आभारी हूँ राजीवजी की जिनसे मुझे गज़ल लिखने की प्रेरणा मिली.सो अपनी पहली गज़ल उन्हें(गुरुजी को)अर्पित करती हूँ....
यूँ तो तनहा हम अक्सर ही चला करते थे
पतझड में भी कुछ फूल खिला करते थे..
दामन से मेरे कारवां कितने ही गुज़रते रहे
दिल की रेत में निशां पर न मिला करते थे..
अपनों से ठोकरें ही तो खाते रहे हैं हम
के ज़ख्म जिस्म के भला क्यूँकर जला करते थे..
वो बूंद जिनको हम थे मझधार समझ बैठे
मौजों पे उतर जाना साहिल उन्हे कहते थे..
नीडों को छोड उड गये पंछी सभी मगर
हम जो ठहर गये तो काहिल हमें कहते थे..
कई ख्वाबगाहें बना डालीं जिनमें कि हम
अनकही ख्वाहिशों से खेला करते थे..
फुर्कत मे तेरी सरे शाम बाम पर गुज़्ररे
सुरज से हम भी कतरा-कतरा ढला करते थे..
मोम की थी वो कोठी पुरानी
और हम चौखट पर ही पिघलते थे....
तराने सब झूठे निकले अह्दो वफा के
होश न था की कब लम्हें फिसलते थे..
##### अनुपमा चौहान #####
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14 कविताप्रेमियों का कहना है :
बहुत सुन्दर रचना है अनुपमा जी..
हृदय को स्पर्श करती है पंक्तिया
"यूँ तो तनहा हम अक्सर ही चला करते थे
पतझड में भी कुछ फूल खिला करते थे.."
"वो बूंद जिनको हम थे मझधार समझ बैठे
मौजों पे उतर जाना साहिल उन्हे कहते थे.."
इसके अलावा ये बिम्ब:
"दिल की रेत में"
"सुरज से हम भी कतरा-कतरा ढला करते थे"
"लम्हें फिसला करते थे"
प्रभावित करते हैं|
बधाई|
*** राजीव रंजन प्रसाद
अनुपमा जी!
अब यह बात कि यह आपकी पहली ग़ज़ल है, कहीं और मत कहिएगा।
अभी तक आप कविताओं की देवी थीं , अब ग़ज़लों की मल्लिका हो गई हैं।
आपके कुछ शेर बहुत प्रभावित करते हैं-
"कई ख्वाबगाहें बना डालीं जिनमें कि हम
अनकही ख्वाहिशों से खेला करते थे..
मोम की थी वो कोठी पुरानी
और हम चौखट पर ही पिघला करते थे"
वैसे बहुत अधिक श्रेय राजीव जी को भी जाता है।
दोनों को कोटि-कोटि बधाईयाँ!!!
anupama ji aapki ye gazal bhaut hi khoob lagi aapne bhaut bhaut achhe se ghare se ek ek sher ko kaha hai
aur har sher apne aap main so so complete
aapko padhna bhaut achha laga
बहुत ही सुन्दर ग़ज़ल...
अनुपमाजी, आपकी यह ग़ज़ल पढ़ते समय कहीं भी ऐसा महसूस नहीं होता कि यह इस विद्या में आपका प्रथम प्रयास है। इसके लिए आपके साथ-साथ राजीवजी भी बधाई के पात्र है।
ये शेर आपकी इस ग़ज़ल की जान हैं -
वो बूंद जिनको हम थे मझधार समझ बैठे
मौजों पे उतर जाना साहिल उन्हे कहते थे..
फुर्कत मे तेरी सरे शाम बाम पर गुज़्ररे
सुरज से हम भी कतरा-कतरा ढला करते थे..
तराने सब झूठे निकले अह्दो वफा के
होश न था की कब लम्हें फिसलते थे..
अनुपमा जी, मैं आपकी किसी भी पंक्ति को उल्लेखित नहीं कर सकता क्योंकि पूरी कि पूरी रचना उल्लेखित हो जाएगी। भाव के हिसाब से इसका कोई तोड़ नहीं है। कहीं-कहीं तुकबंदी से आप बाहर गई हैं, फिर भी गज़ल के मूल को आपने बरकरार रखा है।
बधाई स्वीकार करें।
अनुपमा जी,
"मकबरा" के बाद कुछ ऐसी ही अति उत्कृष्ट रचना की आशा थी
बहुत ही सुन्दर गजल है
और मेरे मित्रों ने मेरे कहने के लिये कुछ शेष छोडा ही नहीं
बहुत बहुत बधाई आपको
गौरव
No Words....Its jus wonderful...tumhe dekh ke aur tumhari baato se ayasa nlagat nahi...ki tum itni gherayionse sochti ho... tu samne kuch aur...Maan se kuch aur ho...
Well all that i can say is.. Keep writing. My all best wishes to U!!!
God Bless U....
अतिसुन्दर
यह मान पाना कि यह गजल रचनाकार की पहली गजल है जरा मुश्किल लगता है। गजल में जो चीज सबसे पहले आकर्षित करती है वो है इसकी भाषा की सरलता। आम बोलचाल की भाषा में अपने विचारों को इतनी खूबसूरती से पेश करना कवयित्री की क्षमता को ही प्रतिबिंबित करता है। कुछ शेर निश्चित रूप से बेहद खूबसूरत हैं जो पाठकों को काफी समय तक याद रहेंगे। इतनी खूबसूरत गजल के लिये अनुपमा जी को तथा हिन्दी-युग्म को बधाई।
अच्छी गजलें है, जब पहली ही इतनी लाजवाब है तो आगे तो कहर ढायेगी :)
बस लिखती रहे
अनुपमा जी बहुत अच्छी ग़ज़ल लिखी है। आपको बहुत-बहुत बधाई।
रचना के बारे में तो कहने को कुछ भी नहीं बचा यारों ने बहुत कुछ कह दिया है, इतना जरूर कहूँगा कि बहुत ही सुन्दर रचना :)
www.nahar.wordpress.com
shilp kee drishti se kaheen kaheen rawanee ka abhaav khalta hai. ise ekant me gaakar padhenge to us jagah jarur khatkega.gazal saadhne ka sabse sahi tareeka hai ki use baar baar gaakar padha jai.agar dhara ka pravaah kahin khandit hota hai to pakad men aa jaega. dusree cheej ki gazal men kam se kam ek sher bhee agar aisa aa jata hai jise sunkar koee wah waah kahe bina nahin rah pata to wah gazal kaamyaab nahin hai,khair yah sab saadhana se aata hai,aap men bhee aseem sambhaavnaen hain aur likhte rahen. aap kaa ek sher bhee kaee sheron par bharee pad sakta hai.likhte aur padhte rahe.dhanyavad. snehil
जो बात इस रचना को पढ़कर कहना चाहता था ,वह जब नीचे विनय औझा की टिपण्णी पढी तो पाया वह कह चुके हैं।जैसे जिन्दगी में अनुशासन से बहुत कुछ मिलता है,वैसे ही गज़ल में छंद अनुशासन भी उतना आवश्यक है ,जितनी भावप्रवणता।थोड़ा इधर भी ध्यान दें अनुपमा जी।सुन्दर भावाभिव्यक्ति पर बधाई।श्याम
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