दुखने वाली रग के भीतर मैं अकेला ही रहा
और सबने वो सुना जो जुबां ने कह दिया
शाम थी, तनहाई थी और फुरसत भी बहुत
फिर भी तेरा ग़म नहीं, फिर लिखा तो क्या लिखा
सोचा ख़लक को रूमानियत के कुछ नये अशआर दूं
बिजलियाँ गिरने लगीं, जब वफ़ा कहने लगा
बाकी हर अरमान से तो मिट गया हर फासला
पर तू ही मेरे संग नहीं, जग मिला तो क्या मिला
मंजिलों ने पूछ डाली, राह की हारें तमाम
झूठ क्या कहता उनसे, ना बोल पाया ना चुप रहा
हसरतों से भूख किसकी, मिट सकी है आज तक
एक सपना फिर से देखा, आज फिर भूखा रहा
ढूंढा रब को पत्थरों में और बुजदिलों में हौसला
जिसमें देखा अपना चेहरा, वो गया, मैं खो गया
मोड़ पर वो ही खड़ा था, साथ था कोई दूसरा
तय तो था मुझसे ही मिलना, सब बदल कैसे गया
ऐसा था रुतबा उनका, काँपती थी ख्वाहिशें
मैं जरा कमज़ोर था, काँपने से ढह गया
गुमनाम से, बदनाम से, चुपचाप हैं आशिक सभी
कुछ हुनर मुझको मिला, बेबाक सब कुछ कह गया
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15 कविताप्रेमियों का कहना है :
सौलंकी जी बहुत बढिया लिखा है आपने...
"मंजिलों ने पूछ डाली, राह ही हारें तमाम
झूठ क्या कह्ता उनसे, ना बोल पाया, ना चुप रहा"
"बाकी हर अरमान से तो मिट गया हर फासला
पर तू ही मेरे संग नहीं, जग मिला तो क्या मिला"
"मोड पर वो ही खडा था, साथ था कोई दूसरा
तय तो था मुझसे ही मिलना, सब बदल कैसे गया"
और जहां तक हसरतों की भूख का सवाल है
"यारब दुआ-ऐ-वसल न हरगिज कबूल हो
फिर दिल में क्या रहा जो हसरत निकल गयी"
हसरतों से भूख किसकी, मिट सकी है आज तक
एक सपना फिर से देखा, आज फिर भूखा रहा
ढूंढा रब को पत्थरों में और बुजदिलों में हौसला
जिसमें देखा अपना चेहरा, वो गया, मैं खो गया
बहुत ही ख़ूबसूरत लिखा है आपने ..कई पंक्ति दिल को छू गयी
बहुत ही ख़ूबसूरत...
सौलंकी जी एक और सुन्दर रचना पढ़ने को मिली.
dil baag baag ho gaya.
जिसमें देखा अपना चेहरा, वो गया, मैं खो गया
,,,,,,,
kam shabd,badi adaygi
गौरव सोलंकी जी,
आप अच्छे शायर है इसमें कोई शक नहीं। कुछ शेर मुझे भीतर तक स्पर्श कर गये..
"दुखने वाली रग के भीतर मैं अकेला ही रहा
और सबने वो सुना जो जुबां ने कह दिया"
"हसरतों से भूख किसकी, मिट सकी है आज तक
एक सपना फिर से देखा, आज फिर भूखा रहा"
कुछ शेर हल्के भी लगे, मसलन:
"मोड़ पर वो ही खड़ा था, साथ था कोई दूसरा
तय तो था मुझसे ही मिलना, सब बदल कैसे गया"
मैं गज़ल की प्रशंसा करते हुए कहना चाहता हूँ कि लय में पढते हुए कई जगह रवानगी खटकती है।
*** राजीव रंजन प्रसाद
सुन्दर रचना के लिये बधाई स्वीकार करें।
सच में आप में वो हुनर है कि सबकुछ बेबाक कह जाते हैं। यह ग़ज़ल उसी की नज़ीर है।
"एक सपना फिर से देखा, आज फिर भूखा रहा"
वाह गौरव,
तुम्हारी अद्वितीय क्षमता को क्या कहूँ?
