अंकघात से ग्रसित है,
यह समाज हमारा।
अंगच्छेद कर रहे है,
ये समाजवादी।
गुंडई के बल पर,
ये राज कर रहे है।
गुजिंत है चारों दिशि मे,
इनके राज के कुकारनामें।
करवा के अपना गुणगान,
गुणवान से अपनी काल गुजारियों का।
दे रहे है धोखा कि
अपराध अन्यों से कम है।
इनकी गिद्ध जैसी कु दृष्टि,
हर आम आदमी पर है।
बस ये कर रहे है इन्तजार
कि वो कब मर रहे है।
आतातायी बन के करते है,
विधायकों की हत्या।
चार दिन की सुहागन को
इन लोगों ने बना दिया बेवा।
सच्चाई है सबके समाने,
भष्टाचार का ग्राफ बढ़ रहा है।
कुप्रचार से भरमाने की कोशिस मत करो,
सच्चाई हर इन्सान जान रहा है।
किये थे इन्होने अनेकों दावे,
सर्वोत्त प्रदेश देगें।
नही चाह सर्वोत्तम की,
बस जैसा हमने तुमको दिया था वैसा ही लौटा दो।
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)
12 कविताप्रेमियों का कहना है :
वाह क्या कविता लिखी है,
डाईरेक्ट तामाचा समाजवादियों को।
काग्रेस का नम्बर कब आयेगा।
वाह, बहुत अच्छे आपने समाजवादियों पर अच्छा प्रहार किया है,...कवि की कलम ही उसका हथियार है,..काश हम सब मिलकर इस देश के लिए कुछ कर जाएं,...अच्छा है काले कारनामो का कच्चा चिठ्ठा खोलने की भरपूर कोशीश करती हुई आपकी इस रचना का स्वागत है,..बहुत-बहुत बधाई।
सुनीता(शानू)
समाजवादी की जगह राजनितिज्ञ कहते तो भी तो वही बात रहती.. :)
महाशक्ति जी ..
बिना लाग-लपेट के आपने अपनी बात सुन्दर तरीके से कही है। मुझे आपकी कविता की अंतिम पंक्तियों से पूर्ण सहमति है:
"नही चाह सर्वोत्तम की,
बस जैसा हमने तुमको दिया था वैसा ही लौटा दो"
*** राजीव रंजन प्रसाद
महाशक्ति जी ..
चाहे समाजवादी हों या राजनेता कहीं न कहीं हम सब भी इस के जिम्मेदार हैं..
शोषण करने वाला और शोषित होने वाला दोनों ही दोषी है... आप के प्रहार की सराहना करता हूं
अच्छा प्रहार किया है प्रमेन्द्र जी आपने, झूठे प्रचार के दम पर खुद को सर्वश्रेष्ठ साबित करने का प्रयास करने वालों पर। परंतु सिर्फ समाजवादी ही दोषी नहीं, राजनीति के इस हमाम में तो सभी नंगे हैं और हम लोग खुद भी किसी तरह अपने को दोषमुक्त नहीं कह सकते।
आपकी ही तरह हर व्यक्ति कब जगेगा? जितना दिन जगने में लगेगा, समझ लीजिए उतने दिनों तक कविताओं में इस तरह का रोष दिखता रहेगा।
नही चाह सर्वोत्तम की,
बस जैसा हमने तुमको दिया था वैसा ही लौटा दो।
aachi prastuti aur aachi baat aache tarike se kahi.mubaarakaa
महाशक्ति जी , मुझे आपकी यह रचना तथ्यगत दॄष्टि से बहुत हीं प्रभावी और सच को उगलती-सी लगी। परंतु काव्यगत दृष्टि से मुझे इसमें कुछ कमी-सी खल रही है। उम्मीद करता हूँ कि आप इसे अन्यथा न लेंगे।
"नही चाह सर्वोत्तम की,
बस जैसा हमने तुमको दिया था वैसा ही लौटा दो"
राजनीति और राजनीतिज्ञों पर करारा वार करने वाली इस रचना के लिए बधाई स्वीकारें।
समाजवादी मंच तले छूपे समाजवाद का अच्छा चित्रण किया है आपने, यह देश का दूर्भाग्य है। आपकी अंतिम पंक्तियों से हर कोई सहमत होगा, सिर्फ राजनेता नहीं...
'up me dam hi' ka jikr nahi aaya....?
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)