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Tuesday, May 15, 2007

और झलक भर.....



आँसू ने कहा मुझको ठहरने दो पलक पर
आँखों को तेरी देख सकूँ और झलक भर
मैं जानता हूँ तुमको कोई ज़ख़्म बड़ा है
फूटेगा किसी रोज़ तो हर एक घड़ा है
लेकिन तड़प किताब के भीतर का फूल है
किसने सहेज कर रखा कोई भी शूल है
आसान है हर गम के पन्नों को पलट दो
फिर जीस्त पर रंगीन सा एक नया कवर दो
गुल की कलम लगाओ, तोता खरीद लाओ
तारों को फूल जैसे सारे बिखेर डालो
मुस्कान की चाभी से घर चाँद का भी खोलो
चाहो तो सूखी आँखों से मन के पास रो लो

लेकिन जो मर गये हैं, वो सपने सहेजते हो
फिर ताजमहल बन कर जीने की हसरते हैं
अपने लहू से गुल को रंगीन कर रहे हो
सुकरात जैसा प्याला पीने की हसरते हैं
तुम मुस्कुरा रहे हो, मैं हो रहा हूँ आतुर
मैं कीमती हूँ कितना, तुमको पता नहीं है
लेकिन कि ठहरता हूँ, पारस है आँख तेरी
बुझती नहीं है सागर, क्योंकर के प्यास मेरी
मैं चाहता हूँ ठहरूँ, उस कोर...वहीं पर
आँखों को तेरी देख सकूँ, और झलक भर.....

*** राजीव रंजन प्रसाद
11.02.2007

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20 कविताप्रेमियों का कहना है :

Tushar Joshi का कहना है कि -

मुझे माफ किया जाए पर मेरी समझ मे कुछ नही आया। कोई साथी इस कविता का रसग्रहण ही कर दे तो शायद कुछ पल्ले पडे़।

राजीव जी आपकी कविताएँ हमेशा तो ऐसी गूढ़ नही होतीं है। आज ना जाने क्या हो गया है के बार बार पढ़ने पर भी मै हार गया।

आपका, तुषार

ऋषिकेश खोडके रुह का कहना है कि -

राजीव जी , क्षमा किजीयेगा किंतू इस बार कुछ कमी सी दिख रही है कविता मे जो आप की लेखनी मे प्रथम ही देख रहा हूं , शब्दों का चयन एवं काव्य का प्रवाह अवरुद्ध सा दिख रहा है , भावनाये द्रृश्यमान तो है लेकीन उसका प्रेषण सुदृढ नही लग रहा |

Gaurav Shukla का कहना है कि -

"आँसू ने कहा मुझको ठहरने दो पलक पर
आँखों को तेरी देख सकूँ और झलक भर"
बहुत सुन्दर
पुनः अनुपमेय बिंबों के असाधारण शिल्पी के हाथों एक अद्भुत रचना का सृजन हुआ है|
किताब के भीतर सहेज कर रखे हुये "शूल" की चुभन के बाद
जीवन को फिर नये आयाम देने का प्रयास आशावादी दृष्टिकोण बनाये रखने की प्रेरणा देता सा लगता है|

"तारों को फूल जैसे सारे बिखेर डालो
मुस्कान की चाभी से घर चाँद का भी खोलो
चाहो तो सूखी आँखों से मन के पास रो लो"

"मैं चाहता हूँ ठहरूँ, उस कोर...वहीं पर
आँखों को तेरी देख सकूँ, और झलक भर....."

पूरी कविता उतरती सी चली गई, इतने प्रबल भाव कागज पर भी उतारे जा सकते हैं कभी-कभी अविश्वसनीय सा लगता है,कविता का प्रवाह कहीं भी रुकने नहीं देता
अद्भुत, कविता पुनः बहुत ही सुन्दर बन पडी है
बधाई स्वीकार करिये प्रभु

सस्नेह एवं साभार
गौरव शुक्ल

Mohinder56 का कहना है कि -

असधारण विचार बिम्ब हैं और सुन्दर श्ब्दों मे आपने व्यक्त किया है

"आँसू ने कहा मुझको ठहरने दो पलक पर
आँखों को तेरी देख सकूँ और झलक भर"

बिछोड और तडफ़ का इजहार

"लेकिन तडफ़ किताव के भीतर का फ़ूल है
किसने सहेज कर रखा कोई भी शूल है"

जो पूरी न हुयी उन इच्छाओं का चित्रण

"लेकिन कि ठहरता हूं, पारस है आंख तेरी
बुझती नही है सागर, क्योंकर के प्यास मेरी"

सुन्दर कविता बन पडी है रंजन जी

CA Vijay Jaiswal का कहना है कि -

"मैं चाहता हूँ ठहरूँ, उस कोर...वहीं पर
आँखों को तेरी देख सकूँ, और झलक भर....."

