मेरे दिल देख कर सूरज को, पछताया नहीं करते
वो गोले आग के होंगे, कि लग जाया नहीं करते..
तुम्हारी ही जमीनों पर, जो उगते हैं कुकुर-मुत्ते
वो जंगल कंकरीटों के, न छाया है न फल देंगे
तरक्की किसकी है देखो, गया है कौन चंदा पर
तेरा क्या है, तुझे तो तेरे हल होंगे तो हल देंगे..
बगीचे हैं मुगल राजों के, फूलों की कयारी है,
ये वो गुल हैं जो तुझको देख मुस्काया नहीं करते...
मेरे दिल देख कर सूरज को, पछताया नहीं करते...
गुजर जाते हैं जो रस्ते, वहाँ काँटे बिछाता कौन
कि नंगे पैर, उस पर लौट कर जाना नहीं सोचें
धरातल अपने पैरों का अगर अंगार को बेचा
तो एडी पर उचक कर चाँद को पाना नहीं सोचें
अगर सपनें लुभाते हैं, पसीनें उनको पाते हैं,
पतंगे मोम की लौ में, यूं जल जाया नहीं करते...
मेरे दिल देख कर सूरज को, पछताया नहीं करते...
किसी मोटर नें जब कुचली थी अस्मत तेरी मुन्नी की
लटक कर जान दे दी थी, लगा कर गाँठ चुन्नी की
वकीलों नें उसे जब बेहया साबित किया था तुम
महज लाचार थे, बेबस थे, अपने आप ही में गुम
अगर वो आत्मा भटकी हुई, सोने नहीं देती
तो नाखूनों को पैना कर, ये मर जाया नहीं करते...
मेरे दिल देख कर सूरज को, पछताया नहीं करते...
तेरी ही जंग है, अपना अकेला तू सिपाही है
तेरा अपना पसीना ही लहू है और सियाही है
बहुत सोचो, तुम्हारे सोचने में आग होती है
अगर जागे तो सारी आँख में रतजाग होती है
तुम्हें जो नोचते हैं, उनके पंजों में नहीं ताकत,
पलट कर तुम झपट देखो, वो लड पाया नहीं करते...
मेरे दिल देख कर सूरज को, पछताया नहीं करते...
*** राजीव रंजन प्रसाद
16.03.2007
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)
18 कविताप्रेमियों का कहना है :
बेहतरीन रचना है।
पढ़ कर ऐसा लगा कि जैसे आप दिन्कर या नीरज जी के स्वर में बोल रहे हैं।
मैं इस रचना को आपकी प्रतिनिधी कविता मानूँगा।
जय श्री राम
Dear Rajiv
Poetry is very good! The Flow, the varying length all add to the beauty of poem!
Since U have asked for healthy criticism, it would be unfair to tell that Ur poem could do well without a para किसी मोटर...
Just because of that Ur poem becomes a poet's reaction on current issues than it could be safely placed as a timeless beauty!
Instead look at this option, if it meets Ur taste
किसी कायर ने जब कुचली थी अस्मत तेरी मुन्नी की,
लटक कर जान दी उसने लगा कर गाँठ चुन्नी की,
ज़माने ने बेहया साबित किया और तुम
महज़ लाचार थे, बेबस से अपने ही में गुम
अगर सोती आत्मा तुम्हें सोने नहीं देती,
तो कायरता को खामोशी का जामा पहनाया नहीं करते
मेरे दिल, देख सूरज को पछताया नहीं करते...
Sanjay Gulati Musafir
बहुत ही ख़ूबसूरत लिखते हैं आप ..एक ही साँस में सब पढ़ा गया
एक बेहतरीन रचना है यह ...
तेरी ही जंग है, अपना अकेला तू सिपाही है
तेरा अपना पसीना ही लहू है और सियाही है
बहुत सोचो, तुम्हारे सोचने में आग होती है
अगर जागे तो सारी आँख में रतजाग होती है
सोयी हुयी आत्माओं को झिंझोडती हुयी एंव एक सार्थक संदेश देती हुयी उत्तम रचना
Pile up with your best creations....Blowing heart and soul
achchha geet hai!! bahut kam mauke mile hain jab aapne apni kavitaon ko itni khoobsurat tarike se khatm kiya ho. aakhiri pankti bahut achchhi hai. sadhuvaad!!
