नन्हीं परी
खो गये आज लफ़्ज़ मेरे कैसे में लिखूँ वो दास्तान
जिसको करते हुए उस हैवान का दिल काँपा नहीं
फिर से " निठारी का क़िस्सा" बन गयी एक मासूम ज़िंदगी
आज फिर से इंसानियत शर्मसार हुई है !!
आज फिर से उसको एक खिलौना समझ के तोड़ा गया
दे के आइस-क्रिम का लालच उसकी अस्मत को लूटा गया
फिर से दोहराई गई वही वहशत की दासताँ
फिर से लड़की होने का तगादा किया गया।
मुरझा गयी फिर से एक कली मेरे देश के बाग़बाँ की
फिर से आज एक मासूम को भरे बाज़ार में नंगा किया गया
फिर से छीन ली एक नन्हीं कली की मुस्कान
फिर से उसकी पहचान को मिट्टी तले रोंदा गया
उड़ेगी बस "ख़बरो " में इस किस्से की धज्जियाँ
क्या बीता उस मासूम के दिल पर यह कब सोचा गया
यूँ ही कब तलक़ मुर्झाती रहेगी मेरे देश की मासूम कलियाँ
कभी दे के उसको कोख में क़ब्र, कभी यूँ जीना मुश्किल किया गया!!
जाने कब समझा पाएगा यह समाज़ एक मासूम के दर्द को
क्यूँ उसका जन्म लेना हर बार यूँ अभिशापित ही समझा गया !!
रंजू
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12 कविताप्रेमियों का कहना है :
रंजना जी.
कविता का भाव पक्ष बहुत गहरा और गंभीर है। इस विषय पर कवयित्रि होने साथ ही एक स्त्री होने के कारण आपका दु:ख स्पष्ट है और वह कविता की पंक्तियों के साथ बखूबी निकला भी है।
"फिर से लड़की होने का तगादा किया गया"
"क्या बीता उस मासूम के दिल पर"
"यूँ ही कब तलक़ मुर्झाती रहेगी मेरे देश कि मासूम कलियाँ
कभी दे के उसको कोख में क़ब्र, कभी यूँ जीना मुश्किल किया गया!!"
"क्यूं उसका जन्म लेना हर बार यूँ अभिशपित ही समझा गया"
सवाल उठाना आपकी नैतिक जिम्मेदारी थी, किंतु इस कायर समाज के पास इसके उत्तर नहीं।
*** राजीव रंजन प्रसाद
जाने कब समझा पाएगा यह समाज़ एक मासूम के दर्द को
क्यूँ उसका जन्म लेना हर बार यूँ अभिशापित ही समझा गया !!
रंजू जी, आप ने बहुत ही उचित प्रश्न उठाया है।
ज़रूरत है मानसिकता बदलने की। सोचने वाली बात है कि जो समाज कभी मातृसत्तात्मक था, जहाँ पर अर्द्धनारीश्वर की परिकल्पना कि गयी थी; उसी समाज में स्त्रियों को एक संसाधन के रूप में देखा जा रहा है। उसे एक उपभोग की वस्तु से अधिक नहीं समझा जा रहा है। आप को नहीं लगता है कि चूक हमसे ही हो रही है।
रंजना जी,
जिन्दगी की बिसात पर हम तुम
चालें चलते हैं, खुद ही मोहरे हैं
कैसे बदलेगा ये नजरिया दुनिया का
मापदण्ड हम सब के दोहरे है
रन्जू जी बहुत खूब अच्छा लिखा है,..मगर पंकज जी बिलकुल सही कहते है,इसमें कही ना कही हम भी जिम्मेदार है,न औलाद को अच्छी शीक्षा मिल पाती है ना ही संस्कार,हमेशा देखा गया है की जो व्यक्ती मानसिक रूप से विकृत होता है वही एसा करता है,,,और मानसिक विकृतियाँ एक नाबालिक बच्चे में तब उत्पंन होती है जब उसकी जिज्ञासाओं को माता-पिता शांत नही करपाते या उन्हे सही शिक्षा नही मिलपाती,...और बड़ा होकर वह एक घिनौना रूप ले लेता है,..
