मैं कुछ दिनों तनहाई चाहती हूँ
हर बन्धन से बिदाई चाहती हूँ...
कई ख़्वाब खेले पलकों पर
फिसले और खाक़ हो गये
बीते थे तेरे आगोश में
वो लम्हें राख हो गये
एक रात गुजरे दर्द के आलम में
क़ुछ ऐसी रहनुमाई चाहती हूँ
मैं कुछ दिनों तनहाई चाहती हूँ...
रफ़्ता-रफ़्ता अश्क़ बहे थे
वो रात भी तो क़यामत थी
क़ैद समझ बैठे जिसे तुम
वो सलाख़ें नहीं मेरी मुहब्बत थी
ज़मानत मिली तेरी फुर्क़त को
अब दुनिया से रिहाई चाहती हूँ
मैं कुछ दिनों तनहाई चाहती हूँ...
छलके थे लबों के पैमाने
उस मयख़ाने में तेरा ही वज़ूद था
महफूज़ जिस धडकन में मेरी साँसें थीं
आज हर शख़्स वहाँ मौजूद था
साँसों से हारी वफ़ा भी
अब थोङी सी बेवफ़ाई चाहती हूँ
मैं कुछ दिनों तनहाई चाहती हूँ...
*******अनुपमा चौहान*********
३०/०८/२००० ०६:३० अपराह्न
शब्दार्थ-
रहनुमाई- राहनुमाई, पथ प्रदर्शन, रफ़्ता-रफ़्ता- रफ़ता-रफ़ता, धीरे-धीरे, क़यामत- प्रलय, सलाख़ें- जंजीरें, शृंखलाएँ, फुर्क़त- फुरक़त, वियोग, ज़ुदाई, रिहाई- आज़ादी, स्वतंत्रता, वज़ूद- अस्तित्व,
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22 कविताप्रेमियों का कहना है :
अनुपमा जी
सुन्दर रचना है..
जब भी हम गहन आत्म मन्थन करते है तो शून्य मे पहुंच कर तन्हायी को ही अपने करीब पाते है.. तब ये सारी रस्में कस्में झूठे लगने लगते है और कही दूर निकल जाने को मन करता है..
बधायी हो आपको
"कैद समझ बैठे जिसे तुम
वो सलाखें नहीं मेरी मुहब्बत थी"
खुद से भी दूर जाने की छटपटाहट को बहुत खूब उभारा है। बधाई!!
अनुपमा जी, कभी मैंने इस स्थिति को महसूस तो नहीं किया, लेकिन अगर आप ने इसे लिखा मानना ही पड़ेगा कि इश्क करने वाले भी तनहाई की दुआ माँगते हैं।
ये पंक्तियाँ काफी अच्छी लगीं--
छलके थे लबों के पैमाने
उस मयखाने में तेरा ही वजूद था
महफूज़ जिस धडकन में मेरी साँसें थी
आज हर शख्स वहाँ मौजूद था
साँसों से हारी वफा भी
अब थोङी सी बेवफाई चाहती हूँ
मैं कुछ दिनों तनहाई चाहती हूँ...
कविता बहुत सुन्दर है अनुपमा जी। एक एसी कविता जो हृदय के हर तंतु छूती है। गंभीर दर्शन है और मेरी समझ इसे आध्यात्मिकता से भी जोडती है। कुछ पंक्तियों का मैं विशेष उल्लेख करूंगा:
"कई ख्वाब खेले पलकों पर
फिसले और खाक़ हो गये"
"एक रात गुज़रे दर्द के आलम में
क़ुछ ऐसी रहनुमाई चाहती हूँ"
"वो सलाखें नहीं मेरी मुहब्बत थी
ज़मानत मिली तेरी फुर्कत को
अब दुनियाँ से रिहाई चाहती हूँ"
"साँसों से हारी वफा भी
अब थोङी सी बेवफाई चाहती हूँ"
बहुत बधाई..
*** राजीव रंजन प्रसाद
फुर्कत माने......?
बहुत खूब अनुपमा जी, तनहाई मागने के लिये जो शब्द प्रयोग किये वह अच्छे लगे.
जब से यह कविता पढ़ी है, तब से बस यही पंक्तियॉ गुनगुना रहा हुं,
अब दुनियाँ से रिहाई चाहती हूँ
मैं कुछ दिनों तनहाई चाहती हूँ...
अति उत्तम।
अनुपमा जी,
बहुत खूब ...बधाई
रफ़्ता-रफ़्ता अश्क़ बहे थे
वो रात भी तो क़यामत थी
क़ैद समझ बैठे जिसे तुम
वो सलाख़ें नहीं मेरी मुहब्बत थी
बहुत ही सुंदर अनुपमा...
