चौका-बासन करते-करते
सनीचरी कब 'सयान' हो गई
पता ही नहीं चला
चलता भी कैसे
माई के आँख में 'फुल्ली' जो पड़ गई थी।
पर ललना भी कम 'खेलाड़ी' नहीं था
क्या दिन क्या रात
'हरमेशा'
सनीचरी के 'फेर' में।
'एदम' मतवाला हो गया था।
बेचारी सनीचरी!
करती भी क्या
थक-हार के
ललना को दिल दे ही बैठी।
फिर क्या था
मय सीवान
खेत-खलिहान
दोनों के प्यार से
'गमगमा' उठे।
जब पेट में गुदगुदी उठने लगी
उसने ललना को बताया
अगले दिन
ललना 'नापत्ता'!
तब?
तब क्या
माई ने बाबू से कहा
'माहूर दे दो'
बाबू ने कहा, 'नहीं'
फिर माई ने कहा,
'नरई दबा दो'
बाबू ने कहा, 'नहीं'
'तब'?
बाबू- चुप।
एक दिन बाबू ने कहा,-
ललना का पता चल गया है
सनीचरी दुलही जस सज के तैयार
सनीचरी और बाबू
रेल पर बैठे
रेल चली
बाबू उतर गये।
ऐ सनीचरी!
अभागिन!
तुम्हारे जाने के बाद
तुम्हारे बाबू अपनी
नाक के नीचे डूब के मर गये
और तुम्हारी माई
अपने कोख के सरापते-सरापते मर गई।
अगर तुम कहीं मर-खप गई
तो कोई बात नहीं
नहीं अगर जिंदा हो तो
तोहे राम-किरिया
कभी लौट के गाँव मत आना
गाँव का नाम 'बोर' दिया।
और हाँ-
६ महीने बाद ललना लौट आया
उसका बिआह हुआ
अब नाती-पोता खेला
रहा है।
कवि-मनीष वंदेमातरम्
शब्दार्थ-
चौका-बासन- गृहकार्य, सनीचरी- शनिवारी नामक लड़की, सयान- जवान, माई- माँ, फुल्ली- मोतियाबिंद, ललना- ललन नामक युवक, खेलाड़ी- खिलाड़ी, माहिर, हरमेशा- हमेशा, सदैव, फेर में- चक्कर में, एदम- एकदम, बिलकुल, मय सीवान- सम्पूर्ण ग्राम्य क्षेत्र, गमगमा उठे- सुगंधित हो गये, गुदगुदी उठना- गर्भ ठहरने का संकेत, नापत्ता- लापता, रफूचक्कर, माहूर- ज़हर, नरई- गला, दुलही जस- दुलहन जैसी, रेल- ट्रैन, सरापते-सरापते- कोसते-कोसते, मर-खप- मरना, राम-किरिया- राम की कसम, बिआह- विवाह, शादी।
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16 कविताप्रेमियों का कहना है :
मनीष जी..
नितांत संवेदनशील रचना है। एक आम ग्रमीण घटना को जिन गंवई शब्दों में आपने लिखा है उसने कविता को असाधारण बना दिया है। आपने जो खाका खीचा है उसने परिदृश्य इस तरह जीवंत किया है कि कविता में समाधान ढूंढने वालों को भी शिकायत न होगी..आपकी अपेक्षा उनसे भी तो है।
आपको बहुत शुभकामनायें।
*** राजीव रंजन प्रसाद
मनीष जी,
मैं राजीव जी के विचारों से पूर्ण रूप से सहमत हूं.. नितांत संवेदनशील रचना है.. जिसमें एक नारी की बेबसी और उत्पीडन का सजीव चित्रणा है साथ ही दोषी पुरुष को किस तरह से समाज बिना सजा दिये छोड देता है.. इसका उदाहरण भी है....
ईश्वर आपकी लेखनी को और भी सशक्त बनाये.
मनीष जी ने फिर से उसी गम्भीर समस्या पर जिस पर अभी कल ही रंजू जी ने किया था।मनीष जी अपनी बात को इतनी प्रभावी ढंग से अपनी बात कह जाते हैं कि पाठक पढ़ने के साथ ही सब कुछ देखता जाता है और सोचता भी।
सोचने वाली बात है कि जिस 'कोख' की वजह से नारी जगत-जननी कहलाती है, उसी कोख के कारण उसे कभी-२ कलंक का अथाह दुःख भी झेलना पड़ता है।
ज़िम्मेदार कौन?