किन पंक्तियों को चुनूँ , आपकी हरेक पंक्ति प्रभावित करती है।
आप हरेक विधा में माहिर हैं। फिर चाहे वो तुकांत कविता हो या तुकबंदी-मुक्त ।
मैं रिपुदमन जी से पूर्णतः सहमत हूँ कि आपको पढकर दिनकर जी या नीरज का बोध होता है।
आप हीं के शब्दों में->
तेरी ही जंग है, अपना अकेला तू सिपाही है
तेरा अपना पसीना ही लहू है और सियाही है
बहुत सोचो, तुम्हारे सोचने में आग होती है
अगर जागे तो सारी आँख में रतजाग होती है।
नमस्कार।
वो गोले आग के होंगे, कि लग जाया नहीं करते..
बगीचे हैं मुगल राजों के, फूलों की कयारी है,
ये वो गुल हैं जो तुझको देख मुस्काया नहीं करते...
गुजर जाते हैं जो रस्ते, वहाँ काँटे बिछाता कौन
कि नंगे पैर, उस पर लौट कर जाना नहीं सोचें
धरातल अपने पैरों का अगर अंगार को बेचा
तो एडी पर उचक कर चाँद को पाना नहीं सोचें
अगर वो आत्मा भटकी हुई, सोने नहीं देती
तो नाखूनों को पैना कर, ये मर जाया नहीं करते...
तेरी ही जंग है, अपना अकेला तू सिपाही है
तेरा अपना पसीना ही लहू है और सियाही है
बहुत सोचो, तुम्हारे सोचने में आग होती है
अगर जागे तो सारी आँख में रतजाग होती है
तुम्हें जो नोचते हैं, उनके पंजों में नहीं ताकत,
पलट कर तुम झपट देखो, वो लड पाया नहीं करते...
mujhe sara geet hi pasand aaya hai.
jis kalam ko aapka haath mil jaaye wo kud b khud soneri likhne lagti hai :)
well done,
better than most of the poems i have ever read or written.
you can view mine at
http://nadineti.blogspot.com
and give ur comments if you feel like.
Adit Nigam.
Hello Rajeevji..
Bahut hi achchaa likha hai aapne..
Appko padhkar bahut prabhavit huee hoon.. aage bhi bahut kuch sunnne ki pratiksha mein hoon..
गुजर जाते हैं जो रस्ते, वहाँ काँटे बिछाता कौन
कि नंगे पैर, उस पर लौट कर जाना नहीं सोचें
धरातल अपने पैरों का अगर अंगार को बेचा
तो एडी पर उचक कर चाँद को पाना नहीं सोचें
अगर वो आत्मा भटकी हुई, सोने नहीं देती
तो नाखूनों को पैना कर, ये मर जाया नहीं करते...
poori kavita hi prasansniye hai magar ye kuch panktiyan meri pasandida rahin..
Mujhe tajjub nahin hoga yadi aane wale samay me aapki ye rachna kisi kakshaa ke pathya kram me samil ki jaaye..
likhte rahiye..
Sadar..
vibs
राजीव जी आपकी कविता आते ही जैसे लगता है कि कोई खजाना मिल गया हो। आपकी हर कविता की भातिं यह कविता भी उच्च कोटि की रचना है।
यदि मैं कविता के भाव को ठीक प्रकार से समझ रहा हूँ तो सम्भवतः कवि अपने दिल (मन) को सम्बोधित कर रहा है। ऐसे में पंक्ति बनेगी-
मेरे दिल! देख कर सूरज को, पछताया नहीं करते
वैसे यह इतना महत्वपूर्ण नहीं है।
यह कविता नहीं बल्कि आशावादी दृष्टिकोण का दर्शनशास्त्र है। एक बात जो मैंने अपने जीवन में बहुत क़रीब से महसूस किया है वो अंतिम पंक्तियाँ प्रभावी ढंग से बयाँ करती हैं-
तुम्हें जो नोचते हैं, उनके पंजों में नहीं ताकत,
पलट कर तुम झपट देखो, वो लड़ पाया नहीं करते
राजीव जी, मैं आपकी तारीफ करते करते थक गया हूँ। भाई कभी तो कोई मौका दिया कीजिये, कुछ और कहने का। आपकी हर रचना की तरह ये गीत भी बहुत ही सुंदर है। सचमुच इसे पढ़कर दिनकर और नीरज जी की याद ताजा हो गई। एक बार फिर से बेहतरीन गीत के लिये बधाई।
मंत्रमुग्ध कर दिया इस गीत ने....
