न हँसती है दर-ओ-दीवार
न मुस्कुराती हैं खिड़कियाँ
न फिसलती है ख़्वाबों की छिपकली
न ही ताक-झाँक करते हैं रोशनदान
ये कमरा भी
मेरी तरह दीवाना लगता है।
खोलते ही सुनता हूँ
दरवाजे की ज़ंग लगती आवाज़
पता नहीं
कराहता है या खुशी में चीखता है
बिस्तर पर औंधे पड़ी हैं
मुँहज़ोर ख़ाहिशें
ये दर्द तो कुछ
जाना पहचाना लगता है।
है उजाला कहीं अंधेरा
तक़दीर की तरह
कहीं कोने में दुबकी
बुजुर्गों की बातें
खोलो सब खिड़कियाँ-दरवाजे
बड़ा अजीब सा
ये वीराना लगता है।
कवि- मनीष वंदेमातरम्
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11 कविताप्रेमियों का कहना है :
उनकी भी खबर रखना, अपना भी पता देना
आ जाये कोई शायद, दरवाजा खुला रखना
मनीष जी, चाहे दिल का दरवाजा हो या घर का खुला ही रखना चाहिये... मगर साथ ही एक हिदायत... जब आप खुद घर पर हों...चोरी का खतरा है
ह उजाला कहीं अंधेरा
तकदीर की तरह...
बहुत अच्छी कविता है
न हँसती है दर-ओ-दीवार
न मुस्कुराती हैं खिड़कियाँ
अच्छा लिखा है। पर कविता आरंभ में जितनी सशक्त है, उतनी अंत तक नहीं रह पायी है। कुछ और भी बातें हैं जो समझ नहीं आतीं, जैसे 'दरवाजे की ज़ंग लगती आवाज़'। ऐसा लगता है जैसे कवि आवाज को जंग लगने की बात कर रहा हो, जबकि होता यह है कि दरवाजे पर जितनी ज्यादा जंग होगी, आवाज उतनी ही तेज और कर्कश होती है, हालाँकि अगली ही पँक्ति में कवि इसकी तुलना चीखने से करके अपने अर्थ को स्पष्ट कर देता है। फिर भी दरवाजे और खिड़कियाँ खोलने का ये प्रयास अच्छा है।
मनीष जी..
बहुत प्रभावी रचना है। "न फिसलती है ख़्वाबों की छिपकली" "न ही ताक-झाँक करते हैं रोशनदान" बडे ही प्रभावी बिम्ब हैं..
"खोलो सब खिड़कियाँ-दरवाजे" कह कर कविता को आपने सुन्दर पूर्णता दी है।
*** राजीव रंजन प्रसाद
बिस्तर पर औंधे पड़ी हैं
मुँहज़ोर ख़ाहिशें
कहीं कोने में दुबकी
बुजुर्गों की बातें
खोलो सब खिड़कियाँ-दरवाजे
बड़ा अजीब सा
ये वीराना लगता है।
सुंदर प्रस्तुति!!
bahut hee sundar kavitaa...
badhaaii
Ripudaman Pachauri
bahut hee sundar kavitaa...
badhaaii
Ripudaman Pachauri
sahi hai mohinder bhai..bahut aachhi kavita hai...
है उजाला कहीं अंधेरा
तक़दीर की तरह
कहीं कोने में दुबकी
बुजुर्गों की बातें
खोलो सब खिड़कियाँ-दरवाजे
बड़ा अजीब सा
ये वीराना लगता है।
बहुत ही सुंदर भाव लिए हुए है यह रचना
बहुत अच्छा लगा इसको पढ़ना ...
है उजाला कहीं अंधेरा
तक़दीर की तरह
कहीं कोने में दुबकी
बुजुर्गों की बातें
खोलो सब खिड़कियाँ-दरवाजे
बड़ा अजीब सा
ये वीराना लगता है।
आज के संदर्भ में ये बातें बहुत हीं सटीक हैं। इस खुबसूरत रचना के लिए बधाई स्वीकारें।
कवि की व्यैक्तिकता से उपर उठ कविता सामाजिकता से नाता जोड़्ती है, आंखें मूम्दे समाज का, पाठक का । कविता की विशेषता उसकी बस कवि से जुड़ी रह्कर भी हम सब्की अपने आस पास की लगना है । कविता कवि के मैं से है पर समाज के सर्व तक फ़ैली हुयी.....
बधायी...मनीष....आपने ऐसी ही कविता की आशा रहती है...देरी से प्रतिक्रिया के लिये क्षमा....
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