बोधिवृक्ष सा एक वृक्ष उस नीरव वन में रहता था,
प्राणों पर मोहित निष्प्राण सा मानुष उसी के नीचे बैठा था,
नक्षत्रों का एक समूह बेबात ही उस से ऐंठा था,
नित्य हवन करता था जो, नित जय शिवशंकर कहता था;
उस प्रात: मनुज ने शौर्य के अनगिन कीर्तिमान रचे,
निर्दोष जीव जले, कटे, चौराहों पर शीश सजे,
दादी का चिमटा लाने को हामिद उस दिन बाजार गया,
रक्त रंगा चिमटा घर लौटा, ईश्वर मानव से हार गया;
द्वेष में अंधी टोली ने प्रेमांधों से प्रतिशोध लिया,
वीर से ज़ारा मिलकर लौटी, रस्ते में ही रोक लिया,
मर्यादा की बलि चढी, संग नारे थे भगवानों के,
पात्र नए थे, कथा वही थी- 'हत्यारे अरमानों के';
मानव तो मानव, पशुओं के भी धर्म बताए जाते थे,
" काटो गाय को, जहाँ मिले", ऐसे संदेश भी आते थे,
कृष्ण ने सोच समझकर ही द्वापरयुग में अवतार लिया,
इस युग में तो गाँधी को भी अंधों ने मार दिया;
वृक्ष तले बैठा वो मानुष, हर आहट पर डरता था,
आज जिया तो धाम करूंगा, ऐसे संकल्प वो करता था,
भूख प्यास को भुला भुलाकर निशा काट दी आँखों में,
पर हर पल बेकल करती थी भय की लपटें साँसों में;
हुई भोर पर, जगत वही था, थर्राया, पगलाया सा,
प्रश्नचिन्ह था हर शाख पर, गुस्साया, भन्नाया सा,
उस नीरव वन में पीछे से एक तीक्ष्ण सा वार हुआ,
आँख लगी थी अभी अभी और रक्त गले का हार हुआ;
देख चेहरा मृत मानव का, हत्यारा था स्तब्ध खडा,
छूट गया शस्त्र हाथों से, समक्ष पुत्र था मरा पडा,
चादर का रंग देखके उसने, अनुमान धर्म का लगाया था,
इस पाप को लेकर कैसे जीता, फिर स्वयं पर शस्त्र उठाया था;
अक्सर हम हर एक युद्ध में अपना ही तो वध करते हैं,
यदि सच में वो ही सब कुछ है, क्यों उसके नाम पर लडते हैं,
उसका अंश है हर मानव में, यह सोचके सब निश्चिंत रहें,
विश्वास की बात को उस पर छोडें, हम कर्म करें, हम मुक्त रहें.
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11 कविताप्रेमियों का कहना है :
वाह सोलंकी भाई वाह, मज़ा आ गया। आपकी यह कविता बहुत प्रभावी ढ़ंग से मज़हब के नाम पर लड़ने वालों पर प्रहार करती है।
कुछ पंक्तियों ने मन को मोह लिया-
रक्त रंगा चिमटा घर लौटा, ईश्वर मानव से हार गया;
मर्यादा की बलि चढी, संग नारे थे भगवानों के,
पात्र नए थे, कथा वही थी- 'हत्यारे अरमानों के';
कृष्ण ने सोच समझकर ही द्वापरयुग में अवतार लिया,
इस युग में तो गाँधी को भी अंधों ने मार दिया;
हुई भोर पर, जगत वही था, थर्राया, पगलाया सा,
प्रश्नचिन्ह था हर शाख पर, गुस्साया, भन्नाया सा
चादर का रंग देखके उसने, अनुमान धर्म का लगाया था,
क्या संदेश दिया है आपने!
अक्सर हम हर एक युद्ध में अपना ही तो वध करते हैं,
यदि सच में वो ही सब कुछ है, क्यों उसके नाम पर लडते हैं,
उसका अंश है हर मानव में, यह सोचके सब निश्चिंत रहें,
विश्वास की बात को उस पर छोडें, हम कर्म करें, हम मुक्त रहें.
लिखते रहिए, ऐसे ही।
क्या बात है गौरव जी बहुत ही अच्छी रचना है कम शब्दो में कहा जाये तो,..पढ कर ह्र्दय भी कांप गया मगर ये तो सत्यता थी जो कुछ भी आपने लिखा है
अक्सर हम हर एक युद्ध में अपना ही तो वध करते हैं,
यदि सच में वो ही सब कुछ है, क्यों उसके नाम पर लडते हैं,
उसका अंश है हर मानव में, यह सोचके सब निश्चिंत रहें,
विश्वास की बात को उस पर छोडें, हम कर्म करें, हम मुक्त रहें.
