दुश्मन हैं मेरे, तेरे पग के नूपुर-
तेरे संग जो दो पल रह लूँ मैं,
मौसम को भी ये भरमाते,
कण-कण में कल-कल जड़ देते,
ध्वनियों को हैं ये मदमाते,
कदमों को तेरे अल्हड़पन दे,
मेरे धैर्य पे हैं ये मुस्काते,
तेरे नयनों में शर्म जगा-
बेशर्म से हैं ये इठलाते ,
मेरे दिल में भर देते फिर ये-
कंपन बहुतेरे, तेरे पग के नूपुर,
दुश्मन हैं मेरे, तेरे पग के नूपुर।
जब शांत समय को पाकर मैं,
तेरे कानों में कुछ कहता हूँ,
जब हवा चुपके से आती है,
उससे छुप कर मैं रहता हूँ,
फिर तेरी हंसी में जग अपना,
खोता हूँ, उसमें बहता हूँ,
और तेरे बदन में सिहरन को,
अपनी सिहरन से लहता हूँ,
उस पल क्यों, अपने राग में ही-
धुन हैं छेड़े , तेरे पग के नूपुर,
दुश्मन हैं मेरे, तेरे पग के नूपुर।
जब अपनी चाहत के पथ से,
हूँ छाँटता अनुचित बातों को,
जब प्रीत से विमुख हर दिल से,
हूँ काटता चोटिल घातों को,
जब रंग सपनों के देता हूँ,
अपने दिन-अपनी रातों को,
जब तेरी बाहों में खोकर,
खोता हूँ अपनी मातों को,
उसपल हीं क्यों रूनझून करते--
उलझन हैं रे, तेरे पग के नूपुर,
दुश्मन हैं मेरे, तेरे पग के नूपुर।
कवि- विश्व दीपक 'तन्हा'
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24 कविताप्रेमियों का कहना है :
बहुत ही सुन्दर रचना है।मन को छूती हुई-
जब शांत समय को पाकर मैं,
तेरे कानों में कुछ कहता हूँ,
जब हवा चुपके से आती है,
उससे छुप कर मैं रहता हूँ,
फिर तेरी हंसी में जग अपना,
खोता हूँ, उसमें बहता हूँ,
और तेरे बदन में सिहरन को,
अपनी सिहरन से लहता हूँ,
उस पल क्यों, अपने राग में ही-
धुन हैं छेड़े , तेरे पग के नूपुर,
दुश्मन हैं मेरे, तेरे पग के नूपुर।
तनहा जी..
रचना बहुत सुन्दर है। कविता का प्रवाह देखते ही बनता है।
"मेरे दिल में भर देते फिर ये-
कंपन बहुतेरे, तेरे पग के नूपुर"
"जब रंग सपनों के देता हूँ,
अपने दिन-अपनी रातों को,
जब तेरी बाहों में खोकर,
खोता हूँ अपनी मातों को,
उसपल हीं क्यों रूनझून करते--
उलझन हैं रे, तेरे पग के नूपुर,
दुश्मन हैं मेरे, तेरे पग के नूपुर"
बहुत बधाई आपको।
*** राजीव रंजन प्रसाद
अभिनन्दन दीपक जी (दीपक नाम मुझे अच्छा लगा आपको पुकारने के लिये)
बहुत प्रतीक्षा करवाई आपने, लेकिन यह भी स्पष्ट हुआ कि सब्र का फल मीठा ही होगा
अप्रतिम रचना, हर दृष्टि से उत्तम
पसन्द आयी
आभार इसलिये की प्राथमिकता भावों को ही देते हैं आप
"कण-कण में कल-कल जड़ देते"
"और तेरे बदन में सिहरन को,
अपनी सिहरन से लहता हूँ"
"खोता हूँ अपनी मातों को,
उसपल हीं क्यों रूनझून करते--
उलझन हैं रे, तेरे पग के नूपुर"
सारे बिम्ब बहुत सुन्दर और स्पष्ट हैं
हाँ, न जाने क्यों प्रवाह कहीं-कहीं मुझे भ्रमित सा लगा किन्तु वह महत्वपूर्ण नहीं है
१०.५/१० :-)
आनन्दम्
धन्यवाद
सस्नेह
गौरव शुक्ल
कहां उलझे हैं भाई
बहुत सुंदर! आप तो घुँघरूओं की झन्कार में विलीन हो गये लगते है,..और एसे कविता में हम खो गये है की चारो तरफ़ हमे भी घुँघरूओ की आवाज़ ही सुनाई दे रही है....:)
उलझन हैं रे, तेरे पग के नूपुर,
दुश्मन हैं मेरे, तेरे पग के नूपुर।
वाह क्या बात है?
