एक दिन, न जाने क्या भूल आया, मैं उनकी महफ़िल में
अब रोज़, वहाँ जाये बिना, नहीं मेरा गुजारा होता
वो मिले भीड़ में तो हँस के, तबीयत से मिले
काश! अकेले में, ये हादसा, फ़िर से दोबारा होता
मुझे आता ही नहीं, उनसे खफ़ा होने का फ़न
ऐसा होता तो, वो सनम, कब से हमारा होता
हमने गुजारी, तमाम ज़िन्दगी, यूँ ही बेनूरी में
रात दिन होते रहे मगर, नहीं कोई रंगीन नज़ारा होता
कौन जाने, शबनम है, या हैं, आँसू के कतरे
मुरझाये हुये फूल हैं, हो न हो, कोई शख़्स बेचारा रोता
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14 कविताप्रेमियों का कहना है :
मोहिन्दर जी
सादगी कितनी सुन्दर होती है यह आपकी इस गज़ल से समझ आता है:
"एक दिन, ना जाने क्या भूल आया, मै उनकी महफ़िल में
अब रोज, वहां जाये बिना, नहीं मेरा गुजारा होता"
ये पंक्तियाँ भी बहुत अच्छी लगीं:
मुझे आता ही नही, उनसे खफ़ा होने का फ़न
ऐसा होता तो, वो सनम, कब से हमारा होता
कौन जाने, शबनम है, या हैं, आंसु के कतरे
मुर्झाये हुये फ़ूल है, हो न हो, कोई शक्स बेचारा रोता
*** राजीव रंजन प्रसाद
वो मिले भीड में तो, हंस के, तबीयत से मिले
काश अकेले में, ये हादसा, फिर से दोबारा होता
मुझे आता ही नही, उनसे खफ़ा होने का फ़न
ऐसा होता तो, वो सनम, कब से हमारा होता
बहुत सुंदर मोहिंदेर जी ...बहुत ही ख़ूबसूरत शेर हैं यह....
मोहिन्दर जी क्या खूब लिखते है
एक दिन, ना जाने क्या भूल आया, मै उनकी महफ़िल में
अब रोज, वहां जाये बिना, नहीं मेरा गुजारा होता"
हर पक्ती अपने आप में पूर्ण है जो बडी सादगी से मन की व्यथा व्यक्त करती है,...
मुझे आता ही नही, उनसे खफ़ा होने का फ़न
ऐसा होता तो, वो सनम, कब से हमारा होता
वाह अति सुन्दर
सुनीता(शानू)
एक दिन, न जाने क्या भूल आया, मैं उनकी महफ़िल में
अब रोज़, वहाँ जाये बिना, नहीं मेरा गुजारा होता
वो मिले भीड़ में तो हँस के, तबीयत से मिले
काश! अकेले में, ये हादसा, फ़िर से दोबारा होता
the best one
मुझे आता ही नहीं, उनसे खफ़ा होने का फ़न
ऐसा होता तो, वो सनम, कब से हमारा होता
gazal kaa apnaa andaaz hota hai...bas cherehe par muskuraahat chod jaati hai...aapki gazal khoob aachi ban padi hai.thankyou for making us read it and congratulations.
mujhe aata hi nahi unse kafa hone ka fan , nahi wo sanam kab se hamara hota
bhaut achha laga ye sher aapka
baav bahut sundar aur gahren hain .
likhte rahiye .
जब से आपने यह ग़ज़ल पोस्ट की है, तब से यही सोच रहा हूँ कि अगर मुझे पहले शेर के अतिरिक्त शब्द खाने होते, तो क्या लिखता? अब जाकर कुछ समझ में आया है-
एक दिन, जाने क्या भूल आया, उनकी महफ़िल में
अब रोज़, वहाँ जाये बिना, नहीं मेरा गुजारा होता।
शायद नीचे के शेर में आपने हम जैसे लोगों की हक़ीकत लिखी है-
"मुझे आता ही नहीं, उनसे खफ़ा होने का फ़न
ऐसा होता तो, वो सनम, कब से हमारा होता"
सरल भाषा के प्रयोग ने गजल का सौन्दर्य और बढा दिया है
खूबसूरत गज़ल
बधाई
सादर
गौरव
शे़रों में लय का अभाव अवश्य नज़र आता है,
लेकिन कुछ शे़र खूब बन पड़े हैं--
वो मिले भीड़ में तो हँस के, तबीयत से मिले
काश! अकेले में, ये हादसा, फ़िर से दोबारा होता.
khshama chahta hoon jo ki roman mein likh raha hoon. Mere hindi ka software kaam nahi kar raha hai.
Mujhe aapki yeh rachna badi hi pasanad aayi. Kya saadgi se aapne apnee baat kahi hai.
Hum jaise naunihaalon ke liye aap ek bargad ke wriksh ke samaan hai. Hum aapse maargdarshan liya karte hain.
Yun hi likhte rahiye.Badhai sweekarein.
गजलो से ज्यादा वास्ता नही है पर पढ़ कर अच्छा लगा।
बधाई
Aapki gazal bahut sundar hai.
Aur bhi likhte rahiye.
Congratulations.
Mehtab Singh
मोहिन्दर जी इस बार कुछ बात बनी नहीं। ग़ज़ल के ज्यादातर शेर तुकबन्दी से अधिक नजर नहीं आते। सिर्फ एक शेर ठीक बन पड़ा है, जिसकी कई पाठकों ने भी तारीफ की है। शेर है-
मुझे आता ही नहीं, उनसे खफ़ा होने का फ़न
ऐसा होता तो, वो सनम, कब से हमारा होता
शायद कुछ जल्दबाजी में लिखा है इस बार। आशा है कि अगली बार आपकी पुरानी चमक फिर दिखेगी।
वो मिले भीड़ में तो हँस के, तबीयत से मिले
काश! अकेले में, ये हादसा, फ़िर से दोबारा होता
बहुत सुन्दर!!!
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