इश्क़ की हमसे बात ना करना अब हम दुनिया वाले हैं;
दर्द नहीं मेरी आँखों में इनमें खुशी के उजाले हैं।
और कोई था जो तेरी हर बात पे हँसता रहता था;
ग़म देकर ही जो खिलते हैं हम तो ऐसे छाले हैं।
तेरी हर ख़्वाहिश को सर-आँखों पर रखता था कोई;
कत्ल करेंगे अरमानों का अब यह हसरत पाले हैं।
पागल था पागलपन में हमराज़ बना डाला तुमको;
ढेरों राज दफन इस दिल में अब ऐसे दिलवाले हैं।
वह कायर था, नाज़ुकदिल था प्यार-मुहब्बत करता था;
हम मर्दों के क्या कहने हम तो पत्थर-दिल वाले हें।
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13 कविताप्रेमियों का कहना है :
क्या बात है इतनी नराज़गी क्यूँकर भाई? वैसे कुछ पन्क्तियाँ समझ नही आई
ग़म देकर ही जो खिलते हैं हम तो ऐसे छाले हैं।
मर्द पत्थर दिल वाले कहाँ होते है,..हाँ बस औरतो की तरह रो नही पाते नही तो सब कहेंगे,क्या मर्द होकर रोता है,बहुत मुश्किल होता है घुट-घुट कर रोना,..उसके लिये भी तो दिल चाहिये जनाब,...
मगर आपने कविता अच्छी लिखी है...
सुनीता(शानू)
वह कायर था, नाज़ुकदिल था प्यार-मुहब्बत करता था;
हम मर्दों के क्या कहने हम तो पत्थर-दिल वाले हें।
बहुत अच्छे, पंकज जी। मर्दानगी के नाम पर अपनी भावहीनता तथा कई बार अपनी अमानवीयता तक का बचाव करने वाले लोगों कों आपने बहुत खूबसूरत और प्रभावी ढंग से जवाब दिया है। गजल के सभी शेर बहुत सुन्दर हैं। इसके लिये आपको बहुत बहुत बधाई।
और कोई था जो कोई तेरी हर बात पे हँसता रहता था;
ग़म देकर ही जो खिलते हैं हम तो ऐसे छाले हैं।
वह कायर था, नाज़ुकदिल था प्यार-मुहब्बत करता था;
हम मर्दों के क्या कहने हम तो पत्थर-दिल वाले हें।
kisse itni naarajgi hai jataai is baar aapne.kintu gazal aachi lagi.keep writing :)
bhadhaai
सुनीता जी, आप की शंका उचित ही है।
"ग़म देकर ही जो खिलते हैं हम तो ऐसे छाले हैं।"
जैसे आप ने सुना होगा ---मुँह में छाले होना, पैरों मे छाले पड़ना आदि।
www.aksharamala.com/hindi/isb/song/?id=15313 -इस लिंक पर आप एक बेहतरीन उदाहराण पायेंगी।
यहाँ पर "छाले" से मेरा मतलब फफोलों से है; क्योंकि जब छाले होते हैं तो दर्द भी होता है।
अब मैं दूसरी बात पर आता हूँ--जी हां , आप की बात से मैं पूरी तरह सहमत हूँ कि मर्द को भी दर्द होता है ; वह भी रोता भले ही छुपकर ही सही। दरअसल, मैं उन्हीं लोगों की बात करना चाह रहा था जोकि प्यार करने वालों के ख़िलाफ ये कहकर बोलते फिरते हैं कि "क्या लड़कियों की तरह रो रहे हो?"
मैं समझता हूँ कि अब आप सन्तुष्ट होंगी; वैसे मैं अपने मन का एक चोर आप को बताता हूँ--यह लाइनें लिखते समय एक बार मुझे भी ऐसा लगा था कि मैं औरतों के खिलाफ तो नहीं लिख रहा हूँ;लेकिन वास्तव में ऐसा है नहीं;जो लोग मुझे जानने वाले हैं इस बात को जानते हैं और मानते भी हैं। कुछ टाइम ज़रूर लग सकता है लेकिन आप भी इस बात को मान जायेंगी।
पंकज जी,
मैं सुनीता जी और अनुपमा जी की बात से सहमत हूं. शायद "खिलते हैं" से आप का तात्पर्य़ है... "फ़ूटते हैं".. वैसे सभी रोते हैं, कुछ खुल कर और कुछ छुप छुप कर या आंसू पी कर..
