मेरा कोई आकार नहीं
कोई रूप साकार नहीं ...
शिव की जटाओं से जन्मा
तपस्या का मोल,गंगा नाम मिला
पावन हूँ ये कहते हैं
पाप मुझी में धुलते हैं
पुष्प,बेल-पत्ते,दिये जलाते
सुबह साँझ आरती उतारते
मुहल्ले में मृत्यु किसी कि होये
अस्थियाँ मुझी मे बहाते हैं
आस्था! मरण पश्चात स्वर्ग मिलेगा
फिर शिव ने जटा में क्यूँ न धरा मुझे?
सब ग्रहण कर मैं चलता चला
श्रद्धा के घूँट निगलता चला
मैं चलता चला....
ऊँची-ऊँची पर्वतों की श्रृंखलायें
मेरा पथ निर्धारित करतीं
इतनी ऊँचाई से गिरा
फिर झरना बनना कठिन कहाँ!
कुदरत प्रफुल्लित होती मेरा यह रूप देख कर
भूल जाता हूँ उस चोट को
जो लगती पत्थरों पर गिर कर
विश्व भ्रमण करने चलता चला
बर्फ की मूँठ से पिघलता चला
मैं चलता चला....
बहता-बहता रंगत मे हुआ काला
अब पहचान मेरी गन्दा नाला
सुन लो बात रहस्य की कहता हूँ
भले काले में मिल सब होता काला
किन्तु समा लेता हर रंग को,सिर्फ रंग काला
न जाने क्यूँ नाक मूँद कर गुज़रते
लोग मुँह से पिचकारी मारते
चलो इसी बहाने मेरी शरण में आयी
डेरा डाले बूढी को धुत्कारता नहीं कोई
समतल शान्त मैं सङता चलता चला
लाचारी के ठूँठ सा ढलता चला
मैं चलता चला.....
खाडी से गुज़रा सागर से जा मिला
न उसने रूप देखा न देस पूछा
समेट लिया मुझमें मुझे ही
लहर लहर कर लहरता हूं
साहिल से टकराता हूँ
कण-कण मुझमें भीगकर
जब वो बाहें फैलाये
तो सागर में लौट जाता हूँ
अजीब अनोखी है न माया?
साहिल है वो सदा से मेरा
फिर भी नियति,मैं सागर में रहता
तृष्णा दबोचे लहराता चलता चला
संवेदनओं को कूट मैं मचलता चला
मैं चलता चला....
कभी बादलों मे रहता हूँ
और तलाब में गिरता हूँ
कुयें मे घुटता,गगरी से छलकता हूँ
किसी का पसीना ,या मरते का आखिरी निवाला हूँ
कभी बरखा बहार तो कभी
चातक का इन्तज़ार हूँ
उसकी आँखों से टपक कर आशा बन जाता हूँ
मय के प्याले में मिल,मय की भाषा बन जाता हूँ
सर्व न्योछावर कर मै रिस्ता चलता चला
दर्द के फव्वारे सा फूट थिरकता चला
मैं चलता चला....
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10 कविताप्रेमियों का कहना है :
कविता अच्छी है। कुछ पंक्तियाँ विशेष रूप से प्रभावी हैं....
"श्रद्धा के घूँट निगलता चला
मैं चलता चला...."
"भूल जाता हूँ उस चोट को
जो लगती पत्थरों पर गिर कर
विश्व भ्रमण करने चलता चला.."
"तृष्णा दबोचे लहराता चलता चला
संवेदनओं को कूट मैं मचलता चला"
और अंत भी अच्छा किया है आपनें
"चातक का इन्तज़ार हूँ
उसकी आँखों से टपक कर आशा बन जाता हूँ
मय के प्याले में मिल,मय की भाषा बन जाता हूँ
सर्व न्योछावर कर मै रिस्ता चलता चला
दर्द के फव्वारे सा फूट थिरकता चला
मैं चलता चला...."
*** राजीव रंजन प्रसाद
साहिल है वो सदा से मेरा
फिर भी नियति,मैं सागर में रहता
तृष्णा दबोचे लहराता चलता चला
संवेदनओं को कूट मैं मचलता चला
बहुत ख़ूब ....बहुत ही अच्छे हैं भाव .पढ़ना अच्छा लगा
प्रत्येक पंक्ति मे बांधे रखा है आपने, पढ़कर अच्छा
लगा।
पर शिकायत है कि आपने शीर्षक का चुनाव ठीक नही किया, अगर यह गंगा कि व्यथा शीर्षक होता तो बात कुछ और होती।
पर अन्तिम पंक्तियॉं इसे किसी नदी के नाम पर रहने नही दे रही है।
अच्दी कविता
अच्छी कविता है। नदी के उद्गम से लेकर, उसके सागर में मिलने तक का प्रभावी चित्रण है।
बहुत सुन्दर विषय है कविता का
और भाव भी अच्छे हैं
"सब ग्रहण कर मैं चलता चला
श्रद्धा के घूँट निगलता चला"
.
.
यद्यपि कविता का विषय बहुत गम्भीर है और कदाचित इस विषय पर लिखना आसान भी नहीं है तथापि कवियित्री की क्षमता और विलक्षण लेखन से परिचित हूँ इसलिये कह सकता हूँ कि कविता और भी सुन्दर हो सकती थी|प्रवाह की कमी भी खटकती है कहीं-कहीं
सस्नेह
गौरव शुक्ल
सुन्दर व सार्थक रचना
जल धारा जब अपने उदग्म से निकलती है, उस समय वह अत्यन्त निर्मल व प्रवाह शाली होती है.. परन्तु हम जैसे संवेदना हीन लोगों की बस्ती में पहुंच कर यह निर्मल धारा भी मलीन व प्रवाहहीन हो जाती है...
एक तो इतनी लम्बी कविता और प्रवाह का नाम नहीं।
पाठक बोर हो सकता है। अनुपमा जी! कविता चाहे लयबद्घ हो या अलयबद्घ, दोनों में प्रवाह होना चाहिए और सम्भवतः आपकी इस कविता में प्रवाह का सर्वथा अभाव है।
कविता इतना कुछ कह रही है कि कहीं कहीं बोझिल भी हो जाना उतना अखरता नहीं जितना कि कहीं कहीं तुक, तत्सम और उपदेश के लिये इतना आग्रह कि आत्मकथा उबाऊ बन जाती है । (वैसे अधिकतर आतमकथायों लेखक के अतिरिक्त पाठकों के लिये सरस, बहुत कम ही हो पायी है....विधा का ही दोष है, लेखिका अन्यथा न लें)
जीवन के हर छोटे से छोटे भाग विभाग अनुभाग में जीवन रस बन जल ही थिरकता चल रहा है । जल उदभव है, जल जीवन , जल तांडव भी...
भाव विचार बोझिल होने पर भी इतना विस्तार ...बधाई लेखक(कवि नहीं कह रहा क्योकि कवि ऐसी रचनायें नहीं करते, हां लेखक लिख सकते हैं)
कम शब्दों में मात्र इतना ही कहना चाहूँगा कि आपने पानी के जीवन का संजीव चित्रण किया है।
श्रद्धा के घूँट निगलता चला...
सुन्दर भाव!!!
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