..बहुत बहुत बधाई।
सुनीता(शानू)
गौरव सोलंकी जी..
कविता हृदय को कचोटती है। आप ने वह लिख दिखाया है जिसे "सत्य को नग्नता" से लिखना कहते हैं। यह कविता बताती है कि आपके लिये काव्यकर्म महज शौक नहीं है। कविता कहने की आपकी शैली बहुत प्रभावी है, व्यंग्य भी एसा कि हर एक स्वत: अपना ही गिरेबान झाकने लगे..जिन कहानियों, घटनाओं, चलचित्र को आपने बिम्ब की तरह प्रयोग किया है वह कविता को व्यापक बना रहा है..जब वे भाव आपकी पंक्तियों के साथ मिल जाते है तो पढते हुए रोंगटे खडे हो जाते हैं मैने कविता रात के एक बजे ही पढ ली थी..इतना प्रभावित हुआ कि तत्काल टिप्पणी करने के लिये शब्द भी नहीं जुटा सका। काश इस सत्य को सभी समझ पाते:
अक्सर हम हर एक युद्ध में अपना ही तो वध करते हैं,
यदि सच में वो ही सब कुछ है, क्यों उसके नाम पर लडते हैं,
उसका अंश है हर मानव में, यह सोचके सब निश्चिंत रहें,
विश्वास की बात को उस पर छोडें, हम कर्म करें, हम मुक्त रहें.
*** राजीव रंजन प्रसाद
Only one word Its ULTIMATE!!!
द्वेष में अंधी टोली ने प्रेमांधों से प्रतिशोध लिया,
वीर से ज़ारा मिलकर लौटी, रस्ते में ही रोक लिया,
मर्यादा की बलि चढी, संग नारे थे भगवानों के,
पात्र नए थे, कथा वही थी- 'हत्यारे अरमानों के';
बहुत ही दिल को छू लेने वाली रचना है यह आपकी ....
आपने कविता तो बहुत खूब लिखी है वास्तव मे पढ़ने मे आनंद आ गया।
पर मै आपकी कुछ पक्तियों से सहमत नही हूँ।
bahut bahut hi zyada sundar rachna hai . satya vachan aur amar vaani .
देख चेहरा मृत मानव का, हत्यारा था स्तब्ध खडा,
छूट गया शस्त्र हाथों से, समक्ष पुत्र था मरा पडा,
चादर का रंग देखके उसने, अनुमान धर्म का लगाया था,
इस पाप को लेकर कैसे जीता, फिर स्वयं पर शस्त्र उठाया था;
vishesh roop se upar wala chandh bahut pasanda aaya.
ek kshan aata hai jab insaan apne itihaas ( karmon ) ko bus pal bhar main mehsoos karta hai. Aur fir uske aanewale palon main uss ehsaas ko lekar hi bitata hai.
likhte rahiye.
सुन्दर और प्रभावी रचना। बधाई।
गौरव जी , हिन्द युग्म पर मैं आपका स्वागत करता हूँ। आपने अपनी रचना के माध्यम से फिरकापरस्त लोगों को जोर का तमाचा मारा है।
हिंदू और मुसलमां के देवताओं एवं पैगम्बरों के नाम पर हम जो आजकल लड़ते रहते हैं, उसमें किसी और का नहीं वरन हमारे विश्वास का हीं खून होता है।
अंतिम पंक्तियों में आपने एक अच्छा संदेश दिया है।सच हीं कहा है आपने कि हम जिस कारण लड़ते हैं ,वह कारण ,वह ध्येय तो हम सब में विद्यमान है। हमें उसने कर्म करने को यहाँ भेजा हैं ना कि उसी का मर्म हरने को।
अच्छी रचना है। बधाई स्वीकारें।
सुन्दर, बहुत सुन्दर!!!
मज़हब के नाम पर गला काटने वालों पर करारा प्रहार करती आपकी पंक्तियाँ दर्द भी बयाँ करती है। मगर जिस सुन्दरता से आपने एक आम आदमी के एहसास को काव्य में पिरोया है वह काबिले तारिफ है।
बधाई!!!
bahut achha likha hai. shayad meri ummidon se bhi jyada. i m proud of u. lage raho.
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