मुझे शबनम के कतरे ने कहा, तुमने बुलाया है
हवा का डाकिया इस वक़्त, तेरी याद लाया है...
मुझे उस प्यार की सौं है, मुझे अंगार की सौं है
मेरे सीने में जो जल कर, मुझे ही मोम करती है
मेरा सपना, मेरी हर कल्पना, हँसती है मुझ ही पर
मेरा संकल्प घायल है, उदासी व्योम करती है
वो कितना कुछ था करने को, न कर पाया, न हो पाया
लपट है वक़्त की जिसपर, जवानी होम कर दी है
मैं आशा की किसी लौ को ही जलता देख तो पाता
तुम्हीं ने तो पलक मूंदी, हरेक दीपक बुझाया है
हवा का डाकिया इस वक़्त, तेरी याद लाया है...
वो बातें थीं, महज बातें, कि दुनिया को नया सूरज
वो हर इक आँख में चिड़िया, वो हर इक हाथ में कागज
क्षितिज दुनिया का हर कोना, जमीनों में उगा सोना
नहीं बरगद, न ही सरहद, न ये होना न वो रोना
हमारे मन के हाथों में, लपट उँची मशालें थीं
मगर हम मेमने थे, हमपे शेरों की दुशालें थीं
गिरे जब हम धरातल पर, जमीं में हम समाते थे
न तुम थे, पर हमारे साथ सूरज था, ये साया है..
हवा का डाकिया इस वक़्त, तेरी याद लाया है...
तुम्हीं तो थे, जिसे जज़्बों पे मेरे प्यार आता था
तुम्हीं ने तो मुझे खत लिख के जोड़ा एक नाता था
जमीन-ओ-आसमा की बात, जन्मों की कहानी थी
मेरे कदमों तले तुमको कोई दुनिया बसानी थी
मगर जब नौकरी पाने में मेरी डिगरियाँ हारीं
किसी इंजीनियर से हो गयी थी फिर तेरी यारी
सभी बातें कहानी थीं, तुम्हारी बात पानी थी
किताबों में पुरानी भी लिखा, जो सच है माया है
हवा का डाकिया इस वक़्त, तेरी याद लाया है...
मुझे आ कर मिले, आदर्श ने भोजन दिया जिसको
भजन तब है, अगर रोटी तुम्हारे पेट से बोले
जहाँ टाटा को, अंबानी को, सुनने भीड़ लगती हो
वहाँ ये डायरी ले कर कहाँ निकले कवि भोले
कोई भी साथ आ जाये, नहीं ये दौर है ऐसा
तुम्हारी चुप खरीदेगा, यहाँ बोलेगा बस पैसा
वो झूठे ख्वाब थे, कैसी नशीली थी बहुत दुनिया
तुम्हारा साथ हो तो दो जहाँ को हमने पाया है
हवा का डाकिया इस वक़्त, तेरी याद लाया है...
*** राजीव रंजन प्रसाद
4.04.2007
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21 कविताप्रेमियों का कहना है :
मुझे आ कर मिले, आदर्श नें भोजन दिया जिसको
भजन तब है, अगर रोटी तुम्हारे पेट से बोले
जहाँ टाटा को, अंबानी को, सुनने भीड लगती हो
वहाँ ये डायरी ले कर कहाँ निकले कवि भोले
राजीव जी, बहुत सुन्दर …एक बार फ़िर से अवाक् है पाठक
राजीव जी,
आपने अपनी कविता में सब कवियों के दिल की बात कह दी.... ये पैसा.. ना जाने कैसा कैसा
.. चले जा रहा है... आदमी को छले जा रहा है..
सुन्दर है
राजीव आप कविता करते कहीं दूर निकल जाते हो. मैं सदैव ही यह कहता रहा हूँ कि आप बेहतर कह सकते हो।
इस कविता की ही चर्चा करें तो:-
- संकर भाषा का प्रयोग - हिन्दी, उर्दू व पंजाबी का एक साथ प्रयोग, कविता से पकड छूट जाती है।
- आप किस विषय पर बात करना चाह्ते हैं, स्पष्ट नहीं है। कविता केवल बह रही किस ओर स्पष्ट नहीं है।
संजय गुलाटी मुसाफिर
संजय गुलाटी जी..
