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Saturday, April 28, 2007

आँख है यदि नम हमारी


झील से लेकर गिरी थी
यह प्रवाहों की प्रबलता,
ज्यों किसी के विकल सागर
की उबलती हो विकलता,
किसी घुप, चुपचाप कोने,
में बही मन की तरलता ।
बूँद आँसू की ढलककर,
गाल पर रेखा बनाती ;
आर्द्र करती,जी जलाकर
बोझ थोड़ा ढो रही है

आँख है यदि नम हमारी
मत समझना रो रही है ।

हाँ सही है, आज अपना
मन द्रवित कुछ हो चला है
इस नदी की धार का
कोई किनारा खो चला है
मैं नहीं हूँ वह नदी जो
किनारों पर सर टिकाएँ ,
रत्न ये अनुभूति के
मोती लुटा करके गँवाए ।
तुम समझते हो हमारी
नयी यह अभिव्यक्ति होगी;
यह छलककर गिर पड़ा तो
कम मनस की शक्ति होगी
एक क्षण का है असंयम
बूँद जो यह ढो रही है

आँख है यदि नम हमारी
मत समझना रो रही है ।

यह किसी की ऊष्ण स्मृति से
हिम नहीं पिघला हृदय का;
जल गिरा, तो रंग होता
इंद्रधणुषी दिवोदय का ।
यदि हमारी गाँठ से यह
एक मोती खो गया हो ;
और जीवन का पिटारा
रत्न वंचित हो गया हो ।
कर्म है यह ही यथोचित
बूँद को भी हम बचाएँ
और उसको सीप में भर;
कर जतन,मोती बनाएँ
बस, समझ लो इस नदी में
नई हलचल हो रही है

आँख है यदि नम हमारी
मत समझना रो रही है ।

- आलोक शंकर

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13 कविताप्रेमियों का कहना है :

Reetesh Gupta का कहना है कि -

बूँद आँसू की ढलककर,
गाल पर रेखा बनाती ;
आर्द्र करती,जी जलाकर
बोझ थोड़ा ढो रही है

आँख है यदि नम हमारी
मत समझना रो रही है ।

बहुत सुंदर भाई...बधाई

Anonymous का कहना है कि -

आँख है यदि नम हमारी
मत समझना रो रही है ।

*********************
:love:

Anonymous का कहना है कि -

बूँद को भी हम बचाएँ
और उसको सीप में भर;
कर जतन,मोती बनाएँ
बस, समझ लो इस नदी में
नई हलचल हो रही है

आँख है यदि नम हमारी
मत समझना रो रही है ।
सशक्त भाषा अमुल्य संदेश।बधाई।

रंजू भाटिया का कहना है कि -

बूँद आँसू की ढलककर,
गाल पर रेखा बनाती ;
आर्द्र करती,जी जलाकर
बोझ थोड़ा ढो रही है

सुंदर ..

मैं नहीं हूँ वह नदी जो
किनारों पर सर टिकाएँ ,
रत्न ये अनुभूति के
मोती लुटा करके गँवाए ।
तुम समझते हो हमारी
नयी यह अभिव्यक्ति होगी;
यह छलककर गिर पड़ा तो
कम मनस की शक्ति होगी

आलोक जी ..बहुत अच्छा लिखा है आपने

ghughutibasuti का कहना है कि -

बहुत सुन्दर !
घुघूती बासूती

पंकज का कहना है कि -

बेहतरीन।
जितनी सटीक भाषा, उतने ही सटीक उद्गार।
रचना बिल्कुल दिल को छूकर निकल जाती है।
कुछ लाइनों में आलोक जी का दर्शन नज़र आ जाता है--

रत्न ये अनुभूति के
मोती लुटा करके गँवाए ।
तुम समझते हो हमारी
नयी यह अभिव्यक्ति होगी;
यह छलककर गिर पड़ा तो
कम मनस की शक्ति होगी
एक क्षण का है असंयम
बूँद जो यह ढो रही है

