तेरे पास आने को जी चाहता है;
गले से लगाने को जी चाहता है।
बड़ी बेरहम हैं ज़माने की नज़रें,
नज़र में बसाने को जी चाहता है।
बडी़ क़तिलाना तेरे लब की लाली,
लबों से चुराने को जी चाहता है।
जो इक लफ्ज निकले लगें फूल झड़ने,
तुम्हें गुनगुनाने को जी चाहता है।
हर एक बात सच्ची लगे मुझको तेरी,
तुझे रब बनाने को जी चाहता है।
मन के शिवाले की तू ही शिवा है,
तुझे पूजे जाने को जी चाहता है।
तू है योगिनी और मैं हूँ तेरा योगी,
मगर घर बसाने को जी चाहता है।
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13 कविताप्रेमियों का कहना है :
पंकज जी
आपकी रचना अच्छी लगी
आप लाली चुराइये, इबादत भी करिये और घर भी बसाईये... मगर निमन्त्रण पत्र अवश्य भेजियेगा... आशीर्वाद देने आयेगे हम
हर एक बात सच्ची लगे मुझको तेरी,
तुझे रब बनाने को जी चाहता है।
अच्छा लिखा है पंकज जी
सस्नेह
गौरव
भाई पंकज जी यदि इस गज़ल को कोई गाये तो सुनने वालों को आनंद आ जायेगा। गज़ल अच्छी है, बधाई..
*** राजीव रंजन प्रसाद
बड़ी बेरहम हैं ज़माने की नज़रें,
नज़र में बसाने को जी चाहता है।
हर एक बात सच्ची लगे मुझको तेरी,
तुझे रब बनाने को जी चाहता है।
lagta hai aapne kaafi romantic mood main likhi hai ye gazal.badi sundar bani hai.keep writing such gazals.
बढ़िया है भाई ....बहुत खूब
बधाई
जो इक लफ्ज निकले लगें फूल झड़ने,
तुम्हें गुनगुनाने को जी चाहता है।
वाह क्या बात है ...
हर एक बात सच्ची लगे मुझको तेरी,
तुझे रब बनाने को जी चाहता है।
बहुत ख़ूब लिखा है ...
अच्छा है लगता है आपने ये प्रेमिका को प्रेम-पत्र लिखा है जो भी है अच्छा है प्रेम की भी पूजा ही होती आई है होनी भी चाहिए,...बस हमे निमन्त्रण अवश्य दिजीएगा जब योगिनी आपके घर की गृहणी बन जाये,...
सुनीता(शानू)
अच्छा लिखा है, पंकज जी |
गज़ल के मक्ते पर एक बार फिर नज़र दौहरा लेँ|
पंकज जी,
गज़ल पढ़कर मै हैरान रहा। मैने पढे हुए आपके अब तक के कविता सफर में मुझे ये गज़ल सबसे अधिक पसंद आयी। शब्द, भाव, मिटर, सभी अनुपम है इस बार।
हर एक बात सच्ची लगे मुझको तेरी,
तुझे रब बनाने को जी चाहता है।
तु है योगिनी और मैं हूँ तेरा योगी,
मगर घर बसाने को जी चाहता है।
वाह उस्ताद , मन प्रसन्न हो गया । बड़े हीं प्रेम से लिखा है आपने और उतने हीं प्रेम से मैंने इसका रसास्वादन किया है।
पंकज जी,
आप अपनी कविता अच्छी तरह से वाचते हैं, मुझे पता है। आप http://www.mypodcast.com/ ट्राई कीजिए और अपनी यह ग़ज़ल रिकार्ड कीजिए। आजकल तुषार जी व्यस्त हैं, नहीं तो आपकी ग़ज़ल का आडियो संस्करण अब तक आ गया होता।
एक शेर मुझे बहुत ख़ास लगा-
तू है योगिनी और मैं हूँ तेरा योगी,
मगर घर बसाने को जी चाहता है।
वाह पंकज जी। आपकी अब तक पढ़ी रचनाओं में से ये गज़ल सबसे ज्यादा पसंद आयी।
सुन्दर, बहुत सुन्दर!!!
निमंत्रण के हकदार तो हम भी है पंकजजी :)
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