मुझे यह माननें में हिचक नहीं कि कविता अच्छी न बनी हो, इस विषय पर भी मेरी कोई राय नहीं कि कविता का बहाव कहाँ है लेकिन भाषा पर मैं अवश्य कहना चाहता हूँ। व्यक्तिगत तौर पर मेरा मानना है कि हिन्दी, उर्दू, पंजाबी, अंग्रेजी और चाहे जो भी भाषा हो जिसके शब्द हमारी आम बोलचाल का अंग बन गये हैं उनका निरंतर प्रयोग होना चाहिये, यह हिन्दी को समृद्ध ही करेगा। क्या हमारे बोलचाल की भाषा मिश्रित नहीं हो गयी है? फिर कविता की भाषा भी स्वत: यही होगी...
मैं आशा की किसी लौ को ही जलता देख तो पाता
तुम्हीं ने तो पलक मूंदी, हरेक दीपक बुझाया है
हवा का डाकिया इस वक़्त, तेरी याद लाया है...
आपका लिखा मुझे हमेशा ही प्रभावित करता है राजीव जी ...
वो झूठे ख्वाब थे, कैसी नशीली थी बहुत दुनिया
तुम्हारा साथ हो तो दो जहाँ को हमने पाया है
हवा का डाकिया इस वक़्त, तेरी याद लाया है...
बहुत सुंदर ...
तुम्ही तो थे, जिसे जज्बों पे मेरे प्यार आता था
तुम्ही ने तो मुझे खत लिख के जोडा एक नाता था
जमीनो आसमां की बात,जन्मो की कहनी थी
मेरे कदमो तले तुमको दुनिया कोइ बसानी थी
मगर जब नौकरी पाने में मेरी डिगरीया हारी
किसी इन्जीनियर से हो गई थी तेरी यारी
वाह राजीव जी क्या खूब कही है सारी कविता ही अनमोल है बहुत सुन्दर रचना है,..क्या पैसा ही आज सब कुछ हो गया है?
फ़िर ऐक बार बधाई,...
सुनीता(शानू)
वाह राजीव जी क्या खूब कही है..
मुझे आ कर मिले, आदर्श नें भोजन दिया जिसको
भजन तब है, अगर रोटी तुम्हारे पेट से बोले
जहाँ टाटा को, अंबानी को, सुनने भीड लगती हो
वहाँ ये डायरी ले कर कहाँ निकले कवि भोले
बहुत सुन्दर राजीव जी..
बधाई
Ultimate lines:-
मेरा सपना, मेरी हर कल्पना, हँसती है मुझ ही पर
मेरा संकल्प घायल है, उदासी व्योम करती है
मैं आशा की किसी लौ को ही जलता देख तो पाता
तुम्हीं ने तो पलक मूंदी, हरेक दीपक बुझाया है
तुम्हीं तो थे, जिसे जज़्बों पे मेरे प्यार आता था
तुम्हीं ने तो मुझे खत लिख के जोड़ा एक नाता था
जमीन-ओ-आसमा की बात, जन्मों की कहानी थी
मेरे कदमों तले तुमको कोई दुनिया बसानी थी
सभी बातें कहानी थीं, तुम्हारी बात पानी थी
किताबों में पुरानी भी लिखा, जो सच है माया है
वो झूठे ख्वाब थे, कैसी नशीली थी बहुत दुनिया
तुम्हारा साथ हो तो दो जहाँ को हमने पाया है
भजन तब है, अगर रोटी तुम्हारे पेट से बोले
हवा का डाकिया इस वक़्त, तेरी याद लाया है...
and sensible words:-
वो हर इक आँख में चिड़िया
लपट उँची मशालें थीं
हमपे शेरों की दुशालें थीं
This song is also too good like all other songs....some times i wonder how much more you have of yourself to present urself uniquely every time.
kahete hain na samandar jitna shaant dikhta utna zyada gehraa hota hai aur utni urjaa bhari hoti hain uski laheron main jo kinaaron par aati hain.
Keep Writing
तुम्ही तो थे, जिसे जज्बों पे मेरे प्यार आता था
तुम्ही ने तो मुझे खत लिख के जोडा एक नाता था
जमीनो आसमां की बात,जन्मो की कहनी थी
मेरे कदमो तले तुमको दुनिया कोइ बसानी थी
bhaut khoob hawa kahti hai ki ye panktiyan aapki
झूठे ख्वाब थे, कैसी नशीली थी बहुत दुनिया
तुम्हारा साथ हो तो दो जहाँ को हमने पाया है
हवा का डाकिया इस वक़्त, तेरी याद लाया है...
ye ek sach hai ki kuch nahi aur bhi uska saath hai to sab hai
aapki is premmay kavita ko padhkar bhaut achha laga
जितना पढ़ता हूँ, उतनी ही आपके लिये इज़्ज़त बढ़ती जाती है. बहुत प्यारी पंक्तियाँ हैं. सुंदर गीत है.
