क्या है जीवन, क्या है लक्ष्य,
क्या है इस जीवन का लक्ष्य,
क्या है इन श्वासों का मतलब,
क्या वह जीवन व्याख्या है?
अजब है अचरज, अजब अचंभा,
इस दुनिया का गोरखधंधा,
जिस आयाम में रहता है,
अनभिज्ञ उसी से रहता है,
जिस नौका में बहता है,
नही जानता वह क्या है।
जीबन क्या है नही जानता,
जीना क्या है नही जानता,
जीवन जीना आखिर क्या है,
पूरा जीवन नही जानता।
सत्य की खोज में जाता है,
दिग्भ्रम हर क्षण पाता है,
हर्षित, पूलकित, मुर्छित, चिंतित,
हर भाव विकल कर जाता है।
सोता है उठ जाता है,
उठकर फिर सो जाता है,
हर सुर्य अस्त हो जाता है,
हर पूष्प इक दिन मुरझाता है,
मानव जन्म जो पाता है,
हर ऍक क्रिया दोहराता है।
सोमवार से रविवार तक,
रविवार से शनिवार तक,
वर्ष के बारह मास में रहता,
जीवन के हर वर्ष को सहता,
क्षण क्षण करके दिन है बनता,
दिन दिन वर्ष बन जाता है।
ना यह है विधि का विधान,
ना कोई ईश्वर आज्ञा है,
मां की गोद से चिता की अग्नि,
यही बस जीवन व्याख्या है।
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)
10 कविताप्रेमियों का कहना है :
वरूण तुम्हारी रचना में बहुत गहराई है,..सचमुच सारा जीवन बीत जाता है फ़िर भी एक ही सवाल सिर उठाए ख़ड़ा नज़र आता है,...
क्या है जीवन, क्या है लक्ष्य,
क्या है इस जीवन का लक्ष्य,
क्या है इन श्वासों का मतलब,
क्या वह जीवन व्याख्या है?
जो सच है यहि है कि....
ना यह है विधि का विधान,
ना कोई ईश्वर आज्ञा है,
मां की गोद से चिता की अग्नि,
यही बस जीवन व्याख्या है।
सब कुछ जानते हुए भी जीना है,...
अच्छी रचना है
सुनीता(शानू)
वरुण जी..
आपने दार्शनिक हो कर यह रचना लिखी है। पढ कर आनंद आ गया। जीवन की आपकी व्याख्या चिर सत्य है:
"मां की गोद से चिता की अग्नि,
यही बस जीवन व्याख्या है"
सुन्दर रचना के लिये बधाई..
*** राजीव रंजन प्रसाद
अजब है अचरज, अजब अचंभा,
इस दुनिया का गोरखधंधा,
जिस आयाम में रहता है,
अनभिज्ञ उसी से रहता है,
जिस नौका में बहता है,
नही जानता वह क्या है।
जीबन क्या है नही जानता,
जीना क्या है नही जानता,
जीवन जीना आखिर क्या है,
पूरा जीवन नही जानता।
बहुत ही सुंदर और गहरे भाव वाली रचना लिखी है आपने वरुण जी
बहुत सुन्दर! जीवन के दर्शन को बहुत गहरे से देख रहे हो, प्रस्तुत कर रहे हो ।
घुघूती बासूती
मनुष्य के जीवन-वृत्त का कम शब्दों में व्याख्या करना शायद बहुत मुश्किल है। यह दार्शनिकों के वश की बात है। अगर आपको दार्शनिक कहा जाये तो बुरा न मानिएगा।
जैसाकि आपने मुझसे कह रखा है कि मैं आपकी कविताओं में मात्राओं की गलतियाँ रेखांकित करूँ, तो लीजिए-
जीबन- जीवन
नही- नहीं
पूलकित- पुलकित
मुर्छित- मूर्छित
सुर्य- सूर्य
पूष्प- पुष्प
ऍक- एक
क्षण क्षण- क्षण-क्षण (जब एक ही शब्द समान अर्थों में दो बार आये तो दोनों को योजक-चिह्न (हाइफ़न) से जोड़ें)
दिन दिन- दिन-दिन
ना- न (कहने में तो लोग 'ना' बोलते हैं, मगर प्रयोग के हिसाब से 'न' शुद्ध है)
Sunita जी, राजीव जी, Ranjana जी, ऍवम घुघूती जी, आप सब की टिप्पणीयों के लिये कोटि-कोटि धन्यवाद।
शैलेश जी, हमेशा की तरह आपके द्वारा इंगित त्रुटियों का भविष्य में ध्यान रखुंगा।
वरुण जी,
जिसने जीवन लक्ष्य साध लिया, बही पार्थ कहलायेगा... बस हम चिडिया देख पाते है उसकी आख नही... अच्छा लिखा है.. और आगे इससे भी अच्छी रचनाओ की आपेक्षा है आपसे..
ना यह है विधि का विधान,
ना कोई ईश्वर आज्ञा है,
मां की गोद से चिता की अग्नि,
यही बस जीवन व्याख्या है।
ek dum daarshnik baat ki hai aapne.yahi satya hai jeevan ek chakra hai jiska koi or chor nahi hai. likhte rahiye...khoobsurat likha hai.
bhadhaai sweekaaren
अच्छा लिखा है वरूणजी,
श्वासों का मतलब और जीवन व्याख्या बहुत ही कम लोग जान पाते हैं। बधाई!!!
bahut acchi kavita hai . beech main prabhav thoda mand hota hai lekin phir lay main ghool jaati hai .
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