सुनीता(शानू)
रंजनाजी,
सर्वप्रथम तो मनोभावो और पीड़ा को सुन्दर काव्य रूप देने के लिये बधाई!!!
सामाजिक बुराईयों कि तह में जाओगे तो बहुत कुछ स्पष्ट नज़र आयेगा मगर सवाल यह है कि कितने व्यक्ति होंगे जिनमें यह सब देखने की इच्छा और साहस होगा?
हर बुराई व्यक्तिजनित ही है रंजनाजी.
aapki kavita ki ek ek pantki man ko door tak chuuti hai aur phir is prashna ka jawaab hamaare samaaj ke paas nahi hai.....phir man vyathit ho gaya kassh un jaanwaron ko bhi kabhi yeh baat samajh aaye..
ranjana G Bahut Khoob likha Hai aap nay jo dard hai is Kavita main bahut he dil pay chot karnay wala hai muajay itna soochna toh nahi aata kyonki main kabi itna Sooch B nahi sakta, parantu mujhe padnay ka bahut he Shauk hai,app meri Fav. pehlay say he ban chuki hain,aisay he liktay rahain
God bless U 2 write more then dis,
रंजना जी,
हम आपको पाकर बहुत खुश हैं। हम इस मंच से आपजैसे कवियों और कवयित्रियों की ही मदद से समाज से गंभीर सवाल पूछने लगे हैं। आप भी नए सवाल लेकर आई हैं-
उड़ेगी बस "ख़बरो " में इस किस्से की धज्जियाँ
क्या बीता उस मासूम के दिल पर यह कब सोचा गया
यूँ ही कब तलक़ मुर्झाती रहेगी मेरे देश की मासूम कलियाँ
कभी दे के उसको कोख में क़ब्र, कभी यूँ जीना मुश्किल किया गया!!
जाने कब समझा पाएगा यह समाज़ एक मासूम के दर्द को
क्यूँ उसका जन्म लेना हर बार यूँ अभिशापित ही समझा गया !!
शायद इस तरह की घटनाओं को मानसिकता बदलकर रोकने का संदेश भी इस कविता में छुपा हुआ है।
उत्तम रचना, एक ऐसे विषय पर, जिसका नाम आते ही हम सब एक ही ओर हैं..अनुचित, घ्रणित, दानवी... पर शायद मन के किसी कोने में, जीवन के किसी और पहलू में, सामने नहीं तो पीठ पीछे, इसी सच्चाई को हमारा समाज जी रहा है । इतने घ्रणित और नन्गे रूप मे नहीं तो किसी और रूप में, भूणहत्या, दहेज, पुरुष प्रधान मानसिकता....और यहीं यह कविता बाकी सभी कविताओं से थोड़ी ही सही पर अलग हट कर है ।
पर हां, यदि इस घटना पर केवल उपरी तौर पर नहीं भीतर तक पड़्ताल के बाद रंजना जी आतीं, जिसकी कमी ही कमी दिख रही है..बस कहीं कहीं इंगित ही किया है...पर एक अच्छी रचना के लिये बधाई...
रंज्ना दी...
बहुत ही प्यारे तरीके से एक समािजक बुराई का िज़क्र िकया आप्ने... बहुत गह्री और गंभीर बात है, लेिकन बहुत सच्ची भी..
िशखा...
रंजना जी ,आपने जिस समस्या का यहाँ वर्णन किया है, यह सदियों से हमारे पुरूषप्रधान समाज के लिए एक कलंक बनी हुई है।
एक जननी के साथ इस कदर ओछा व्यवहार असहनीय है, परंतु यह कायर समाज इसे होते देख भी रहा है और कहीं न कहीं इसमें भागीदार भी है।
मुझमें आपकी ये पंक्तियाँ ज्यादा हीं असर कर गईं->
यूँ ही कब तलक़ मुर्झाती रहेगी मेरे देश कि मासूम कलियाँ
कभी दे के उसको कोख में क़ब्र, कभी यूँ जीना मुश्किल किया गया!!
जाने कब समझा पाएगा यह समाज़ एक मासूम के दर्द को
क्यूँ उसका जन्म लेना हर बार यूँ अभिशापित ही समझा गया !!
वाह बहुत खूब,
सुन्दर अभिव्यक्ति
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