कया -क्या कहें. कई अंश अत्यंत सुंदर हैं. भाषा एवम् अभिव्यक्ति की कसावट बेहतरीन है, परिपक्व है.
गुलाटी जी ने भाषा पर जो आपत्ति करी है, वो अपरिपक्व कवियों पर ही लागू होती है. उनके लिये ऐसा मर्गदर्शन उचित है. पर आपके गीत के स्तर पर आकर् भाषा स्वयं इतनी सजीव हो जाती है कि उसकी सहजता उसका अलंकार बन जाती है. इसे दोष मानना पड़े तो "दोष" शब्द की परिभाषा ही उलट देनी पड़ेगी. यह तो समर्थ कवि के भाषा पर अधिकार का प्रमाण है. अतः मैं उनके विचारों से सहमत नहीं हूँ.
फिर उन्होंने कथ्य पर भी आपत्ति करी है. इस दशा मे उन्हें "जयशंकर प्रसाद" जी की "अरुण यह मधुमय देश हमारा" पर भी आपत्ति होनी चाहिये. पर आप कोई महाकव्य य खंडकाव्य नहीं प्रस्तुत कर रहे जिसमें बिलकुल एक ही लीक पर चला जाये. गीत में आप अपनी बात कहने को स्वतंत्र हैं.
इसके अलावा भी आपक कथ्य विश्रंखल नहीं है. पहले हवा के झोंके से एक रूमानी याद आती है, .... फिर वस्तविकता की ज़मीन् से कुछ स्वर फूओतते हैं...फिर धन के स्सम्ने पार का झुक जाना...फिर इसके सात पूरे समाज की विसंगति पर व्यंग. इसएं अव्यवस्था फूटते हैं...फिर धन के सामने प्यार का झुक जाना...फिर इसके साथ पूरे समाज की विसंगति पर व्यंग. इसमें अव्यवस्था कहाँ है?
एक बेहतरीन गीत पर बधाई!
Vastawikta ka darshan, hameshaki tarah !
Agar kahna hi pada to-
Shabnam ka katra kabhi suna nahi tha, katra to lahu ka suna tha ! lekin lagta hai, aapki vastviktane "bund" shabd ko katra bana diya.
Hawa ka dakiya aur shabnam ka aapse bat karna innovative idea !
जनाब!
इस बार आपने दिल बाग़-बाग़ कर दिया। जिन बातों को मैंने सोच रखा है कि कभी निबंध रूप में लिखूँगा वो आपने चंद लाइनों में समेटा है-
"वो बातें थीं, महज बातें, कि दुनिया को नया सूरज
वो हर इक आँख में चिड़िया, वो हर इक हाथ में कागज
क्षितिज दुनिया का हर कोना, जमीनों में उगा सोना
नहीं बरगद, न ही सरहद, न ये होना न वो रोना
हमारे मन के हाथों में, लपट उँची मशालें थीं
मगर हम मेमने थे, हमपे शेरों की दुशालें थीं
गिरे जब हम धरातल पर, जमीं में हम समाते थे
न तुम थे, पर हमारे साथ सूरज था, ये साया है..
हवा का डाकिया इस वक़्त, तेरी याद लाया है..."
