हिन्द-युग्म के पिछले माह की प्रतियोगिता की यूनिपाठिका 'सुनीता चोटिया (शानू)' ने भी यूनिकवि प्रतियोगिता में भाग लिया था। इनकी कविता 'कुछ तो पौरूष की बात करो' को प्रथम चरण के एक निर्णयकर्ता ने ८ अंक दिए थे, लेकिन दूसरे चरण के निर्णयकर्ता शायद कुछ और ढूँढ रहे थे। हम यह कविता पाठकों के समक्ष लेकर आये हैं। पढ़े और आनन्द लें।
कुछ तो पौरूष की बात करो
पुरूष हो तुम, कुछ तो पौरूष की बात करो,
अपने हाथों पुरूषत्व का न अपमान करो।
हर बार तुम्हीं ने, माँ शक्ती का आव्हान किया है,
जब-जब तुम पर विपदा आई, माँ शक्ती को याद किया है।
उस शक्ती-रूपेण नर्मदा का, यूँ न बहिष्कार करो,....
पुरूष हो तुम कुछ तो पौरूष की बात करो........
अंधे भारत की इस राज-सभा में, द्रोपदी को कौन बचाएगा,
है कौन यहाँ, जो कृष्ण-सा है, अबला की लाज बचाएगा,
आज सुदर्शन चक्र बनो तुम, दुष्टों का संघार करो....
पुरूष हो तुम, कुछ तो पौरूष की बात करो....
जिसने अपना सर्वस्व तुम्हें दे, पुरूषत्व को सम्मान दिया,
छिपा अंतस में दर्द-संताप, सभी जीवन भर का साथ दिया,
अहंकारी बन वसुंधरा का, यूँ न अपमान करो....
पुरूष हो तुम, कुछ तो पौरूष की बात करो....
जिस नारी ने हर रूप में, अपना कर्तव्य निभाया है,
आज उसी नारी को तुमने, सरे बाज़ार नचाया है
अत्याचार,अपमान सहकर भी जिसने,उपवन सजाया है,
आज निपट अज्ञानी बन, मत लक्ष्मी का अपमान करो...
पुरूष हो तुम, कुछ तो पौरूष की बात करो....
अपने हाथों पुरूषत्व का न अपमान करो ॥
कवयित्री- सुनीता चोटिया (शानू)
नई दिल्ली
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36 कविताप्रेमियों का कहना है :
नारी के जिस रूप को आपने छुआ है सुनीता जी वह बहुत ही अनूठा है
जिस नारी ने हर रूप में, अपना कर्तव्य निभाया है,
आज उसी नारी को तुमने, सरे बाज़ार नचाया है
अत्याचार,अपमान सहकर भी जिसने,उपवन सजाया है,
आज निपट अज्ञानी बन, मत लक्ष्मी का अपमान करो...
यह पंक्तियाँ दिल को छुने वाली है ...
अहंकारी बन वसुंधरा का, यूँ न अपमान करो....
पुरूष हो तुम, कुछ तो पौरूष की बात करो....
पंक्तियां झकझोरती हैं।
भाव सुन्दर हैं परन्तु अभीलाषा व्यर्थ है अब
पुरूष हो तुम, कुछ तो पौरूष की बात करो,
अपने हाथों पुरूषत्व का न अपमान करो।
पौरुष................................
.......असंभव यहां पुरूष कहां हैं
आपकी कविता बहुत ही प्रंशागिंक है। आज के समाज मे भी ऐसे तत्व विद्यमान है। सही अर्थो मे अचछी रचना
बधाई
सुन्दर भावप्रद रचना है
सुन्दर रचना है सुनीता जी,
कभी कभी तो नारी की वीरता पौरूष को भी लज्जित कर देती है
इस सँसार मे सब कुछ विद्यामान है पौरूष भी है.. परन्तु प्रत्येक व्यक्ति के साथ जो घटित होता है वह उस के प्रारब्ध का लेख होता है.. इस के लिये किसी को दोष देना व्यर्थ है.
