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Saturday, March 17, 2007

दोष बस मेरा नहीं है ।


आज
यदि मैं
हारकर बैठा हुआ हूँ ,
फ़ाँकता असहायता की धूल को
निष्प्राण हो,
तो दोष बस मेरा नहीं है ।

और
अम्बर बांधने को
फ़ैलते ये हाथ
यदि
टकरा किसी दीवार में
हो आज लोहित
काँपते हैं ,
दोष बस मेरा नहीं है ।

आज मंजिल ढूँढते
मेरे कदम द्रुत
चल रहे जो राह दुर्गम,
फ़िर अचानक
राह भी यदि चुक गयी है
दोष बस मेरा नहीं है ।

मन-विहग
उड़ता चला था
पंख का अवलंब लेकर
और यदि
टकरा गया था
एक पिंजर
वही,
जिसमें बंद था वह,
दोष बस उसका नहीं है ।

और यदि
झुकता नहीं है
शीश मेरा
मूर्ति सम्मुख ,
और स्वर
कुछ प्रार्थना का
भी निकलता नहीं मुख से;
कोई ध्वनि यदि
नहीं आई
कहीं
भीतर बसे तुम से,
दोष बस मेरा नहीं है ।
-आलोक शंकर

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14 कविताप्रेमियों का कहना है :

रंजू भाटिया का कहना है कि -

मन-विहग
उड़ता चला था
पंख का अवलंब लेकर
और यदि
टकरा गया था
एक पिंजर
वही,
जिसमें बंद था वह,
दोष बस उसका नहीं है ।

बहुत ही सुंदर ..

और यदि
झुकता नहीं है
शीश मेरा
मूर्ति सम्मुख ,
और स्वर
कुछ प्रार्थना का
भी निकलता नहीं मुख से;
कोई ध्वनि यदि
नहीं आई
कहीं
भीतर बसे तुम से,
दोष बस मेरा नहीं है ।

दिल को छू लिया इन पंकित्यों ने ..

विश्व दीपक का कहना है कि -

और यदि
झुकता नहीं है
शीश मेरा
मूर्ति सम्मुख ,
और स्वर
कुछ प्रार्थना का
भी निकलता नहीं मुख से;
कोई ध्वनि यदि
नहीं आई
कहीं
भीतर बसे तुम से,
दोष बस मेरा नहीं है ।

पिछली दो कविताओं से कवि विवश-सा प्रतीत हो रहा है। अपना सामर्थ्य बताता है , परंतु परिस्थितियों के सामने घुटने टेक देता है। इस कविता में तो कवि अपने अंतर में बसे आत्मा को या यूँ कहें परमात्मा को हीं दोषी ठहरा रहा है। वस्तुतः कवि की मानसिक स्थिति हर उस व्यक्ति की तरह है जो कुछ करना चाहता है।

कविता अपने विषय और बनावट के दृष्टिकोण से संपूर्ण है।
बधाई स्वीकारें।

राजीव रंजन प्रसाद का कहना है कि -

आलोक जी..
प्रसंशनीय रचना है..कविता का अंत मुझे विशेष पसंद आया:

और यदि
झुकता नहीं है
शीश मेरा
मूर्ति सम्मुख ,
और स्वर
कुछ प्रार्थना का
भी निकलता नहीं मुख से;
कोई ध्वनि यदि
नहीं आई
कहीं
भीतर बसे तुम से,
दोष बस मेरा नहीं है ।

*** राजीव रंजन प्रसाद

SahityaShilpi का कहना है कि -

जीवन में कई बार ऐसा होता है कि हम सारे प्रयत्नों के बावजूद अपने उद्देश्य को पाने में सफल नहीं हो पाते। परंतु इस अवस्था में हम आत्मवंचना से तो बच ही जाते हैं, जोकि अपने आप में बहुत महत्वपूर्ण बात है। सफलता सदैव ही प्रयत्न की गुणवत्ता का मापदंड नहीं हो सकता। पराभूत होने की हालत में भी खुद को पराजित न मानने की मानवोचित जिजीविषा को आलोक जी ने बहुत सुंदर शब्दों में पिरोया है। सचमुच दोष सदैव हारने वाले का नहीं होता।

आज मंजिल ढूँढते
मेरे कदम द्रुत
चल रहे जो राह दुर्गम,
फ़िर अचानक
राह भी यदि चुक गयी है
दोष बस मेरा नहीं है ।

बहुत सुन्दर। बधाई आलोक जी।

Mohinder56 का कहना है कि -

सुन्दर सरल शब्द..मनोभावों का सहज चित्रण.. एक परिपक्व रचना...
आप बधाई के पात्र हैं आलोक जी...

योगेश समदर्शी का कहना है कि -

उत्तम रचना के लिये बधाई!!

शैलेश भारतवासी का कहना है कि -

यद्यपि आलोक शंकर बहुत दिनों के बाद अपनी कविता लेकर आये हैं, मगर आये हैं तो पूरी ऊर्जा के साथ।
यह दुनिया और इसके अकाट्य सत्य, कुछ-कुछ इस कविता की तरह ही होते हैं। राही के लिए राह का खोना, घायल पक्षी का पिंजरे से टकराना और आम आदमी का भवतत्ता पर संशय सभी शाश्वत सत्य जैसे हैं। कवि का विप्लव ऐसे ही नहीं है।

Anonymous का कहना है कि -

आलोकजी,

इस प्रवाहपूर्ण कविता का अंत बहुत ही सुन्दर लगा, बहुत दिनों बाद आपकी एक और सुन्दर रचना पढ़ने को मिली -

झुकता नहीं है
शीश मेरा
मूर्ति सम्मुख ,
और स्वर
कुछ प्रार्थना का
भी निकलता नहीं मुख से;
कोई ध्वनि यदि
नहीं आई
कहीं
भीतर बसे तुम से,
दोष बस मेरा नहीं है ।


बहुत सुन्दर!

Anonymous का कहना है कि -

और यदि
झुकता नहीं है
शीश मेरा
मूर्ति सम्मुख ,
और स्वर
कुछ प्रार्थना का
भी निकलता नहीं मुख से;
कोई ध्वनि यदि
नहीं आई
कहीं
भीतर बसे तुम से,
दोष बस मेरा नहीं है ।
this one is the most appealing.aachi prastuti.bhaddhai

Upasthit का कहना है कि -

बधाई आलोक...सुन्दर रचना के लिये.....
हर पन्क्ति गहराये अर्थ रखती है...कई की प्रश्न खडे करती है, हर पन्क्ति..और कविता पाठक से पढवाती है अपने को एक नहीं कई कई बार...अर्थों के उन पर्तों को खोलने के लिये..
प्रश्नों से झूझने की शक्ति ही नहीम...उन्हे खडा कर सकने का साहस भी, प्रश्न्सनीय है । कविता इस उद्देश्य मे सफ़ल रही है ।

Anonymous का कहना है कि -

Great !!! beautiful !!!

Ripudaman

Nikhil का कहना है कि -

बहुत हई सुन्दर कविता है

raybanoutlet001 का कहना है कि -

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caiyan का कहना है कि -

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