मैं भी शिशिर मित्तल जी से सहमत हूँ। फ़िर भी मैं एकबारगी कहूँगा कि आप अगर इसे आप गीत की श्रेणी में रखते हैं तो एक बार खुद गा कर देखें तो हो सकता है कि शब्दों का ज़्यादा शुद्ध और सटीक विन्यास समझ में आये।
हताश-निराश पंक्तियों के बीच निम्न पंक्तियाँ व्यंग्य का रूप ले लेती हैं-
"मुझे आ कर मिले, आदर्श ने भोजन दिया जिसको
भजन तब है, अगर रोटी तुम्हारे पेट से बोले
जहाँ टाटा को, अंबानी को, सुनने भीड़ लगती हो
वहाँ ये डायरी ले कर कहाँ निकले कवि भोले
कोई भी साथ आ जाये, नहीं ये दौर है ऐसा
तुम्हारी चुप खरीदेगा, यहाँ बोलेगा बस पैसा
वो झूठे ख्वाब थे, कैसी नशीली थी बहुत दुनिया
तुम्हारा साथ हो तो दो जहाँ को हमने पाया है
हवा का डाकिया इस वक़्त, तेरी याद लाया है"
"मेरा संकल्प घायल है, उदासी व्योम करती है"
पूरा गीत इतना सुन्दर है कि निःशब्द हो गया हूँ
त्रुटिहीन,गेय,सुग्राह्य भाषा, सहज अभिव्यक्ति
अद्भुत,अनुपम
ऐसा सुन्दर गीत पढवाने के लिये कोटि धन्यवाद
सादर
गौरव
राजीव जी, आप कि रचना में जो बात सबसे अधिक पसन्द आयी वह है कविता का बहाव और पठनीयता,लेकिन कविता बरसात कि नदी की भाँति अनियन्त्रित रूप से बहती है। कई पंक्तियों का कविता के मूल भाव से कुछ लेना -देना ही नहीं है।
मुझे लगता है कि यदि आप इसे दो कविताओं के रूप में पेश कर सकते थे।
ये लाइनें खुब बन पड़ी हैं--
मुझे आ कर मिले, आदर्श ने भोजन दिया जिसको
भजन तब है, अगर रोटी तुम्हारे पेट से बोले
जहाँ टाटा को, अंबानी को, सुनने भीड़ लगती हो
वहाँ ये डायरी ले कर कहाँ निकले कवि भोले
कोई भी साथ आ जाये, नहीं ये दौर है ऐसा
तुम्हारी चुप खरीदेगा, यहाँ बोलेगा बस पैसा
लेकिन यहाँ पर भी मैं यह कहना चाहूँगा कि हमें अपने आदर्शों को रोटी कमाने का जुगाड़ बनाने की ज़रूरत नहीं है;
उसके लिये हमारा शरीर, हमारे हाथ, हमारा मस्तिष्क ही काफी है। मतलब यह कि साहित्य और साहित्यकारों को सिर्फ अमीरों की टाँग-खिचाई ना करके अपने आदर्शों के साथ-२ अपनी मेहनत और कबिलियत पर भी भरोसा रखना चाहिये।
प्रिय पंकज जी..
मुझे इस गीत की भाषा, शैली और मर्म पर हुई चर्चा पर आनंद आया, यही युग्म की सफलता भी है कि यह अंतरजाल पर कविता का स्वर बनता जा रहा है।
समालोचनायें आवश्यक है क्योंकि यही कवि को सिखाती हैं कि वह क्या न लिखे। मसलन जब आप लिखते है कि "कविता बरसात कि नदी की भाँति अनियन्त्रित रूप से बहती है। कई पंक्तियों का कविता के मूल भाव से कुछ लेना -देना ही नहीं है" तब कवि यह भी जानना चाहेगा कि वे कौन कौन सी पंक्तियाँ है जिसे सुधार की आवश्यकता है। एक अन्य बात कि मुझे इस कविता में दो कविता की गुंजाईश नजर नहीं आती..आप मुझे वह स्थान निर्दिश्ट करें, प्रसन्नता होगी।
शायद कविता के अंत को आपने गलत समझा है। कविता नहीं कहती कि "आदर्शों को रोटी कमाने का जुगाड़ बनाने की ज़रूरत है" कविता कहती है कि आदर्श संघर्ष का रास्ता है। कविता में कवि नें अतीत में ही झांका है जहाँ वह प्रेयसी भी जो सर्वस्व होने का दावा करती है...आदर्शों के लिये समर्पित नहीं होती....साहित्यकारों को निश्चित ही अपनी काबीलियत पे भरोसा होना चाहिये,जिन्हें नही होता वे सिर्फ घना बजते ही हैं। टाटा और अंबानी व्यक्ति नहीं हैं कविता में न ही कवि को उनकी आर्थिक सफलताओं की कुंठा है लेकिन बिम्ब के प्रयोग की यह शर्त नहीं होती पंकज जी कि केवल उसके शाब्दिक अर्थ को लिया जाये। संभव है यदि उन पंक्तियों के साथ आप इस पंक्ति के निहितार्थ को भी जोडेंगे तो कवि से सहमत हो सकेंगे
"कोई भी साथ आ जाये, नहीं ये दौर है ऐसा
तुम्हारी चुप खरीदेगा, यहाँ बोलेगा बस पैसा"
यह मौन प्रोत्साहन है उनके लिये जिनकी चुप खरीदी नहीं जा सकती कभी..