बहुत-बहुत बधाई
सुनीता चोटिया(शानू)
आनन्द आ गया तन्हाजी,
कविता में प्रवाह गजब का है, रोम-रोम खिल उठा है... बधाई!!!
दिवानी कविता है। बधाई।
बहुत ही मीठी सुर सच में घुंघरू सा एहसास लिए हैं यह आपकी रचना
एक ही साँस में पढ़ी गयी और बहुत ही माधुर झंकार दिल में छोड़ गयी ...
जब रंग सपनों के देता हूँ,
अपने दिन-अपनी रातों को,
जब तेरी बाहों में खोकर,
खोता हूँ अपनी मातों को,
उसपल हीं क्यों रूनझून करते--
उलझन हैं रे, तेरे पग के नूपुर,
दुश्मन हैं मेरे, तेरे पग के नूपुर"
इसके भाव बहुत ही सुंदर है
दीपक भैया,
आज का तो पहला एक्सपीरियन्स ही खराब हो गया अपना।(आपके उपर वाली रचना मेरी ही है)
बडी मेहनत से लम्बी सी कविता गढी थी, पर हम आत्म मुग्ध हो गये और कोई भी टिपियाने नहीं आया।
दो चार सिग्नेचर मिले भी, तो वो भी अपनों के ही।
खैर चलो कुछ यूँ कर लें तुम हमें टिपिया लो, हम तुम्हैं टिपिया लें।
आपकी कविता वाकायी स्तरीय है ।
तन्हा जी,
यह आपकी ख़ास बात ही है कि शृंगारिक वस्तुओं पर भी आपने कविता बिलकुल नये अंदाज़ में की है। निम्न पंक्तियाँ आपको श्रेष्ठ कवि बनाती हैं-
जब तेरी बाहों में खोकर,
खोता हूँ अपनी मातों को
बढ़िया गीत है।
सर्वप्रथम मैं शैलेश जी का शुक्रिया अदा करता हूँ, जिन्होंने मेरी कविता के आप सब के सम्मुख पहुँचाया। चूँकि मैं रविवार के दिन अंतरजाल पर उपलब्ध नहीं हो पाऊँगा, अत: 7 जुलाई तक मेरी कविता इन्हीं के माध्यम से आएगी।
कविमित्रों और पाठकगण का धन्यवाद , जिन्होंने मेरी कविता को इतने चाव से पढा।
तन्हा जी,
मन के करीब के भावों वाली रचना के लिये आप बधायी के पात्र हैं
Bahut Khoobsurat...mann lo chhoolene waali ..kavita likhi hai VD Bhai....
Aapko Bahut Bahut Badhai.....
aisa laga yeh kavita meri jindagi se judi hui hai.. the second paragraph is simple fantastic...
yo vd.. nobel aab duur nehi hai :D
बहुत ही सुन्दर रचना है। मन को छूती हुई, ह्रिद्य मे उतर्ति है
waah !
tum jiyo hazaaron saal shailesh :)
bahut sahii likhi hai .. mujhe kaafi pasand aayii....
kuch mahan kaviyoon se 100 times better.
नमस्ते दीपक जी..
बहुत अच्छी किवता है लय भी बहुत अच्छा ही..
कुच्छ कुच्छ जगह शब्द लय से बाहर गये जैसे:
"फिर तेरी हंसी में जग अपना,
खोता हूँ, उसमें बहता हूँ,"
यहाँ पे 'उसमें' का प्रयोग लय को िबगाड़ सा रहा है
शायद मैने ठीक से िवश्लेषण ना िकया हो.. क्यूँकी मैं इतनी अच्छी नही हू.. किवता गड़ने मे...
