माँ,मुझको अब संरक्षण दे!
कोटि दृगों से विरहित मन को निज नयनों के दो कण दे!
सुन, अभ्रों ने शीश झुकाया जो,
बन रत्नाकर मैं लहराया।
कुछ सरवर थे राहों में खड़े,
नीरद ने उनकों अपनाया।
हमने जो बात रखी अपनी,
प्रभुवर का स्वर फिर घहराया।
वे निर्धन हैं इस धरती पर,
सो घन-धन है उनने पाया।।
निज गेह से विस्मृत उदधि को वसुधा तू हीं आलंबन दे,
कोटि दृगों से विरहित मन को निज नयनों के दो कण दे।
जो दिवस ढला अंबर में तो
रजनी ने चादर फैलाया।
था रत्न-जड़ित वसन उसका,
तारों को उसने छिटकाया।
बड़े सघन-विरल थे रूप बने,
सहसा हमने अंतर पाया।
लगे चाँद अकेला था नभ में,
दो टूक था नभ यूँ मुरझाया ॥
विभाजनरत इस व्योम में अब ध्रुवतारक को भी आरक्षण दे,
कोटि दृगों से विरहित मन को निज नयनों के दो कण दे।
-विश्व दीपक 'तन्हा'
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8 कविताप्रेमियों का कहना है :
ab aarakshan dhruv tarak ko bhi chahiye!
ekdam badhiyaa
badhai.
आपका अपनी बात कहने का तरीका भी विलक्षण है। मुझे विशेषकर ये पंक्तिया बहुत प्रभावी लगीं:
जो दिवस ढला अंबर में तो
रजनी ने चादर फैलाया।
था रत्न-जड़ित वसन उसका,
तारों को उसने छिटकाया।
बड़े सघन-विरल थे रूप बने,
सहसा हमने अंतर पाया।
लगे चाँद अकेला था नभ में,
दो टूक था नभ यूँ मुरझाया ॥
विभाजनरत इस व्योम में अब
ध्रुवतारक को भी आरक्षण दे,
कोटि दृगों से विरहित मन को
निज नयनों के दो कण दे।
बहुत खूब।
*** राजीव रंजन प्रसाद
जो दिवस ढला अंबर में तो
रजनी ने चादर फैलाया।
था रत्न-जड़ित वसन उसका,
तारों को उसने छिटकाया।
बड़े सघन-विरल थे रूप बने,
सहसा हमने अंतर पाया।
लगे चाँद अकेला था नभ में,
दो टूक था नभ यूँ मुरझाया ॥
बहुत ही सुंदर लिखा है आपने ....
bahut hi khoob soorat kavita likhi hai..maharaaj..meri taraf se badhai sweekarein....
था रत्न-जड़ित वसन उसका,
तारों को उसने छिटकाया।
बड़े सघन-विरल थे रूप बने,
सहसा हमने अंतर पाया।
बहुत ही सुन्दर! विश्वजी आपने सुन्दरता से अपनी बात कही है, शब्द चयन और संयोजन दोनों ही सटिक है। बधाई!!!
लगता है सभी कवि मित्र गूढ अर्थों वाली कवितायें लिखने पर उतर आये हैं..
सुन्दर रचना व सटीक शब्दों को शैलीबद्ध करने के लिये बधायी.
संस्कृतपरक शब्दों का सटीक प्रयोग एवं सुन्दर शब्द संयोजन आपकी विशेषता है
बहुत सुन्दर कविता
बधाई
सस्नेह
गौरव शुक्ल
सुन्दर कविता के लिये बधाई स्वीकारें।
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