प्रतियोगिता में आई कविता के प्रकाशन की कड़ी में आज बारी है वरुण कुमार की कविता 'स्वदान' की। प्रथम चरण के एक निर्णयकर्ता ने इस कविता को ८ अंक दिये थे और प्रथम एवम् दूसरे चरण के ज़ज़मेंट के बाद यह आठवें स्थान पर रही थी। दूसरे चरण के ज़ज़ ने इस कविता को ७ अंक दिये थे। अब यह कविता वास्तविक निर्णयकर्ताओं पाठकों के समक्ष है।
स्वदान
दिवस के अवसान पर
रात्रि के पायदान पर
जल उठी है शम्मा
बिखर गई हैं किरणें इसकी
करने लगी हैं रौशन
इस भीषण अँधियारे को
भिगोने लगी हैं बरबस
इस चंचल बंजारे को
पतंगे भी फड़फड़ाने लगे
झुंडों में कुछ गाने लगे
उसको देख लौ भी शरमाने लगी
वो भी कुछ गुनगुनाने लगी
यूँ लगा गोपियाँ संग नाच रहे
कृष्ण महारस में
रात्रि भी मुदित क्यूँ
गोपियों की आस में
रात भर यूँ चलता रहा
महारास यह बिखरता गया
एक-एक कर हर पतंगा
ताप में झुलसता गया
रह गई अकेली बेचारी
लौ इस संताप में
क्यूँ करते हैं ये दीवाने
"स्वदान" मेरी माँग में
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11 कविताप्रेमियों का कहना है :
वरुण जी,
कविता यह बता रही है कि आप कविता को ले कर बेहद गंभीर हैं। कविता की रवानगी ही जाहिर कर देती है कि कवि की शब्दों और भावों पर अच्छी पकड है। आपके बिम्बों ने भी आनंदित किया।
"भिगोने लगी हैं बरबस
इस चंचल बंजारे को"
"यूँ लगा गोपियाँ संग नाच रहे
कृष्ण महारास में"
"रह गई अकेली बेचारी
लौ इस संताप में
क्यूँ करते हैं ये दीवाने
"स्वदान" मेरी माँग में"
बधाई स्वीकारें।
*** राजीव रंजन प्रसाद
रात्रि भी मुदित क्यूँ....
यहां कविता थोड़ी झिझक गयी है।
वरूण जी वाकई कविता भाव-पूर्ण है,..पूरी की पूरी कविता इसकदर आपस में जुडी़ हुई है की पढ़ते ही चले गये..कविता बहुत सुंदर और सरल है...
सुनीता(शानू)
सुन्दर लय बद्ध कविता है..
मेरे विचार से पंतगे शम्मा से प्यार नहीं करते.. वो तो अंधेरे से प्यार करते हैं और जैसे ही शम्मा जलती है पंतगे उसे बुझाने चले आते हैं ... हा हा
बहुत सुन्दर रचना है।बधाई।
सुन्दर रचना है।शब्द और भाव अच्छ है।
बधाई ...
महारास यह बिखरता गया
एक-एक कर हर पतंगा
ताप में झुलसता गया
रह गई अकेली बेचारी
जैसे मन की लम्िबत मुराद पूरी हो गई
बधाई
वरुण जी,
सुन्दर रचना......पढते पढते मस्तिष्क मे चित्र उभरते गए....
विषेशकर यहाँ
रात भर यूँ चलता रहा
महारास यह बिखरता गया
एक-एक कर हर पतंगा
ताप में झुलसता गया
रह गई अकेली बेचारी
लौ इस संताप में
क्यूँ करते हैं ये दीवाने
"स्वदान" मेरी माँग में
प्रिया
वरुन जी कविता की शुरुआत विशेष प्रभावी है।
और फिर अंत भी।
रात भर यूँ चलता रहा
महारास यह बिखरता गया
एक-एक कर हर पतंगा
ताप में झुलसता गया
यकीनन अच्छे कवि हैं आप।
कविता का कथ्य, उसकी सोच नूतन होनी चाहिए। आप कुछ हद तक ऐसा करने में कामयाब रहे हैं। आपकी कविता ने दीया की मनोदशा को कुछ हद संप्रेषित किया है। लेकिन मेरे हिसाब से आप दीया की मनःस्थिति को और विस्तारित करते तो कविता और सुंदर बन पाती।
वरुण जी, रचना बहुत सुंदर है। बधाई।
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