सनीचरी,ललना,उनके माँ-बाप या पूरा समाज।
सनीचरी की इस कहानी में कुछ ना कुछ 'रोल' तो सबका है।
manish ji
aapki soch padhi aur ye sach hai ki aaj bhi bebas hai nari kahi na kahi har pal uska balidaan hota hai kabhi iachha ka kabhi koi aur
aur to aur ab ye ho gaya hai ki nari khud hi ye samjh chuki hai use balidaan karna hai aur bina soche samjhe hi wo apni sabhi iachha maarti chli jati hai
aapki panktiyan kavita soch bhojpuri main likhi hui bhauta chhi lagi
Manish jee ne samajh ke jis andhere se kone ko prakashit kiya hai....aur vo bhi waha ki hi shally mein sach mein dil khud apni jagah bana le hai....
roz hi aise ghatnaoo ko matra ek khaber banane ke liye khoja jata hai......vo din kab aayega jub inko suljhane ke liye khoja jayega..
ishwer aapki kalam ko vo azadi de ki her andere ko roshni mile.....
archana
आदरणीय लेखक महोदय, गागर मे सागर भरने का प्रयत्न सराहनीय है, बधाई
........ज़ालिम
बहुत संवेदनशील और भावपूर्ण रचना है
ह्रदय के प्रस्फ़ुटित विचार हैं ...एसे में मन सहज ही कह उठता है...
"अपने चिंतन को जीते हो
कितनी तुम पीड़ा सहते हो
कितना तुम अंदर मरते हो
तब जाकर कविता गढ़ते हो
ऎसे ओज पूर्ण भावों पर
गहन वेदना में प्रसूत सी
मुख से फ़ूट पड़ी रचना पर
श्रद्धा से झुकता है यह मन
और देता तुम्हें सलामी है
कैसे दूँ तुम्हें बधाई मैं
कैसे दूँ तुम्हें बधाई मैं"
इस रचना को मैने कई बार पढ़ा और हैर बार इसको पढ़ के कई सवाल दिल में आए ...जिनका जवाब हम अक्सर तलाश करते हैं ...उस पर आपकी यह भाषा ने इस कविता के साथ दिल को बाँध लिया ...
मनीष जी, आपकी इस कविता या गद्य-काव्य में आपने जो समस्या उठायी है, वह निस्संदेह गंभीर है। पर काव्य की दृष्टि से इस बार आपने अपनी प्रतिभा से न्याय नहीं किया। शायद जल्दबाजी में लिखी गयी है ये कविता। बेहतर होता कि आप इसकी जगह गद्य लिखते। शिल्प के अलावा, कथ्य में भी कोई नवीनता नहीं है। ऐसा लगता है जैसे किसी फिल्मी कहानी से आपने यह विचार लिया है। सच कहना बहुत अच्छा है, मगर काव्य सिर्फ कहना नहीं होता। पठनीयता और आकर्षण के बिना कथन को काव्य नहीं कहा जा सकता।
एक संवेदनशील कविता. हालांकि गंवई शब्दों का चयन मुझे कुछ खला, मगर यही रचना की सुंदरता है। बधाई!!!
sach me aurat ki yeh hi kahani hai...kabhi bhi purush ko kisi apradh ki saja nahi milti.....pathetic life of women....anyways such a nice poem and too touchy..and it depicts the reality of the cruel world.gud effort keep it up.
गंवई भाषा का इस्तमाल करके आपने गाँव का वातावरण गढा है। सारे दृश्य आँखों के समने चलते से लगते हैं। आपने एक बेहद हीं गंभीर समस्या को यहाँ उठाया है। गाँव में अशिक्षा के कारण यह स्थिति ज्यादा हीं दृष्टिगोचर होती है। कुल मिलाकर आपने एक बेहद हीं संवेदनशील मुद्दा को संवेदनशील ढंग से प्रस्तुत किया है।
बधाई स्वीकारें।
पढ़ने का आनंद आ गया. गाँव की भाषा में संवेदना के ये बोल दिल को छू गये. 'देहिया' अबतक 'गनगना' रहा है.
बहुत सुंदर रचना है,...यही तो युगयुगांतर से होता आ रहा है,..गांव का सजीव चित्रण है आपकी रचना में,..समाज़ मे औरत को ही हर अच्छे बुरे कामो का परिणाम भुगतना पड़ता है,..
बेहद सवेंदनशील रचना है।
सुनीता(शानू)
Mhinder Ji
Hindi main jo apka blog hai, wo kabile tareef hai, Main India main madhya pradesh se hun, lekin abhi bahut door hun, jab bhi hindi main koi sangrah padta hun to apne desh ki bahut yaad aati hai. Apki rachnayen bahut hi badiyan hain,
Bhoopendra Naroliya
Yangon, Myanmar
मनीष जी, क्या कहूं। आपकी कलम ऐसे ही मजलूमों की पीड़ा उकेरती रहे।
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