राजीव जी, आपकी कल्पना, आपके शब्द ... मुझमें सामर्थ्य नहीं की मै टिप्पणी कर सकूं.. लेकिन पूरी कविता के भाव मुझे दृष्यमान हो उठे ऒर मै कल्पना की गहराई में खोता चला गया...
रचना अद्भुत है .. बधाई एवं इतनी सुन्दर रचना के लिए धन्यवाद...

विजय जायसवाल

सुनीता शानू का कहना है कि -

सुन्दर रचना है, बधाई

शानू

देवेश वशिष्ठ ' खबरी ' का कहना है कि -

रंजन भाई, हर बार कुछ नयापन होता है आपकी कविता में, पर अभी लग रहा है कि वो नयापन छायावादी मोड़ ले गया है, हालांकि कविता का सृजन बेजोड है। कविताई इसमें ढेर सारे उपमानों का सुंदर प्रयोग देख पा रही है। नयेपन के लिये बधाई।

रंजू भाटिया का कहना है कि -

मैं जानता हूँ तुमको कोई ज़ख़्म बड़ा है
फूटेगा किसी रोज़ तो हर एक घड़ा है

मुस्कान की चाभी से घर चाँद का भी खोलो
चाहो तो सूखी आँखों से मन के पास रो लो

बुझती नहीं है सागर, क्योंकर के प्यास मेरी
मैं चाहता हूँ ठहरूँ, उस कोर...वहीं पर


राजीव जी आपके द्वारा लिखित यह पंक्तियाँ बहुत सुंदर हैं

पंकज का कहना है कि -

लेकिन तड़प किताब के भीतर का फूल है
किसने सहेज कर रखा कोई भी शूल है
आसान है हर गम के पन्नों को पलट दो
फिर जीस्त पर रंगीन सा एक नया कवर दो
गुल की कलम लगाओ, तोता खरीद लाओ
तारों को फूल जैसे सारे बिखेर डालो
मुस्कान की चाभी से घर चाँद का भी खोलो
चाहो तो सूखी आँखों से मन के पास रो लो

वाह-वाह।
क्या कहने हैं।
बिल्कुल दिल को छू जाने वाली रचना। मानवीकरण का सुन्दर नमूना।

Anonymous का कहना है कि -

फिर ताजमहल बन कर जीने की हसरते हैं
सुकरात जैसा प्याला पीने की हसरते हैं

YEH LINES AAM INSAAN KE LIKHNE KE KAHIN ZYADA PARE HAI.SOCHNA BAR BHI MUMKIN NAHI...tajmahal,sukaarat do cheezen bhedti hai ek to ki mar kar bhi jeene ki iccha aur doosra...zinda rahte hue swa ki icchaaon ko maar dene ki baat...dono poorak nahi hain magar ek hi line dono baat bata deti hai

तुम मुस्कुरा रहे हो, मैं हो रहा हूँ आतुर
मैं कीमती हूँ कितना, तुमको पता नहीं है
लेकिन कि ठहरता हूँ, पारस है आँख तेरी
बुझती नहीं है सागर, क्योंकर के प्यास मेरी
मैं चाहता हूँ ठहरूँ, उस कोर...वहीं पर
आँखों को तेरी देख सकूँ, और झलक भर.....

YEH LINES MAN KO CHEDTI HAI....asuon ko peene ki asadharan kalpana....मैं चाहता हूँ ठहरूँ, उस कोर...वहीं पर
these lines vibrated each n every core of my heart.....now this will be added in the list of one of my favourites.

Tushar Joshi का कहना है कि -

>> मुझे माफ किया जाए पर मेरी समझ मे कुछ
>> नही आया। कोई साथी इस कविता का रसग्रहण
>> ही कर दे तो शायद कुछ पल्ले पडे़।

ab kuch samajh aa rahaa hai shaayad, itane paaThako ne samajhaane ke baad.

