शब्द पावन, धुन भी पावन
गीत सब नापाक हैं
चेहरे हैं चंचल सभी
पर हृदय अवाक हैं
मौन है मानवता सारी
सर्वहित तो स्वार्थ हैं
स्निग्ध भावों वाले तो
अब अनिच्छित मार्ग हैं
प्रेम के मूल्य में हम
प्राण देते थे कभी
तेरे मेरे नित नए पर
प्यार ये व्यापार हैं
युवक हैं सब सुप्त से
मृत से सब वृद्ध हैं
शिक्षा सिखाती परतंत्रता
सिद्धांत सब स्वसिद्ध हैं
अनंत धैर्य है सभी को
प्रतीक्षा में सब शांत हैं
हर तरफ विप्लव मचा है
मुख सभी के क्लांत हैं
परिवर्तन के फलसफे भी
औपचारिक शोध से हैं
आदर्श हैं बस नाम के
जो भी हैं, अवरोध से हैं
लक्ष्य सब अस्पष्ट हैं
विवेक सबके भ्रष्ट हैं
सत्य की ना चाह कोई
तिमिर पर आकृष्ट हैं
चेतना के रथ में पहिये
भ्रम के संसार के हैं
स्वप्न के सारे घरौंदे
खोखले आधार पे हैं
देह का निमंत्रण ही तो
मेरे युग की प्रीत है
उष्ण है बस देह ही तो
भावनाएं शीत हैं
भूचाल तेरे घर में हो
तो मेरा घर निशब्द है
सो रहा है तू वहाँ
जब मेरे प्राण दग्ध हैं
जल रहे मेरे नयन
तेरे ईंधन का सामान हैं
भूख मिटती ही नहीं
हम सभी शैतान हैं
आ उड़ें, आशाओं के
आकाश में बादल बनें
त्राहि त्राहि करता यह युग
अपना भी अपमान है।
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17 कविताप्रेमियों का कहना है :
apki kavita anawashyak rup se thodi lumbi thi......yakin jaaniye do teen antare nahi bhi hote tho chal jaati.....maine pahli pankti mei thi sabd ka prayog kiya hai,maafi chahunga kyonki koi asar na pada apki kavita se aur wo bhoot kal mei chala gaya......aage se bhi apni kavitayein padhne ka awsar dijiyega,taqi mai ye samajh sakun ki kavita kaise likhi jaati hai...shuqriya
गौरव जी..
कविता पर आपने पकड कहीं भी नहीं छोडी है। आपके स्तर पर कोई भी प्रश्नचिन्ह नहीं लगा सकता। आरंभ से ही कविता प्रभावित करती है:
"शब्द पावन,धुन भी पावन,गीत सब नापाक हैं
चेहरे हैं चंचल सभी, पर हृदय अवाक हैं"
कविता केवल अपनी बात को कलात्मक तरीके से रखना ही नहीं है अपितु वह सफल तब है जब कवि के हृदय के उदगार पाठक के अपने हो जायें। गौरव जी कितनी सहजता और स्तरपूर्णता से कह रहे हैं:
"शिक्षा सिखाती परतंत्रता, सिद्धांत सब स्वसिद्ध हैं"
"परिवर्तन के फलसफे भी, औपचारिक शोध से हैं
आदर्श हैं बस नाम के, जो भी हैं, अवरोध से हैं"
"चेतना के रथ में पहिये, भ्रम के संसार के हैं
स्वप्न के सारे घरौंदे, खोखले आधार पे हैं"
...और इस चिंता में कितना सुन्दर समाधान समाहित है देखें:
"भूचाल तेरे घर में हो, तो मेरा घर निशब्द है
सो रहा है तू वहाँ, जब मेरे प्राण दग्ध हैं"
"जल रहे मेरे नयन, तेरे ईंधन का सामान हैं
भूख मिटती ही नहीं, हम सभी शैतान हैं"
"आ उड़ें, आशाओं के, आकाश में बादल बनें
त्राहि त्राहि करता यह युग, अपना भी अपमान है।"
यही धार लेखन में बनायें रखें।
सस्नेह।
*** राजीव रंजन प्रसाद
namaskar gaurv jee
apki kavita sarahniya hai...apke sabdo or bhavo me adbhut santulan hai...par mere vichar se agar iska shirshak kuch or rakha jata to wo sone pe suhaga hota.. agar iska saransh nikala jay to yeh kavita aaj ke yug or aaj ki pidhi ko ujagar karti hai..phir isko mere se sambodhit karna uchit nahi hai..isse iss kavita ki bhavnaye kisi ek waykti visheh tak simit hokar reh jati hai...atah apse anurodh hai ki in bato ka smaran rakhe..