आँख है यदि नम हमारी
मत समझना रो रही है ।
एक बेहतरीन रचना के लिए-साधुवाद।

विश्व दीपक का कहना है कि -

किस पंक्ति को चुनूँ , हर पंक्ति अपने आप में अमूल्य है।
उम्मीद करता हूँ कि आपकी परीक्षा खत्म हो गई होगी और आपके नौकरीशुदा होने में ज्यादा दिन न बचे होंगे। अपने अनुभव मुझसे भी बाँटिएगा , आखिरकार मैं भी आपके हीं क्षेत्र (engineering) का हूँ।

एक दिल से निकली रचना के लिए बधाई स्वीकारें।

Kamlesh Nahata का कहना है कि -

bahut hi khubsurat rachna.

vishesh roop se yeh panktiyan pasand aayi
"
मैं नहीं हूँ वह नदी जो
किनारों पर सर टिकाएँ ,
रत्न ये अनुभूति के
मोती लुटा करके गँवाए । " .

Likhte rahiye .

राजीव रंजन प्रसाद का कहना है कि -

हमेशा की तरह, बहुत ही स्तरीय। किसी गहरी झील से भावनाओं की यह सुन्दर नही बह निकली है।
"बूँद आँसू की ढलककर,
गाल पर रेखा बनाती ;
आर्द्र करती,जी जलाकर
बोझ थोड़ा ढो रही है"
आँख है यदि नम हमारी
मत समझना रो रही है ।

यदि हमारी गाँठ से यह
एक मोती खो गया हो ;
और जीवन का पिटारा
रत्न वंचित हो गया हो ।
कर्म है यह ही यथोचित
बूँद को भी हम बचाएँ
और उसको सीप में भर;
कर जतन,मोती बनाएँ

आपकी कविता के शिल्प से स्तर पर कदचित टिप्पणी कठिन ही है, भावनाये भी मन को निर्झर बनानें में सक्षम हैं..बहुत बधाई।

*** राजीव रंजन प्रसाद

शैलेश भारतवासी का कहना है कि -

आलोक जी,

आपके लिखने का अंदाज़ बहुत अनूठा है। संस्कृतनिष्ठ शब्दों का सुंदर संयोजन कोई आपसे सीखे। एक धीर पुरूष के भावों की अभिव्यक्ति खूब की है आपने। ख़ाककर निम्न पंक्तियों में-

यदि हमारी गाँठ से यह
एक मोती खो गया हो ;
और जीवन का पिटारा
रत्न वंचित हो गया हो ।
कर्म है यह ही यथोचित
बूँद को भी हम बचाएँ
और उसको सीप में भर;
कर जतन,मोती बनाएँ
बस, समझ लो इस नदी में
नई हलचल हो रही है

Gaurav Shukla का कहना है कि -

बहुत सुन्दर,अद्भुत, अनुपम
हमेशा ही आपकी कवितायें पढ कर मन गदगद हो उठता है|
आप बस ऐसे ही लिखते रहिये आलोक जी,आभारी रहूँगा

सस्नेह
गौरव शुक्ल

Anonymous का कहना है कि -

मैं नहीं हूँ वह नदी जो
किनारों पर सर टिकाएँ ,
रत्न ये अनुभूति के
मोती लुटा करके गँवाए

यह छलककर गिर पड़ा तो
कम मनस की शक्ति होगी
बूँद को भी हम बचाएँ
और उसको सीप में भर;
कर जतन,मोती बनाएँ
बस, समझ लो इस नदी में
नई हलचल हो रही है

आँख है यदि नम हमारी
मत समझना रो रही है ।

bahut sundar kavita hai alo ji man kucsh ho gaya hai...deri se padhne ki maafi chahungi sachmuch yah na padhti to kuch bahut aacha padhne se vanchit rah jaati

सुनीता शानू का कहना है कि -

आलोक जी हर पक्तिं लाजवाब है बहुत सुन्दर सरल तरीके से आपने भावपूर्ण रचना प्रस्तुत की है जितना कहा जाये कम ही है,..एक कसक सी है इस कविता में जो बार-बार पढ़्ने को मज्बूर करती है,..
आँख है यदि नम हमारी
मत समझना रो रही है ।
और फ़िर उस बून्द का मूल्य बताना...
कर्म है यह ही यथोचित
बूँद को भी हम बचाएँ
और उसको सीप में भर;
कर जतन,मोती बनाएँ
बहुत सुन्दर लिख है बधाई।
सुनीता(शानू)

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