बाक़ी आप बेहतर जान सकते हैं|
धन्यवाद :)
sundar rachna...
andar tak
gud-gudatee
chalee gaee..
और तेरे बदन में सिहरन को,
अपनी सिहरन से लहता हूँ,
stariya dhang se
prem ke vishay nen
likhna ..
bahut prabhavit kar gaya..
aapko badhaaee
दुश्मन हैं मेरे, तेरे पग के नूपुर
क्या बात है। एक फिल्मी गाना याद आ गया - ये जो चिलमन है, दुश्मन है हमारी। सुंदर रचना।
VD bhai......AKA "TANHAA" aap ye kahiye ki tanhaa kyun ho aap??
aapki kavitaaye to kahti hai ki har lamha har pal aap UNKE saath h i rahte hai......
aur aapki preyasi bhi aap me itni kho jaati hai ki unke nupuro ko bhi aapse eirshyaa ho gayi........
bahut pyaari RACHNA hai.......
aapne kavita ko kaafi sundarta se PRAVAAH diya hai......
aajkal to bas aapki hi KAVITAAYEn PADHTE hai....n FAN hai aapki rachnaa ke!!!!
AAKHIRI chhand hume kaafi pyaara laga.........
जब रंग सपनों के देता हूँ,
अपने दिन-अपनी रातों को,
जब तेरी बाहों में खोकर,
खोता हूँ अपनी मातों को,
उसपल हीं क्यों रूनझून करते--
उलझन हैं रे, तेरे पग के नूपुर,
दुश्मन हैं मेरे, तेरे पग के नूपुर"
ye waala......
KEEP IT UP!!!!
training tak poori book chhap kar hi laana!!!
BADHAAYI HO!!!!!
"Tere pag ke nupur...."
Is rachna ki har punkti achhi hai...
Deepak ji ne es kavita ke bhao ko bahut hi behtarin dhang se prastut kiya hai..........yah kriti hridaya ko chhoo lene wali hai.....Hindi sahitya ko abhi Tanha ji jaise dridhnischaye lekhako ki jarurat hai....Main aasha karta hun Deepak ji apni kalam ki raftar ko isi tarah banaye rakhenge aur hindi sahitya ko nayi-nayi rachnao se sussajjit karenge......I wish him all the best for his future......
.......randhir
bahut hi saralta purvak aapne bhavo ko kavita mein piroya hai, yah kabile tarif hai, isi tarah utkrish kavita ka raspan karaate rahiye
yoooooo VD
:D
aaj subah jab aankh khuli to bagal ke kamre se payal ki runjhun kanon men kuchh is tarah sama gayi..."chhan chhan baje re payaliya...prit ke geet sunaye re payaliya..." tab laga ye payal bhi kitni manbhawan cheej hai...aur aise hin kitne hin sundar khyal man men aaye..
par VD bhai aapki kavita se jab samna hua to sari galatfahmi thode hi samay men dur ho gayi...jaisa socha tha uske thik ulta...
aapne payal ki run jhun ko dushman ki shreni men aise rakha hai ki padhkar ek nav-vivahita tak ko bhi apne nupur se nafrat ho jayegi.
kavita ke 1st stanza ko chhodkar baki sab bahut hi sundar hai.
agar aap 1st stanza men bhi agar aisa kuchh dal paate to kavita sachmuch men sampurn ho jati..
jaisa aapne 2nd aur 3rd men kiya hai "उस पल क्यों, अपने राग में ही-
धुन हैं छेड़े , तेरे पग के नूपुर.." ya "उसपल हीं क्यों रूनझून करते--
उलझन हैं रे, तेरे पग के नूपुर.." iske viprit aapne likha hai "तेरे नयनों में शर्म जगा-बेशर्म से हैं ये इठलाते ,
मेरे दिल में भर देते फिर ये-
कंपन बहुतेरे, तेरे पग के नूपुर.." jisse dusman hone ki baat bahut saaf nahin ho pa rahi hai..,Sharm to naari ki khubsurti hai kavi ji..,
any way poem is very fantastic........
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