इस पुरानी झील के दुर्गम किनारे पर कहीं,
किसी द्युति की ओट में यह खंडहर बनता रहा
है खड़ा चुपचाप, साधे मौन अपने तीर पर
मैं चला था जब प्रवाह-विरुद्ध छूने को शिखर
तब इसी आक्रोश के उन्माद के उस नाद को
कर परावर्तित , हमारे कर्ण में भरता रहा ।
मैं चकित था ,कौन करता कर्णभेदी शोर है,
कौन, जिसके नाद में विद्युत- सरीखा जोर है
कौन जिसके बाजुओं में है गगन बँधता हुआ
आज मेरी ही तरह यह कौन द्रुत बढ़ता हुआ?
फ़िर अचानक नाव मेरी , आ लगी उस छोर पर
कुछ नहीं था , ज्योति फ़ैली थी बड़ी अद्भुत, प्रखर
मध्य में उसके किसी अट्टालिका की शान से
था खड़ा वह भव्य जर्जर ,गर्व से तनता रहा ।
घोर विस्मय ! कल्पना से जनित यदि यह खण्डहर
तो चकित अस्तित्व मेरा आज लघु क्यों निरन्तर
सिमटता सा जा रहा है घिर पुरातन भित्ति से
क्या मनस आकार भी है बदलता इस वृत्ति से ?
दिव्य मेरा रूप उद्धत आज फ़िर नर- काय था
सोचता हूँ क्या यही इस वृत्त का अभिप्राय था;
अहं-उत्थित तेज मिथ्या का हनन करता चले
बस , इसी उद्देश्यरत यह खण्डहर बढता रहा ?
कुछ बढा आगे,बँधा ढाँढस,स्वयं को कर निडर
नेत्र विस्मित ,चरण कम्पित ले चढ़ा जब खण्डहर
देखता हूँ दृश्य वह जो स्वप्न से भी था परे
कोटिशः इस-से खड़े थे खण्डहर सर्वत्र रे !
क्या बला है ?स्वप्न है ,या चेतना कोई नयी ,
खण्डहर में विश्व है या विश्व में जर्जर कई ?
यह हमारा रूप है या हम इसी के हैं बने ,
सोचता-सा ,आँख फ़ाड़े दृश्य वह लखता रहा ।
क्या प्रयोजन !क्यों खड़ा था एक नर हर भित्ति पर ?
क्या चले थे सब हमारी ही तरह छूने शिखर ?
क्या सभी ने थी प्रतिध्वनि सुनी अहं-निनाद की ,
क्या उन्हें भी मिली काया अहं-क्षय के बाद की ?
कोटिशः प्रतिरूप जर्जर और उनपर एक नर
कुछ भ्रमित औ'कुछ चकित थे इस विहंगम दृश्य पर
स्वार्थ-मद का नाश कर,नव सत्य शाश्वत ज्योति को
युग-युगान्ध , भ्रमित दृगों में खण्डहर भरता रहा ।
दीखता था कुछ नया , सबको स्वयं से अब परे,
दूसरों के भी विपद दिखने लगे हमको अरे !
अब नहीं है ठानता कुछ ,स्वार्थ हित मेरा हृदय
विश्व जय हित जो चला , है हो गया कैसे सदय ?
आदमी की मानसिकता का भला अब क्या कहें
पशु-सदृश धुन में स्वयं की हो भ्रमित , बस चल रहें
भूलकर व्यवहार अपना , 'मैं बड़ा हूँ' सोचकर
बात अपने खण्डहर की अनसुनी करता रहा ।
अब पड़ा जब स्वार्थ के अभिमान में व्यवधान है
तो लगा, इस खण्डहर की बात में भी जान है
सोचता हूँ , जो दिखा , वह स्वप्न था या कल्पना ,
आदमी के हृदय में है क्या मनस-जर्जर बना ?
जो दिखाता है सभी को वास्तविकता विश्व की ,
जो हमारे इन दृगों की दृश्टि देख नहीं सकी ।
आज अपने खण्डहर पर हूँ खड़ा मैं सोचता
आदमी क्यों खण्डहर में ही बदलता जा रहा ?
-आलोक शंकर
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9 कविताप्रेमियों का कहना है :
आलोक जी,
आपकी प्रतिभा से प्रभावित हुए बिना नहीं रहा जा सकता। कविता की रवानगी में आनंद है, लम्बी कविता होने के बावजूद पढते हुए कोई शब्द, कहीं नहीं खटकता।
"देखता हूँ दृश्य वह जो स्वप्न से भी था परे
कोटिशः इस-से खड़े थे खण्डहर सर्वत्र रे !
क्या बला है ?स्वप्न है ,या चेतना कोई नयी ,
खण्डहर में विश्व है या विश्व में जर्जर कई ?"
"क्या चले थे सब हमारी ही तरह छूने शिखर ?
क्या सभी ने थी प्रतिध्वनि सुनी अहं-निनाद की ,
क्या उन्हें भी मिली काया अहं-क्षय के बाद की ?"