par apka prayas nischay hi ullekhniya hai..
---khushboo
बहुत ही ख़ूबसूरत रचना है जी ...
लक्ष्य सब अस्पष्ट हैं
विवेक सबके भ्रष्ट हैं
सत्य की ना चाह कोई
तिमिर पर आकृष्ट हैं
चेतना के रथ में पहिये
भ्रम के संसार के हैं
स्वप्न के सारे घरौंदे
खोखले आधार पे हैं
behad khubsurat rachna hai jitni tarif karu vo kam hai sabdo ka chunav kafi achchha hai
गौरव जी,
आपकी कविताएँ हमेशा ही मुझे आश्चर्य मे डालती हैं। आपका प्रजेनटेशन बहुत खूबसूरत है। जब कहने को बातें बहुत थीं तो कविता तो लम्बी होनी ही थी। इस विषय पर तो महाकाव्य भी लिखा जाय तो आश्चर्य नहीं।
कितना भयानक सत्य है-
युवक हैं सब सुप्त से
मृत से सब वृद्ध हैं
शिक्षा सिखाती परतंत्रता
सिद्धांत सब स्वसिद्ध हैं
लाजवाब स्टाइल आपका-
देह का निमंत्रण ही तो
मेरे युग की प्रीत है
उष्ण है बस देह ही तो
भावनाएं शीत हैं
इससे तो आजकल हर संवेदनशील क्षुब्ध है
भूचाल तेरे घर में हो
तो मेरा घर निशब्द है
सो रहा है तू वहाँ
जब मेरे प्राण दग्ध हैं
अच्छी बात की आप हमेशा की तरह एक सीख भी बाँट रहे हैं-
आ उड़ें, आशाओं के
आकाश में बादल बनें
त्राहि त्राहि करता यह युग
अपना भी अपमान है।
Shayad aapko mere comments pasand na aayen.Kavita mein nirasha adhik hai,aur vichar dhara bahut purani hai.Shabd anavashyak roop se kathin prayog kiye hain.Ek bahut purana geet yaad aa gaya..dekh tere insaan ki haalat kya ho gayi bhagwan,kitna badal gaya insaan...saral shabd,aur us waqt ke hisab se naye vicharon ka yeh ek achcha udharan hai.
गौरव जी, रचना सुंदर है पर निस्संदेह आपके स्तर से कुछ नीचे है। कुछ और मेहनत से बात बन सकती थी। कुछ पँक्तियाँ प्रभावित करतीं हैं।
भूचाल तेरे घर में हो
तो मेरा घर निशब्द है
सो रहा है तू वहाँ
जब मेरे प्राण दग्ध हैं
Mitr !
Ausat manoranjan ke star se oopar ud kar; Manveey-Sarokaron se jure AtiSanvedansheel Vishay ki or aapne na keval drashtipat kiya hai varan jan-jagrati hetu nij kavy-dharm ka anupalan kiya hai jo ki nishhay hi Sarahna aur Sameeksha ki aapeksha ANUKARNEEY hai.
Aapke Bhav pavitr hain aur Yug-Pariwartan ki Aag hetu Eedhan !
Aapke Shabd sateek aur makool !