विश्व दीपक का कहना है कि -

मैं जानता हूँ तुमको कोई ज़ख़्म बड़ा है
फूटेगा किसी रोज़ तो हर एक घड़ा है

मुस्कान की चाभी से घर चाँद का भी खोलो
चाहो तो सूखी आँखों से मन के पास रो लो

बुझती नहीं है सागर, क्योंकर के प्यास मेरी
मैं चाहता हूँ ठहरूँ, उस कोर...वहीं पर


kya kahoon Rajiv ji. Aap to khushi aur gham donon ke kavi hain. Donon par aapka barabar adhikaar hai. har bhaav bakhuvi khul kar aur nikhar kar aaya hai.

badhai sweekarein.

गीता पंडित का कहना है कि -

bahut sundar kavit ban padee hai...
ek ek pankti andar tak utaratee chalee gaee..
"मैं चाहता हूँ ठहरूँ, उस कोर...वहीं पर
आँखों को तेरी देख सकूँ, और झलक भर....."
bahut sundar bimb...
badhaaee....
aabhaar
sasneh
geeta

SahityaShilpi का कहना है कि -

बहुत सुंदर रचना, राजीव जी। बहुत ही गंभीर भाव। शिल्प की दृष्टि से भी कविता उच्च श्रेणी की है। बहुत बहुत बधाई।

Medha P का कहना है कि -

ना जाने क्या हो गया, मेरी समझ मे कुछ नही आया....किंतू बार बार पढ़ने पर समझ मे आया !:)

"मैं चाहता हूँ ठहरूँ, उस कोर...वहीं पर
आँखों को तेरी देख सकूँ, और झलक भर....."

अद्भुत कल्पना है.

राजीव रंजन प्रसाद का कहना है कि -

प्रिय तुषार जी एवं आदरणीय मेधा जी..

यह सत्य है कि इस बार कुछ बिम्ब मुझसे क्लिष्ठ बन पडे हैं जिसे ग्राह्य कर पाने की दिक्कत को मैं अपनी संप्रेषणीयता की कमी मानता हूँ। गूढ तो नहीं कहूँगा, जटिल अवश्य हो गये हैं।

आँसू की भी अपनी अभिलाषा है, उन आँखों मे ठहरना चाहता है जो दूसरों की पीडा के लिये सुकरात बन कर "ताजमहल" की तरह जीने को उद्धत हैं। समर्पित आँखें ही पारस होती हैं उनपर ठहरे अश्क मोती से क्या कम होंगे? वरना आम जीवन जीना तो आसान है। ज़िन्दगी को पूरे हलके पन से जीना आसान तो है:

"आसान है हर गम के पन्नों को पलट दो
फिर जीस्त पर रंगीन सा एक नया कवर दो
गुल की कलम लगाओ, तोता खरीद लाओ
तारों को फूल जैसे सारे बिखेर डालो
मुस्कान की चाभी से घर चाँद का भी खोलो"

और जिन्हें आसान जीवन पसंद है, जो अपने गम को भुला कर छुटकारा पा कर केवल खुशी के लिये ही जीने को उद्धत है क्या वे "जो मर गये हैं, वो सपने सहेज सकेंगे"? हर आँसू कीमती नहीं होता फिर आँसू को हसरत क्यों न हो कि "पारस आँखो" पर कुछ पल ठहर सके...

*** राजीव रंजन प्रसाद

आशीष "अंशुमाली" का कहना है कि -

हर पंक्ति कुरेद रही है, कुछ कहने को राजीव जी। इतनी प्‍यारी नज्‍म। आपने इस कविता में जिस पीड़ा को जिया है, वह अमर है। धन्‍यवाद।

Anonymous का कहना है कि -

राजीवजी,

बहुत ही खूबसूरत नज़्म लिखी है आपने, आंसूओं को भी इतनी बारिकी से समझना और उसे इस प्रकार नज़्म में पिरोना, वाकई कमाल है!

बधाई स्वीकार करें!

शैलेश भारतवासी का कहना है कि -

राजीव जी,

आपकी यह कविता बहुत ध्यान से पढ़ने पर ही असली रस देती है। आपने बहुत ऊँची बातें लिखी हैं।

अद्‌भुत विश्लेषण-

"लेकिन तड़प किताब के भीतर का फूल है
किसने सहेज कर रखा कोई भी शूल है"


मुस्कान की चाभी से घर चाँद का भी खोलो
चाहो तो सूखी आँखों से मन के पास रो लो

'ताजमहल' और 'सुकरात' उपमाओं के रूप में अद्वितीय प्रयोग हैं।

Anonymous का कहना है कि -

hhmmmm kafi different likhi hai Rajiv ji ye kavitaaa....

hameshaa ki tarhaa sundar likhi hai ....

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