तुम्हारे द्वारा इतनी अनुपम रचनायें पढने को मिल रही हैं
तुम्हारा हृदय से आभार
अभिनन्दन
सस्नेह
गौरव
दुखने वाली रग के भीतर मैं अकेला ही रहा
और सबने वो सुना जो जुबां ने कह दिया
ढूंढा रब को पत्थरों में और बुजदिलों में हौसला
जिसमें देखा अपना चेहरा, वो गया, मैं खो गया
bahut sundar sher likhe hain aapne...bhadhaai sweekaaren
गौरव जी , इस समुदाय का एक अंग बनने के लिए धन्यवाद। आपका इस समुदाय में स्वागत है। किसी कारण वश मैं आपकी पिछली रचनाओं पर टिप्पणी नहीं कर पाया था, अतैव क्षमा कीजिएगा।
दुखने वाली रग के भीतर मैं अकेला ही रहा और सबने वो सुना जो जुबां ने कह दिया
ढूंढा रब को पत्थरों में और बुजदिलों मे हौसला
जिसमें देखा अपना चेहरा, वो गया, मैं खो गया
हसरतों से भूख किसकी, मिट सकी है आज तक
एक सपना फिर से देखा, आज फिर भूखा रहा
ये पंक्तियाँ बहुत हीं प्रभावित करती हैं।
इस कदर हीं लिखते रहिये।
ग़ज़ल के कुछ शेर वास्तव में बहुत अच्छे हैं, जो पाठकों को काफी समय तक प्रभावित रख सकने में सक्षम हैं। मगर ग़ज़ल को समग्रता से देखने पर कुछ कमी नजर आती है। इसका कारण शायद कुछ कमजोर शेर हैं, जो ग़ज़ल की विषयवस्तु से एकाकार नहीं हो पाते। लेकिन ये चंद शेर अगर छोड़ दिये जाते तो ग़ज़ल की लम्बाई भी कम रह पाती और वो ज्यादा प्रभावी भी हो जाती।
कुछ बेहद अच्छे शेरों से सजी यह गजल अभी तक न पढने के लिये माफ़ी चाहूंगा । पहला शेर इतना अपना सा है कि विश्वास सा हो चला है कि खुद अपनी जुबां पर भरोसा रखने वाले भी, सुनाना वही चाहते हैं जो कहते नहीं...दुखने वाली रग के बीत अपनी आवाज दबाये निर्जन मे भतकते निपट अकेले....
दुसरा शेर शायर की तबीयत को रोशन करता है...बीमारी है वही, दवा भी वही...
प्रेम पर होने वाली सिर्फ़ और सिर्फ़ बयानबाजी पर तीसरा शेर बहुत ही खूबसूरती से मजाक सा उडा बैठा है, अपना खुद...
अब हर शेर का क्या कहें....बधाई गौरव...बहुत खूब..."कुछ हुनर मुझको मिला, बेबाक सब कुछ कह गया"
बेबाक बयानी का इन्तजार रहेगा.....यहां तो लुटी पिटी बातें...चिकना चुपडा कर बोल गये हुजूर.....
कुछ शेर तो बेहतरीन बन पडे हैं। जैसे;
मंजिलों ने पूछ डाली, राह की हारें तमाम
झूठ क्या कहता उनसे, ना बोल पाया ना चुप रहा।
गुमनाम से, बदनाम से, चुपचाप हैं आशिक सभी
कुछ हुनर मुझको मिला, बेबाक सब कुछ कह गया ।
लेकिन कुछ, हंसों के बीच में बगुले से लग रहे हैं;
जैसे;
दुखने वाली रग के भीतर मैं अकेला ही रहा
और सबने वो सुना जो जुबां ने कह दिया।
लेकिन कुल मिलाकर एक बेहतरीन रचना़।
मुकर्रर।
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