"मेरे दिल देख कर सूरज को, पछताया नहीं करते"
.
.
अगर पसंदीदा पंक्तियाँ लिखने चलूँगा तो पूरी कविता दुबारा आ जायेगी यहाँ..
"किसी मोटर नें जब कुचली थी अस्मत तेरी मुन्नी की
लटक कर जान दे दी थी, लगा कर गाँठ चुन्नी की
वकीलों नें उसे जब बेहया साबित किया था तुम
महज लाचार थे, बेबस थे, अपने आप ही में गुम"
अत्यन्त संवेदनशील,कविता के सभी बिम्ब स्वतःस्पष्ट हैं
पुनः "अद्भुत" कृति ने जन्म लिया है आपकी लेखनी से..
बधाई क्या दूँ, ऐसी मन प्रसन्न करने वाले गीत का आस्वादन करवाने के लिये आपका हार्दिक आभार,धन्यवाद
सस्नेह
गौरव शुक्ल
theek hai..achchhi hai...
राजीव की किसी भी कविता पर प्रतिक्रिया देने के नाम पर बस इतना कहना ही काफ़ी होता है कि...बेहतरीन...
खैर इस गीत पर भी बेह्तरीन ही कहा गया..."बगीचे हैं मुगल राजों के, फूलों की कयारी है,
ये वो गुल हैं जो तुझको देख मुस्काया नहीं करते"... व्यन्ग भी मारेन्गे तो ऐसे कि चुभ से जायें ।
बन्धे हुये हैं हम सब..एक अबूझा सा कोहरा है, जिसे राजीव कहते हैं...कुरुमुत्ते सा उगना..वैसे ही बस अपने मे खोये ।
प्रतीक भागते चले आते है राजीव की एक गुहार पर..
अगर सपनें लुभाते हैं, पसीनें उनको पाते हैं,
पतंगे मोम की लौ में, यूं जल जाया नहीं करते...
......बात पुरानी पर पते की और कवि उतना उठाता है..जितना पीछे छोंड़ देता है, पाठक के सोन्चने समझने के लिये, सब कुछ कविता ही कह दे उगल दे तो कविता क्या?
हिन्दी युग्म की कवितायें अपने मे इतनी खोयी हुयी हैं कि राजीव के इस गीत को पढ यकीन नहीं होता कि हिन्दी युग्म पर कविता पढ रहा हुं...सामाजिक सरोकारों से उपदेशत्मकता का नाता जोड़ लिखी जाती कविताओं के बीच...राजीव का कहना कि...
"अगर वो आत्मा भटकी हुई, सोने नहीं देती
तो नाखूनों को पैना कर, ये मर जाया नहीं करते"
.......विश्वास और आशा एक धिक्कार के साथ सामने लाती है, जो सकारात्मक बस, सकारत्मक ।
बधायी हो कवि...... यह कविता प्रतिनिधि है तुम्हारी.....पुरानी कई कविताओं का मिला जुला....सन्श्लिश्ट और सन्ग्रहीत रूप...
क्या टिप्पणी दूँ समझ में नहीं आ रहा...पहले सोचा कि केवल खूबसूरत लिख दूँ मगर फिर ख्याल आया कि क्या मात्र एक शब्द से मैं वो सारी खुशी जाहिर कर पाऊँगा जो इन पँक्तियों के माध्यम से राजीवजी ने दी है?
तुम्हारी ही जमीनों पर, जो उगते हैं कुकुर-मुत्ते
वो जंगल कंकरीटों के, न छाया है न फल देंगे
तरक्की किसकी है देखो, गया है कौन चंदा पर
तेरा क्या है, तुझे तो तेरे हल होंगे तो हल देंगे..
मन को समझाने का यह प्रयास भी खूब रहा।
तुम्हें जो नोचते हैं, उनके पंजों में नहीं ताकत,
पलट कर तुम झपट देखो, वो लड पाया नहीं करते...
हारे हुए में भी विश्वास भरने की कुव्वत रखते है आपके ये शब्द।
Pahele maafi chahti hun,derse yahan likhne ke liye.
Aashawadi kavita hai.
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)