकते

"तोड़ दूँ वो हर कड़ी,
जो भेज देती है वहीं"

"एक वो सादा-सा चेहरा,
जी तलक जो जा छिपा है,
सोचता हूँ ढूँढ लाऊँ,
और दरवाजे चढ़ा दूँ।"

"तेरी छुई हर चीज़ मेरे पास है।
सोच रहा हूँ
हूँ, सब हटा दूँ।
पर फिर बचेगा क्या......?"

भावुक होना अच्छे कवि की पहचान है देवेश जी।

*** राजीव रंजन प्रसाद्

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