फड़फड़ाता हुआ,
एक अख़बार का टुकड़ा
उसके शरीर से यों लिपट गया
मानों अंतड़िया निकाल कर ही मानेंगा
उसने प्यार से सहलाया
अख़बार के उस टुकड़े को
अपने शरीर से दूर कर
एक नजर से देखा
शायद किसी अख़बार का मुख्य पृष्ठ था
ख़बरें छपी थीं -
“जनता पर मँहगाई की मार”
“भूख से मरेंगे अब इंसान”
वो मुस्कुराया,
अपनी बहादूरी पर
शायद ये अख़बार वाले नहीं जानतें
जो बन सकती थीं
गरीबों की हत्यारिन,
उस भूख को ख़त्म कर दिया है
कब का उसने
वो हमेशा भविष्य की सोचता है
तभी तो
पिछले कईं सालों से
ज्यादा से ज्यादा भूखा रहकर
जीने का अभ्यास कर रहा है…
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24 कविताप्रेमियों का कहना है :
आपके आदेश स्वरुप टिप्पणी कर रहा हूँ, वैसे आप ये भी बता देते कि टिप्पणी क्या करनी है तो आसानी रहती। :)
लगता है आज भूखे रह गए :) अतः अपने मनोभावों को अतिसुन्दर तरीके से व्यक्त किया है।
अभ्यास की बात करें तो, अनिल कपूर की एक पुरानी फिल्म 'वो सात दिन' का एक सीन याद आता है जिसमें भूख लगने पर वह पेट पर कपड़ा बांधता था। उसे वह लंच कहता था।
बड़ी ही पीड़ा दीखती है, आपकी इस कविता में।
वो मुस्कुराया,
अपनी बहादूरी पर
हाँ वो बहादुर तो है आखिरकार भूख को उसने अपनी दृढ इच्छा से मात जो दिया है। मेरी कविता और आपकी कविता में एक अजब-सा रिश्ता नज़र आता है।
टिप्प्णी का आपका आदेश मुझे भी मिला | कविता सचमुच बहुत अच्छी कविता है | एक नंगे सच को आपने सामने रखा है | मेरी बधाई स्वीकार करें | आपकी दुसरी कवितायें भी पढने की इच्छा हो रही है | पढकर टिप्पणी करुंगा |
ताजे हालातों पर करारा प्रहार !
कचोटती पंक्तियों के बीच कुछ निराशावाद की झलक दिख रही है.
आदेश के बिना टिप्पणी कर रही हूँ. दुर्भाग्य से हमारे देश मे कईयों के लिये ये बात सच है.
nice job giri.....
u r really doing well sir
all lines are showing poor people feeling's..... n thier existence in real world
once again gr8 job giriraj
well done
सुन्दर किन्तु निराशावादी कविता । कड़वे सच जीवान के दिखाती हुई ।
घुघूती बासूती
ghughutibasuti.blogspot.com
समाजिक दशा पर प्रहार करती हुई कविता ,
आप ने आप उसे नही दिया है, अब मै उसे मै अपने दिन पर दूँगा तैयार कर के रखियेगा :)
कहते हैं कि साहित्य मानव समाज का वो दर्पण है जिसमें इसका वर्तमान, भूत और भविष्य तीनों का प्रतिबिम्ब देखा जा सकता है। आपकी कविता बढती मँहगाई का एक अत्यंत मार्मिक शब्द-चित्र तो पाठक के सम्मुख उपस्थित करती ही है, साथ ही भूखे रहने के अभ्यास के रूप में उस पर करारा व्यंग्य भी करती है। इतनी सुन्दर कविता के लिये आप निश्चय ही बधाई के पात्र हैं।
कविता एक तमाचा है व्यवस्था के मुख पर..मैं कविता पढते हुए महसूस कर रहा था कि भीतर कोई पिघला शीशा प्रवेश कर रहा है..
"वो हमेशा भविष्य की सोचता है
तभी तो
पिछले कईं सालों से
ज्यादा से ज्यादा भूखा रहकर
जीने का अभ्यास कर रहा है…"
आपको कोटिश्: बधाई..
उस भूख को ख़त्म कर दिया है
कब का उसने
They say step into my foot n try to walk like me....ain't possible...gareebi ko mahsoos kar ke likhna badi baat hai...bhadhaai
अभी अभी आप की कविता पढी सच्चाई को बयान करती हुई कविता अच्छी लगी सटीक लगी।
परन्तु एक बात कचोटने लगी है कि यदि आज का युवा इतना निराशावादी हो जाए तो देश का क्या होगा?