आपकी सभी आपत्तियों के उदाहरण की प्रतीक्षा है।
*** राजीव रंजन प्रसाद
वाह जनाब ---- हवा का डांकिया इस वक्त तेरी याद लाया है. बहुतु उत्तम रचना है. बधाई!
प्रसाद जी,
बहुत ही खूबसूरत गीत है| आपको बहुत-बहुत शुभकामनायेँ|
रिपुदमन पचौरी
एक बात और तो कहना भूल गया था वह ये कि इससे बेहतर गीत अभी तक युगम पर नहीँ आया है| मेरा इस रचना के साथ अनुभव मन्त्र मुग्ध कर देने वाला रहा| शब्दो मेँ बाध कर विचारोँ को सीमा मेँ नहीँ बान्धना चाहता| कहने के लिखे बहुत कुछ है, विचारने के लिये बहुत कुछ|
आपके कवित्त को, काव्य को, शिल्प को, भाव को बारम्बार नमन|
रिपुदमन पचौरी
राजीव जी , देर से टिप्पणि करने के लिए माफी चाहता हूँ। मुझे आपकी यह कविता बहुत हीं अच्छी और आज के समाज पर कुठाराघात करती-सी लगी। कौन-सी पंक्ति ज्यादा मन को भाई , यह नहीं कह सकता , क्योंकि मैं आपकी हर पंक्ति से जुड़ जाता हूँ। अतः माफ करेंगे।
समयाभाव के कारण ज्यादा कुछ नहीं कह सकता । बस यही कहूँगा कि आप यूँ हीं लिखते रहिये , पढने वाले तो हम आपकी रचना के इंतजार में बैठे रहते हैं।
राजीव जी, सबसे पहले इतनी सुन्दर कृति पर इतनी देर से टिप्पणी करने के लिये आपसे माफी चाहता हूँ। पिछले कुछ समय में मेरी अति व्यस्तता के चलते मैं इस गीत को आज ही पढ़ पाया। अद्भुत लिखा है आपने। गीत के शिल्प, लय और भाषा आदि पर तो पहले ही काफी चर्चा हो चुकी है, अतः उस बारे में कुछ बोलना उचित न होगा। हाँ, एक बात जरूर कहना चाहूँगा कि भावों में एकरूपता नहीं रह पायी है। भाव एक उन्मुक्त बरसाती नदी की तरह बहते प्रतीत होते हैं। पर शायद यह भी आधुनिक जीवन का एक सच है जो किसी भी भाव को स्थायी नहीं रहने देता। मानव आज भौतिक व मानसिक प्रगति और भूख व तंगहाली के दोराहे पर खड़ा नजर आता है। महबूब की याद, उसका विपरीत परिस्थितियों में साथ छोड़ जाना, एक दर्द को जन्म देते हैं जो व्यापक होता हुआ व्यक्तिगत से सामाजिक स्तर तक जा पहुँचता है। और आखिरी पँक्ति में 'तुम्हारा साथ हो तो दो जहाँ को हमने पाया है' प्यार का वो आयाम भी नजर आता है जहाँ व्यक्ति अपने महबूब की सारी बेवफाइयों के बावजूद उसे प्यार करना छोड़ नहीं पाता और फिर उसी को पाना चाहता है। बहुत सुन्दर। फिर भी आपसे आशा करता हूँ कि आगे भावसाम्यता का ध्यान रखेंगे ताकि आम पाठक को रचना के साथ जुड़ने में आसानी हो।
वर्तमान की भूत से तुलना करता आपका यह गीत रोचक है। मुझे यह रचना देरी से पढ़ पाने का मलाल है। निम्न पंक्तियाँ ख़ास तौर पर पसन्द आयी -
मगर जब नौकरी पाने में मेरी डिगरियाँ हारीं
किसी इंजीनियर से हो गयी थी फिर तेरी यारी
हमारे मन के हाथों में, लपट उँची मशालें थीं
मगर हम मेमने थे, हमपे शेरों की दुशालें थीं
वो झूठे ख्वाब थे, कैसी नशीली थी बहुत दुनिया
तुम्हारा साथ हो तो दो जहाँ को हमने पाया है
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)