तूलिका ले हाथ में सखि,
मैं तुम्हारा मृदु चितेरा ।
श्वेत पट, नवजात चंचल
जनक द्वय तव हर्ष विह्वल
प्रथम रेखा, पाद कोमल
बढ़ें थिर- थिर, धार उत्कल
मेघ गड़ गड़ , नीर छम- छम
किलकता यह सोम-संगम
चित्रपट पर बाल- छवि मम
बन बनाती नव सवेरा ।
तूलिका ले हाथ में सखि,
मैं तुम्हारा मृदु चितेरा ।
सबल यौवन, वेग भीषण
भर अतुल संकल्प कण-कण
सरित उन्मद सिन्धुधारण
कर्म रत प्रिय श्रेष्ठ कारण
देख शोभित कुसुम सुरभित
भ्रमर नव प्रणयेच्छु पुलकित
नवोत्कृष्ट अश्रांत दर्शऩ ,
खींच जाता चित्र मेरा
तूलिका ले हाथ में सखि,
मैं तुम्हारा मृदु चितेरा ।
वृद्ध वय, नर मूकदर्शक
चक्षु कातर , अचल भरसक
हों अजल ये नीर वर्षक
बोझ जीवन, वहन कबतक ?
रंग धूमिल , मन अचंभित
मन मदान्ध अवाक कुंठित
किस सुरा से रहा वंचित
हाय मधु का पात्र मेरा
तूलिका ले हाथ में सखि,
मैं तुम्हारा मृदु चितेरा ।
- आलोक शंकर
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15 कविताप्रेमियों का कहना है :
" वृद्ध वय, नर मूकदर्शक
चक्षु कातर , अचल भरसक
हों अजल ये नीर वर्षक
बोझ जीवन, वहन कबतक ?
रंग धूमिल , मन अचंभित
मन मदान्ध अवाक कुंठित
किस सुरा से रहा वंचित
हाय मधु का पात्र मेरा
तूलिका ले हाथ में सखि,
मैं तुम्हारा मृदु चितेरा । "
ati ati sundar.
Mera maan-na hai ki lag-bhag sabhi kavi accha likhten hain. Lekin prabhvishnuta sirf kuch main hi hoti' hai, aur aap unmein se ek hain .
Likhte rahiye.
बहुत दिनों के पश्चात कोई ऐसी कविता पढने को मिली जिसमें विशुद्ध हिंदी का प्रयोग हुआ हो..और जिसकी हर पंक्ति में 3-4 ही शब्द हों..बहुत अच्छा लिखा है आपने आलोक शंकर जी..
छोटे-छोटे वाक्यों में सही शब्दों को डाल दिया जाये तो ज्यादा लिखने/बोलने की ज़रूरत नहीं होती..वही आपने किया है..
वाह क्या बात है बहुत सुंदर आपने कम शब्दो में बहुत ही सुन्दर कविता लिखी है,..आपसे बहुत कुछ सीखने को मिलेगा,..बहुत-बहुत बधाई।
सुनीता(शानू)
आपकी सभी कविताएँ स्पेशल होती हैं। सम्भव है कि संस्कृतनिष्ठ शब्द लोगों को समझ में न आते हों, मगर जो एक बार समझ लेता है, वो बार-बार पढ़ना चाहता है।
निम्न पंक्तियाँ कितनी सुंदर हैं!
वृद्ध वय, नर मूकदर्शक
चक्षु कातर , अचल भरसक
हों अजल ये नीर वर्षक
बोझ जीवन, वहन कबतक ?
रंग धूमिल , मन अचंभित
मन मदान्ध अवाक कुंठित
किस सुरा से रहा वंचित
हाय मधु का पात्र मेरा
आपके कविताओं की यह विशेषता रही है कि सभी से दार्शनिकता झलकती है। सुनीता जी यह बात ठीक लगती है कि आपसे हर कवि कुछ न कुछ सीख सकता है।
आलोक जी,
मेरे से पहले लिखने वालों को पढ़्कर लगता है कि आपकी कविता बहोत अच्छी होगी। मै कह नहीं सकता क्योंकि मुझ तक वो पहुँची ही नही। शायद ये कविता हिन्दी विद्वानो के लिये है, और मेरे जैसे साधारण पाठक तक नही पहुँच रही।
मै अगर और प्रयास करूंगा तो शायद अर्थ मुझसे दोसती कर भी ले मगर जहाँ वक्त लगता जाता है, अर्थ के दरवाजे बंद होते जाते है।
आपको काव्य प्रवास के लिये बधाई।
तुषार
कविता मेँ भाव हैँ, सुन्दर है, कोई दो राय नहीँ, किन्तु यह आम पाठक की समझ से बाहर है..
मँदिर के बँद कपाटोँ से ईश्वर का दर्शन करने तुल्य
प्रिय आलोक जी..