बहादूरी - बहादुरी
अंतड़िया- अंतड़ियाँ
"उसके शरीर से यों लिपट गया
मानों अंतड़िया निकाल कर ही मानेंगा"
अखबार की छपी खबर की भावना अखबार के शारीरिक संपर्क के कारण शरीर में भी महसूस होने का चित्रण अद्भुत है ।ये कविता की सबसे प्रभावित करने वाली पंक्तियाँ हैं ।
"शायद ये अख़बार वाले नहीं जानतें
जो बन सकती थीं
गरीबों की हत्यारिन,"
यहाँ महसूस होता है कि कवि शायद सारी गरीबी के समाधान का नायक ढूँढने में सफ़ल हुआ , पर बाद में नायक स्वार्थी होता दिखता है सिर्फ़ अपनी पेट की भूख को काबू में करके यह दूरदर्शी संतुष्ट हो जाता है ।
कुछ पाठकों ने कविता के निराशा वादी स्वर पर ध्यान दिया है - भैया , जब हमने समाज में ही निराशा का स्वर भर रखा है तो कविता तो कभी कभी निराशावादी होगी ही , खासकर जब वह सत्य दिखलाती हो ।
कविता में सिर्फ पीड़ा का चित्रण नहीं होना चाहिये साथ ही निराकरण भी होना चाहिये, अत्यन्त निराशा अच्छी बात नहीं।
॥दस्तक॥
बहुत अच्छा लेखन हे आपका
मन के अन्दर की पीड़ा को काफी अच्छी तरह से शब्दों के ताने बाने मे लपेट कर आपने बडा अच्छा लिखा हे इस कविता में।
कविता की पंक्तियाँ बडी ही चुन चुन के लिख रखी है । आपकी कविता से आपके मन का गुस्सा झलकता है। वैसे मुझे भी अखबार(media) पे बहुत गुस्सा आता है । आज के अखबार जनता की भलाई के लिये कम , पैसे कमाने ले लिये ज्यादा काम करते है । उदाहरण के तौर पे क्या कभी हिन्दी समाचार चैनल महिला क्रिकेट का live स्कोर दिखाता है क्या ?? क्यो नही दिखाते ..क्यों दुसरे खेलो को बडावा नही देते??
बार-बार आग्रह करने पर यह टिप्पणी की जा रही है! कविता पढ़कर अनायास परसाईजी का लिखा याद आता है -जो कौम भूखी मारी जाने पर सिनेमा में जाकर बैठ जाये, वह अपने दिन कैसे बदलेगी! अद्भुत सहनशीलता है इस देश के आदमीं में! और बड़ी भयावह तटस्थता! कोई उसे पीटकर उसके पैसे छीन ले , तो वह दान का मन्त्र पढ़ने लगता है।
गहरी वेदना का चित्रण हुआ है…बहुत उम्दा रचना…साधुवाद!
a good one... don't know what to feel and what to say....
जोशी जी,
निःसंदेह आप कविता के नये आयामों को जन्म दे रहे हैं। यह आज का ही कवि है जो चंद शब्दों में आधुनिक मानवता को झकझोरने का बल रखता है।
"वो हमेशा भविष्य की सोचता है
तभी तो
पिछले कई सालों से
ज्यादा से ज्यादा भूखा रहकर
जीने का अभ्यास कर रहा है…"
कविता इसके अधिक और कुछ नहीं कह सकती।
इसके अतिरिक्त मैं यह भी कहना चाहूँगा कि वर्तनीगत् अशुद्धियों को कम करने का प्रयास होना चाहिए।
संसोधन-
मानों- मानो
अंतडिया- अंतड़ियाँ
मानेंगा- मानेगा
बहादूरी- बहादुरी
बन सकती थीं- बन सकती थी
कईं- कई
आशा है आप ध्यान रखेंगे।
बहुत सुंदर रचना. सुन्दर इसलिये कि इस रचना से इसके पात्र का दर्द पुरी तरह से उभर कर आया है. यही आपके लेख की पुर्णता प्रकट होती है और आपके सोच की समपुर्णता भी.
kavita ki shuruaat pravahshaali thi jise aapne ant tak kayam rakha hai....aaj ke haalat ko bayan karti......achchi rachna......
So Nice, Warm, cool and heart tuchable your poem. I cannot present my feeling in words which I relise after read................
your Sincerely
Jaikishan Soni
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