कविता सुन्दर है सुनीता जी
अपनी बात पहुँचाने में समर्थ है
हार्दिक बधाई
सस्नेह
गौरव
कविता अच्छी है...प्रशंशनीय है, और सबसे खास बात प्रसंग को खोने नहीं देती, पर नारी के हित पुरुषों को ही जागरूक होने की बात कहां है, जागरुकता तो स्त्रियों मे भी चाहिये...मुझे तो एक व्यंग दिखता है..कुछ तो पॊरुष की बात करो में.. इतना तीखा कि शब्ध पढते पढते चुभते से हैं,भले ही अधिकतर गति भटक रहे हों या तुक भिड़ाने मे, पन्क्तियां अनियन्त्रित हो रही हों...
"जिसने अपना सर्वस्व तुम्हें दे, पुरूषत्व को सम्मान दिया,
छिपा अंतस में दर्द-संताप, सभी जीवन भर का साथ दिया,"
बहुत खूब!
अच्छी कोशिश की है, पर कविता उपदेशात्मक हो गयी है(ये मेरा व्यक्तिगत मत है)
sunita ji ki kavita soye huye purush ko jagane ka marg hi. mughe unki chand linen bahut hi aachi lagi hai...............................जिस नारी ने हर रूप में, अपना कर्तव्य निभाया है,
आज उसी नारी को तुमने, सरे बाज़ार नचाया है
अत्याचार,अपमान सहकर भी जिसने,उपवन सजाया है,
आज निपट अज्ञानी बन, मत लक्ष्मी का अपमान करो..............
bahut sunder hai
अच्छा है॥
आप ने बोध पर कविता लिखी है। कहीं कहीं बातें दोहराई गई ऐसा लगता है। अर्थ हानि हुए बिना कुछ शब्द कम किये जा सकते थें।
लिखते रहिये, आप की कविताओं का हमे और ईंतज़ार रहेगा।
बधाई।
रंजना जी के मत से मेरा मत ज़रा अलग है। मेरा मत है कि नारी के जिस रूप को आपने छुआ है सुनीता जी आज की नारी इतनी कमज़ोर नहीं है---कि उसको पुरूष के पौरूष पर निभॆर रहना पढे़।
जहां तक कविता की बात है--सुंदर है--अति सुंदर है ।
विनोद
सुनीता जी सुन्दर रचना है .... मन को छू लिया आपने
Sunita ji:
Kavita sundar hai. Bhaav bhi achhe hain. Vishesh kar ye panktiya achhi lagi...
अहंकारी बन वसुंधरा का, यूँ न अपमान करो....
पुरूष हो तुम, कुछ तो पौरूष की बात करो....
Sundar rachna ke liye bahut badhai. Aage bhi aapki rachnayon ka intzar rahega.
शानू जी अच्छा प्रयाश है
पौरुष व्यापक है उसे नारी का सम्मान करना ही चाहिये
यदि मान लिया जाये नारी अबला है तब तो उसका दायित्व विशद हो जाता है । शब्द सूझ नही रहे है साधुवाद
बहुत सुन्दर कविता ! किन्तु पौरूष के बहुत से रूप होते हैं । सबसे सरल रूप है शक्ति परीक्षण का !
घुघूती बासूती
सुनीता जी,
सर्वप्रथम तो क्षमा प्रार्थी हूँ कि आपके लिंक मिलते रहने के बाद भी मै आपने निजी ब्लॉग पर टिप्पणी न कर सका, पिछले पंद्रह दिनों मेरी व्यस्तता इसका कारण है, किंतु आपकी आगामी कविताओं को यह शिकायत नहीं होगी।
"कुछ तो पौरुष की बात करो" एक अच्छी रचना है। तथापि पुरुषत्व एक भाव है उसका पुरुष और नारी से कोई लेना देना नहीं। हाँ आज पुरुषों में पौरुष कुछ कम और नारियों में अधिक हो गया है।
हर लिहाज से अच्छी रचना।
*** राजीव रंजन प्रसाद
सुनीता जी! आप जो कहना चाहती थीं,सशक्त भाव से कह दिया.
सादर
प्रवीण
हाँ, पुरूषत्व को रीडिफ़ाइन करने की ज़रूरत है। महिलाओं का उत्पीड़न कई बार पुरूषों ने पुरूषार्थ के नाम पर ही किया है। मध्यकाल में तुलसीदास जैसे महाकवि ने भी लिखा था-
ढोल गँवार शुद्र पशु नारी
यह सब ताड़न के अधिकारी।
मगर समय बदल रहा हूँ, हाँ गति थोड़ी धीमी है।
Sunder Chitran Kiya hai...
