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Wednesday, May 30, 2007

एक शरारत बचपन में


मैंने की थी एक शरारत बचपन में।
अब समझा मैं,वो थी मोहब्बत बचपन में।

धुँधली है तस्वीर मगर भूली ही नहीं,
आयी थी मन में मेरे जो बचपन में।

बोली क्या हँसना-चलना तक याद नहीं,
याद रहीं जो देखी आँखें बचपन में।

रूठे तो होंगे ही एक-दूजे से,
याद नहीं कब-कैसे मनाया बचपन में।

सारी दुनिया लगती मुझको बदली-२ नयी-२,
काश कि हम फिर मिल पायें,वैसे जैसे बचपन में।

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7 कविताप्रेमियों का कहना है :

आर्य मनु का कहना है कि -

क्या बात है॰॰॰॰ऍक बार फिर बचपन की याद हो आई।
वस्तुतः हम चाहते है कि हमारा बचपन हम में हमेशा ज़िन्दा रहे, और अगर फिर उसमें किसी और की भी खोज हो तो कहने ही क्या॰॰॰॰
रचना अच्छी बन पडी है, बस अर्थों को समझने की क्षमता होनी चाहिये।

राजीव रंजन प्रसाद का कहना है कि -

पंकज जी,

भाव अच्छे है। कुछ पंक्तियाँ बहुत अच्छी बन पडी हैं जैसे:

"धुँधली है तस्वीर मगर भूली ही नहीं,
आयी थी मन में मेरे जो बचपन में।"

"बोली क्या हँसना-चलना तक याद नहीं,
याद रहीं जो देखी आँखें बचपन में।"

आपसे और उम्मीदें हैं पंकज जी।

*** राजीव रंजन प्रसाद

SahityaShilpi का कहना है कि -

सुंदर रचना, पंकज जी।

परमजीत सिहँ बाली का कहना है कि -

बहुत सुन्दर रचना है।

रंजू भाटिया का कहना है कि -

सुंदर रचना है ..बचपन याद आ गया :)

Anupama का कहना है कि -

बोली क्या हँसना-चलना तक याद नहीं,
याद रहीं जो देखी आँखें बचपन में।
nice poem...keep writing

सुनीता शानू का कहना है कि -

वाह पंकज जी...सुंदर रचना लिखी है...
भाव बेहद अच्छे है। कुछ पंक्तियाँ बहुत अच्छी बन पडी हैं जैसे कि...

"धुँधली है तस्वीर मगर भूली ही नहीं,
आयी थी मन में मेरे जो बचपन में।"

"बोली क्या हँसना-चलना तक याद नहीं,
याद रहीं जो देखी आँखें बचपन में।"


आपको बहुत-बहुत बधाई

सुनीता(शानू)

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