Samaj ko darpan dikhati aapki Kavy-shaili ek santulit sameekshak ki si prateet hoti hai.
Badalte Daur men Kavy aur Kavi ki Bhoomika bhi Parivartansheel honi hi chahiye. - MaunBhavnaaon ki hilor leti nadi ke do vipreet kinaron pe khare snehil Hridyon ko nikat lane men kavy shabd roopi setu bandh kar Abhiyatrik ki bhoomika nibhata hai.
Sadharan sthiyon men matr darpan dikha kar kam chala leta hai.
aur Vikat Sthitiyon men Kavy ek Shaly-Chikitsa bhi hai; Aawashyaktanusar Kavi Shaly-Chikitsak ki Bhoomika bhi nirwah kar sakta hai aur tab Sabd uske Auzar hote dikhe hain; Itihas sakshi hai.Yah baat aapko spasht honi chahiye.
ShubKamnaon Sahit -
Vinay Kumar 'Aapka ek Pathak'
AAPKI KAVITA BAHUT SUNDAR BAN PADI HAI....rythm aur emotions ka sahi maap tol hai....is kavita ki koi bhi pankti isliye nahi liki hai yahaan...kyunki nbaaki panktiyon ke saath naainsaafi hogi.....
keep writing.
God Bless You
aapki Kavita "Mera Yug"
shrestha hindi kavitau mai ek jagah banati rachna hai.iski line
शिक्षा सिखाती परतंत्रता, सिद्धांत सब स्वसिद्ध हैं"
to jeevan roop sai vartaman yug ki poll khao rahi hai.
aapka kavya satar shaitya ki rachnadharmita ko uchaiiya pradan karta hai isme koi do raya nahi hai.antar man ko chu ta ek band
"भूचाल तेरे घर में हो, तो मेरा घर निशब्द है
सो रहा है तू वहाँ, जब मेरे प्राण दग्ध हैं"
"जल रहे मेरे नयन, तेरे ईंधन का सामान हैं
भूख मिटती ही नहीं, हम सभी शैतान हैं"
"आ उड़ें, आशाओं के, आकाश में बादल बनें
त्राहि त्राहि करता यह युग, अपना भी अपमान है।"
kavita ko dil ki gaharaiyo tak pahuchata hai.
Sadhuvad
aapka
संजय बाफना
(sanjay bafna)
bhai gaurav tum hamesha ki tarah acche ho bas kuch line really kaphi acchi hain per ye apki best nahin hai thoda ghar main batih ker nirasha vadi kavita kyuon likhte ho thoda postive thinking wali kavita likho
per overall a good effort
but your numero uno still to come
गौरव जी,
आपके स्तर के कवि कम ही दिखने को मिलते हैं
इस कविता में भी कहीं कोई कमी नहीं, उत्क़ृष्ट
कविता के माध्यम से आपने अपनी बात प्रभावी तरीके से रखी है
बहुत सुन्दर लिखा है
बधाई
सस्नेह
गौरव शुक्ल
गौरव जी रचना बहुत सुन्दर और प्रभावशाली है...
सबसे खूबसूरत ये पक्तियाँ लगी है
आ उड़ें, आशाओं के
आकाश में बादल बनें
त्राहि त्राहि करता यह युग
अपना भी अपमान है।
बहुत-बहुत शुभ-कामनाएँ
सुनीता(शानू)
स्निग्ध भावों वाले तो
अब अनिच्छित मार्ग हैं
बेबाक टिप्पणी।
nissandeh aapka kavya kaushal apne hi star ka hai.parantu aapki yeh kavita prabhavit nahi lagti yeha bahut hi deergh bojhi aur ubau hai
ham aapko batate hain ki kavita ka swaroop kaisa hona chahiye
billi boli myau myau
kutta bola bhou bhou
bhains boli main kya khaun
gaurav bola aa tujhe mada sa gobar khilaoon
acchi hai naa u can also comment me
plz my email id is ankur2525@yahoo.co.in
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)