अब पड़ा जब स्वार्थ के अभिमान में व्यवधान है
तो लगा, इस खण्डहर की बात में भी जान है
आलोक जी बहुत आनंदित किया आपने, बहुत बधाई।
*** राजीव रंजन प्रसाद
क्या बला है ?स्वप्न है ,या चेतना कोई नयी ,
खण्डहर में विश्व है या विश्व में जर्जर कई ?
सचमुच आलोक जी, मानव के अहं के सामने खुद उसी का अन्तःकरण जर्जर खण्डहर होता जा रहा है। इसके बावजूद कभी कभी यह खण्डहर भी हमें सोचने पर मजबूर कर ही देता है।
अब पड़ा जब स्वार्थ के अभिमान में व्यवधान है
तो लगा, इस खण्डहर की बात में भी जान है
भाव सुन्दर व प्रभावी होने के साथ-साथ कविता अपने शिल्प से भी चमत्कृत करती है। तत्सम बहुल शब्दावली होने के बावजूद कविता की सम्प्रेषणीयता बरकरार है। कविता की रवानगी भी पाठक को बाँधे रखती है। कोटिशः बधाई।
बहुत ही सुंदर रचना लिखी है आपने ..आलोक जी ..
क्या मनस आकार भी है बदलता इस वृत्ति से ?
दिव्य मेरा रूप उद्धत आज फ़िर नर- काय था
सोचता हूँ क्या यही इस वृत्त का अभिप्राय था;
अहं-उत्थित तेज मिथ्या का हनन करता चले
बस , इसी उद्देश्यरत यह खण्डहर बढता रहा ?
बेहतरीन कविता। विशेषरूप से मानव मन के खंडहर की अविनाशतता का अच्छा चित्रण किया है आपने। कैसे व्यक्ति भ्रमित होता है, क्या उदाहरण है!
मैं चला था जब प्रवाह-विरुद्ध छूने को शिखर
तब इसी आक्रोश के उन्माद के उस नाद को
कर परावर्तित , हमारे कर्ण में भरता रहा ।
कुछ सवाल जो शायद सबने अपने आप से पूछा होगा-
सिमटता सा जा रहा है घिर पुरातन भित्ति से
क्या मनस आकार भी है बदलता इस वृत्ति से ?
और हर सफलता की यही अभीष्ट है-
देखता हूँ दृश्य वह जो स्वप्न से भी था परे
कोटिशः इस-से खड़े थे खण्डहर सर्वत्र रे !
क्या प्रयोजन !क्यों खड़ा था एक नर हर भित्ति पर ?
क्या चले थे सब हमारी ही तरह छूने शिखर ?
और कन्फ़्यूज्ड होकर सोचता है-
आज अपने खण्डहर पर हूँ खड़ा मैं सोचता
आदमी क्यों खण्डहर में ही बदलता जा रहा ?
बहुत हीं प्रभावी एवं सच्चाई बयां करती रचना है। आलोक जी , क्षमा करेंगे कुछ ज्यादा नहीं कह पाऊँगा ,वक्त के हाथों मजबूर हूँ।
एक अच्छी रचना के लिए बधाई स्वीकारें।
बहुत दिनों के बाद ऐसी तत्सम-युक्त रचना पढ़ सका. दीपक जला कर सूर्य का अपमान नहीं करना चाह्ता हूँ अतएव बिना कुछ कहे जा रहा हूँ.
सुन्दर रचना है... अपने अस्तित्व का पूर्ण ज्ञान मनुष्य को तभी हो पाता है जब वह सँसार को समीप से देखता है और उनसे अपना मिलान करता है.
आलोक जी आपकी कविता बहुत ही सवेंदनशील है,..बहुत लम्बी होने के बावजू़द मन को बांध लेती है,..
सुनीता(शानू)
आपकी लेखनी
एक विशेष प्रभाव छोङती है ।
इस पुरानी झील के दुर्गम किनारे पर कहीं,
किसी द्युति की ओट में यह खंडहर बनता रहा
है खड़ा चुपचाप, साधे मौन अपने तीर पर
मैं चला था जब प्रवाह-विरुद्ध छूने को शिखर
तब इसी आक्रोश के उन्माद के उस नाद को
कर परावर्तित , हमारे कर्ण में भरता रहा ।
मैं चकित था ,कौन करता कर्णभेदी शोर है,
कौन, जिसके नाद में विद्युत- सरीखा जोर है
कौन जिसके बाजुओं में है गगन बँधता हुआ
आज मेरी ही तरह यह कौन द्रुत बढ़ता हुआ?
फ़िर अचानक नाव मेरी , आ लगी उस छोर पर
कुछ नहीं था , ज्योति फ़ैली थी बड़ी अद्भुत, प्रखर
मध्य में उसके किसी अट्टालिका की शान से
था खड़ा वह भव्य जर्जर ,गर्व से तनता रहा ।
घोर विस्मय ! कल्पना से जनित यदि यह खण्डहर
तो चकित अस्तित्व मेरा आज लघु क्यों निरन्तर
सिमटता सा जा रहा है घिर पुरातन भित्ति से
क्या मनस आकार भी है बदलता इस वृत्ति से ?
बहुत सुंदर कविता...
अलोक जी
बधाई
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