" वृद्ध वय, नर मूकदर्शक
चक्षु कातर , अचल भरसक
हों अजल ये नीर वर्षक
बोझ जीवन, वहन कबतक ?
रंग धूमिल , मन अचंभित
मन मदान्ध अवाक कुंठित
किस सुरा से रहा वंचित
हाय मधु का पात्र मेरा
तूलिका ले हाथ में सखि,
मैं तुम्हारा मृदु चितेरा । "
मैं सर्वदा कहता रहा हूँ कि हिन्दयुग्म नें आपके रूप में प्रतिभावान कवि पाया है। कविता के शिल्प और भावों में माईक्रोस्कोपिक त्रुटि भी नहीं है। मैं आपको इस सुन्दर रचना की बधाई देता हूँ।
कविता के पाठक आपसे संस्कृतनिष्ठता और क्लिष्ठता की जायज शिकायत रख सकते हैं। मेरी आपसे अपेक्षा बहुत बडी है, चूंकि आपके पास केवल अच्छे शब्द ही नहीं गहरा दर्शन भी है। सभी जानते हैं कि हिन्दी कविता की दशा शोचनीय है। यहाँ नये कवियों के पास दोहरी चुनौती है, कविता का पुनर्जीवन और भाषा को योगदान प्रदान करना। शब्दाभाव बहुत बडी कमी है जो ज्यादातर आज के पीढी के कवियों के पास होती है, सौभाग्य से आप इस बात के धनी हैं।
इस लम्बी भूमिका का अभिप्राय केवल यही है कि इस तरह से आहिस्ता आहिस्ता यह अमृत पाठको को पिलाइये कि वे स्तर का अभिप्राय भी जान सकें साथ ही साथ आपकी रचना से आनंदित होने के सुख भी ले सकें।
स-स्नेह।
*** राजीव रंजन प्रसाद
समझने मे थोडा वक्त लगा, कही कही शब्दकोश भी उठाना पडा... लेकिन मेहनत करके अच्छी कविता पढने पर मजा दोगुना हो गया।
आशा है आगे कुछ हमे सीखते चलेंगे और ऐसा कुछ लिखने का प्रयास भी करेंगे।
आलोक जी मेरा भी वही कहना है की कविता को हम सब की सरल भाषा में लिखे
बेहद ख़ूबसूरत भाव से सजी है यह..पर थोड़ा सा समय लगा समझने में ....
शानदार! बधाई हो!!
बहुत ही बेह्तरीन रचना. छंद, प्रवाह एवं भाव की दृष्टि से अत्यंत प्रौढ़ रचना. सर्वथा त्रुटिहीन, मंत्रमुग्ध कर देने वाली!
राजीव जी ने बहुत उचित लिखा है इस विषय में. आपकी प्रतिभा स्तुत्य है. आनंद आ गया.
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कव्यशास्त्री अक्सर बड़े छंदों को कठिन मानते हैं, पर मेरा अनुभव है कि इतनी छोटी मात्राओं के छंद को बाँधना भी अत्यंत कठिन है. आपने इसे इतनी सफलता से बाँधा है, पढ़ने पर लगता है जैसे धीरे-धीरे घुंघरू बज रहे हों. बहुत सुंदर!
आलोक जी, सबसे पहले एक बेहतरीन कविता के लिये--वाह-वाह।
आप की यह रचना पढ़ते हुए मुझे ऐसा लगा कि जैसे मैं किसी छायावादी कवि की रचना पढ़ रहा हूँ;
जानते हैं , एक बार में पूरी तरह से समझ में भी नहीं आई।
लेकिन, एक बात और; अब आप ने शेर को आदमखोर बना दिया है; सतर्क रहियेगा।
रस छलकाती हुई कविता। भई वाह।
सचमुच आलोक जी, कविता पढ़ने के बाद आपकी काव्य प्रतिभा को नमन करने से खुद को रोक नहीं पाया। देरी के लिये अवश्य क्षमाप्रार्थी हूँ।
आलोक जी,
इसे समीक्षा नही वरन अनुभूति कहें तो उपयुक्त होगा ! हिंद युग्म की दृग यात्रा में शीर्षक " मैं तुम्हारा मृदु चितेरा" पर औचक दृष्टि पडी और मैं स्वयं को इसके साक्षात्कार से रोक नही सका ! नही मुझे इसकी साधु-शब्दाब्ली पर कुछ कहना है न ही कथ्य या शिल्प पर कोई टिपण्णी करनी है ! अलंकार योजना और नाद सौंदर्य पर भी मैं कुछ भी कहने की स्थिति में नही हूँ ! किंतु, यदि मैं आपको "अभिनव पन्त" कहूं तो, कैसा रहेगा !!!
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