हमें आप से नही... आप की नाराजगी से नाराजगी है...
लिखते रहिये...
मैने जब पहले यह पढ़ी तो कुछ बाते समझ नही पाई की आख़िर आप यह ग़ुस्सा क्यूं दिखा रहे हैं और किस पर दिखा रहे हैं ..जैसे की..यह शेर....
तेरी हर ख़्वाहिश को सर-आँखों पर रखता था कोई;
कत्ल करेंगे अरमानों का अब यह हसरत पाले हैं।
या यह ...
वह कायर था, नाज़ुकदिल था प्यार-मुहब्बत करता था;
हम मर्दों के क्या कहने हम तो पत्थर-दिल वाले हें।
पर अब जब आपके लिखने का अर्थ और नाराज़गी का कारण समझ आ गया है ...तो कह सकती हूँ की आपने एक अच्छी कोशिश की है ...अपनी बात को कहने की :)
आपने अच्छा लिखा है । वैसे पुरुषों को भी रोना सीख लेना चाहिये ,मन और शरीर दोनों के स्वास्थ्य के लिए अच्छा रहेगा ।
घुघूती बासूती
श्रीमानजी
पंकज जी आप ग़ज़ल के काफिया रदीफ को तो थोड़ा घोंट लेते हो पर बहर (छन्द) का क्या.और ख्याल के तो क्या कहने कहीं की ईंट कहीं का रोड़ा भानुमती नो कुलबा जोडा.
ग़म देकर जो खिलते हैं हम तो ऐसे छाले हैं.
गम लेकर जो खिलते हैं हम तो ऐसे छाले हैं अगर करें तब बात कुछ समझ में भी आये.ग़म देकर खिलने वाले आपके छाले नई किसम के हैं.प्यार करने का चान्स मिले तो पत्थर दिल वाले भी टूट पड़े.पंकज जी ये वाह वाह करने वालों से जरा बचकर रहिये.subhash_bhadauriasb@yahoo.com
khub kahi !!!
"ग़म देकर ही जो खिलते हैं हम तो ऐसे छाले हैं।
मुझे यह बहुत आवश्यक लग रहा है कि मैं इस पंक्ति का तात्पर्य स्पष्ट करूँ।
यहाँ पर छालों के खिलने से मेरा तात्पर्य उनकी साइज़ बढ़ने से है, मतलब कि श़ायर अपनी तुलना उन छालों से करना चाह रहा है जोकि किसी को कष्ट पहुँचाकर ही खुश होते हैं या खिलते हैं (आप में से जिन लोगों को अपने जीवन में छालों का अनुभव होगा वे इस बात को समझ रहे होंगे कि जलने तुरन्त बाद दर्द उतना तेज नहीं होता,लेकिन जब छाले पड़ने लगते हैं तो दर्द बढ़ रहा होता है और यह बात भी ग़ौर करने लायक है कि वह द्रर्द छालों के साथ ही जाता है।)
अच्छा लिखा है पंकजजी,
अब यह मत पूछना कि प्रविष्टि में या टिप्पणियों में :)
पंकज जी क्षमा चाहता हूँ देरी से प्रतिकृया दे रहा हूँ। गज़ल सुन्दर बन पडी है। गहराई भी है। तथापि "ग़म देकर ही जो खिलते हैं हम तो ऐसे छाले हैं" आपका स्पष्टीकरण भी इसे स्पष्ट नहीं कर पा रहा है।
ये पंक्तियाँ सुन्दर बन पडी हैं:
"इश्क़ की हमसे बात ना करना अब हम दुनिया वाले हैं;
दर्द नहीं मेरी आँखों में इनमें खुशी के उजाले हैं"
"पागल था पागलपन में हमराज़ बना डाला तुमको;
ढेरों राज दफन इस दिल में अब ऐसे दिलवाले हैं।"
*** राजीव रंजन प्रसाद
गज़ल की नाप तौल कर सकने की तमीज तो नहीं है मुझे..पर ऊपर से बेहद सपाट सी दिखने वाली इस रचना पर की गयी टिप्पणियों मे रचना से ज्यादा रस मिला । अपनी व्याख्या स्वयं करनी पड़ जाये, ऐसा दिन ना ही देखना पडे किसी रचनाकार को....गजल के लिये बधाई..
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