जिस नारी ने हर रूप में, अपना कर्तव्य निभाया है,
आज उसी नारी को तुमने, सरे बाज़ार नचाया है
बहुत खूब!!!! बधाई !!!!
सुनीता जी
भाव सुन्दर हैं
अचछी रचना
हार्दिक
बधाई
अच्छी रचना है।बधाई।
पुरूष हो तुम, कुछ तो पौरूष की बात करो,
अपने हाथों पुरूषत्व का न अपमान करो।
हर बार तुम्हीं ने, माँ शक्ती का आव्हान किया है,
जब-जब तुम पर विपदा आई, माँ शक्ती को याद किया है।
sunita ji aapki rachna nirali hai. aapne purushatva per ek karara tamacha mara hai. ye sach hai ki nari ka samman hona chahiye. vah ma hai, janani hai, bahin hai, dost hai. sabhi kuch hai. nari ko uchit samman milna chahiye.
pawan sharma
सुनिताजी,
कविता में जो आव्हान आपने किया है मैं उसका समर्थन करता हूँ, पुरूषों को पुरूषत्व का सम्मान करना चाहिये, उसकी मर्यादा का पालन करना चाहिये। आपकी कुछ पंक्तियाँ विशेष रूप से चुभती है, जैसे -
उस शक्ती-रूपेण नर्मदा का, यूँ न बहिष्कार करो,....
अहंकारी बन वसुंधरा का, यूँ न अपमान करो....
बधाई!!!
सुनिता जी कविता अच्छी है. बधाई.
आपकी कविता को पढ कर मेरे मन में जो विचार आए उनसे एक भाव प्रधान रचना का जन्म हुआ. आप पढ कर टिप्पणी देंगी तो अच्छा लगेगा
nice written really appreciatable
keep on...
sabse pahale aap ko ek sundar rachna ke liye badhai.....
Aur fir ek sach jo hum kisi ko aropit karne se pahle kabhi sochte tak nahi hai.
Agar thesh pahoonche to chhama prarthi hoo.
khud pattha par mare pair,
ye kaam nahi hai mardon ka.
menaka na bane agar koi ,
fir vishwamitra nahi janta.
Gar sita ko chhu lene se,
Rawan ka ant sunischit tha,
fir to Sita ko harne me,
Sita ki shamil thi ichchha.
halat nahi paida honge,
fir har nar me hanuman honge,
jahaan ek afshara janmegi,
dus indra wahin paida honge.
अत्याचार,अपमान सहकर भी जिसने,उपवन सजाया है,
आज निपट अज्ञानी बन, मत लक्ष्मी का अपमान करो...
पुरूष हो तुम, कुछ तो पौरूष की बात करो....
अपने हाथों पुरूषत्व का न अपमान करो ॥
अति सराहनीय रचना ...सरल शब्दों के साथ अपनी बात को कविता मे कहना आसान नहीं होता..सुंदर संदेश लिये आपकी यह कविता अच्छी लगी .....बधाई
hhmmmmmmmm
acchaa likhaa hai, jo kahnaa chaahti hain .. kahh paa rahii hain aap ...
likhti rahiye.
अच्छी और विचारोत्तेजक रचना है। काव्यात्मक दृष्टि से कहीं कहीं रवानगी की कमी खटकती है, पर कुल मिलाकर कविता अपना प्भाव छोड़ने में सफल है।
सुनिता जी , नारी के दुख का कुशल चित्रण है | आज हांलाकी नारी उतनी असहाय नही रह गई है जैसे की पहले कभी थी फिर भी पुरूष के अहंकार का शीकार नारी आज भी होती है और समाचार पत्रों मे इसका लेखा आसानी से पढा जा सकता है अत: ये कविता उन तथाकथी पुरूषो को शायद कुछ विचार करने की प्रेरणा दे |
सुनीता जी, पुरुष के पौरुष को तो आदिकाल से नारी की ही संजीवनी पोषित करती रही है।दंभ और अहंकार ने उसे
समय के साथ उसे भटका दिया है।भौतिकता मे आकंठ डूबे समाज मे मूलभूत सुधार की ज़रुरत है।
Dr.R Giri
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