एक रात गुजरे दर्द के आलम में
क़ुछ ऐसी रहनुमाई चाहती हूँ
मैं कुछ दिनों तनहाई चाहती हूँ...
बधाई.....
Its really too good,simple and touching.
one word :-
"waaah" !!!
Ripudaman
अनुपमा जी बहुत सुन्दर रचना है ऐसा तब होता है जब हम जिसे प्यार करते है और उसे ख़बर तक नही होती जैसे कि...
कई ख़्वाब खेले पलकों पर
फिसले और खाक़ हो गये
बीते थे तेरे आगोश में
वो लम्हें राख हो गये
रफ़्ता-रफ़्ता अश्क़ बहे थे
वो रात भी तो क़यामत थी
क़ैद समझ बैठे जिसे तुम
वो सलाख़ें नहीं मेरी मुहब्बत थी
बिलकुल सही कह है आपने मै आपके जज़बात से पूरी तरह सहमत हूँ बहुत ही गहराई है आपकी रचना में,...
बस एक बात पूछना चाहूँगी,...यदि आप इस बात को अन्यथा ना लें क्या हम अपनी मूल रचना
के साथ कोई भी चित्र सलग्न कर सकते है,आपने अपनी रचना के साथ जो चित्र सलग्न किया है क्या वो आपका अपना है?
बहुत बहुत बधाई सुन्दर रचना के लिये,...
सुनीता(शानू)
Anupamaji aapki rachana acchi lagi.
Bura na mano to, sach kahun? Muze to Hindi gana yaad aaya," teri julphonse judai to nahi maangi thi......from Jab Pyar kisise hota hai. Thik usi tarah aap "Tanhai" maang rahi hain.
अच्छी कविता है ...
बधाई ....
प्रबल भाव पक्ष, हृदयस्पर्शी
वाह
अनुपम
सस्नेह
गौरव
कविता में कोई रुकावट नहीं होनी चाहिए। और कितना सुखद आश्चर्य है कि अनुपमा जी इस कविता में प्रवाह की कोई कमी नहीं है। भाव की कोई कमी नहीं है। एक तरह से सूफियाना भी है, एक तरह से रोमांटिक भी। दर्द से छुटकारा पाने की तड़प से लेकर वफ़ाई को त्यागकर बेवफ़ाई को पकड़ने की चाहत ऐसे एक दूसरे में गुथे हैं कि पाठक सम्मोहित हुए बिना नहीं रहता।
सुन्दर कविता, पढ़ते ही हृदय बाग बाग हो गया।
अच्छा लिखती रहिये।
बधाई
खूबसूरत नज्म है। कुछ जगहों पर शब्दों का बहाव अवरुद्ध सा जरूर होता है, पर कुल मिलाकर रचना पाठकों को बाँध कर रखती है। एक बात आपसे पूछना चाहता हूँ-
ज़मानत मिली तेरी फुर्क़त को
अब दुनिया से रिहाई चाहती हूँ
इसमें पहली पँक्ति के मायने क्या हैं?
अनुपमा जी,देर से टिप्पणी कर रहा हूँ , इसलिए क्षमा चाहता हूँ।
मुझे आपकी यह रचना बहुत हीं सुंदर लगी ।हृदयस्पर्शी कविता है।
बधाई स्वीकारें।1
लगभग सात दिन नेट से दूर रहने का मुझे क्या नुकसान हुआ, आपकी इस नज़्म को देर से पढ़ने के बाद यह एहसास हो रहा है।
बहुत ही सुन्दर नज़्म लिखी है आपने, ख़ासकर मुहब्बत की सलाखों से तुलना ज़ानदार लगी।
बधाई!!!
Anupamaji,pehle to main aapko itni sundar kavita likhane par badhai dena chahta hoon. Aur meri ek ichha hai ik aisi kavita aap na hi likhain to hi bahatar hoga,kyonki aap kavita likhane ke liye laayak hain hi nahin. Mei aap se ek gujarish hai ki aap bhavisya main koi kavita na likhain aur apne job par he dhyan dain.
anupama ji yah ek geet hai. bada hi sundar geet hai.mai bhu banaras ka student hun.hindi se phd kar raha hun. geet apka accha laga .bahut sunder. manmohak. brizbhu@gmail.com
I don’t usually reply to posts but I will in this case. I’ve been experiencing this very same problem with a new WordPress installation of mine. I’ve spent weeks calibrating and getting it ready when all of a sudden… I cannot delete any content. It’s a workaround that, although isn’t perfect, does the trick so thanks! I really hope this problem gets solved properly asap.
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