यह मेरा नया प्रयास है जिसका आदि गिरिराज जी ने प्रारम्भ किया और अंत करने के लिये मुझे निदेर्शित किया है। बडा कठिन होता है कि किसी अन्य के अन्त: करण की आवाज को अपनी आवाज देना। मै इस कार्य मे कितना सफल हुआ हूँ यह तो आप ही बतायेगें।
गीतासार सुना रहे बाबा से,
पूछ बैठा एक अबोध बालक।
कहाँ है आपका प्रभू बाबा,
मुझे दिखलाओ जरा झलक।।1।।
जो हो रहा है वो अच्छा है,
जो हुआ वो भी अच्छा हुआ।
होगा कल भी अच्छा ही,
क्या यही उसका विधान हुआ? ।।2।।
कहते हो ना तुम ही बाबा,
बच्चों में ही इसका वास है।
तो क्या मैं यह समझूँ बाबा,
ईश्वर भी सड़ी-गली लाश है।।3।।
है ममता देखो बिलख रही,
है मानवता भी सुलग रही।
नहीं सुनता इनको गीतासार,
हैं माँयें भी हो व्याकुल रही।।4।।
कब लेगा इसे पूछो अवतार,
या कहकर कलयुग टालोगे?
या चरम जानने को सम्मुख,
इसके अपना बच्चा डालोगे? ।।5।।,
तुम्हीं कहा करते हो ना बाबा,
यह पाप घड़ा जब भरता है।
मानव रूप में अवतरित हो,
वो दुष्टों को दण्डित करता है।।6।।
सबका रखवाला कहते हो उसको,
पल-पल की ख़बर वो रखता है।
होकर मानव मैं हुआ हूँ लज्जित,
कैसे जानकर सब वो सहता है? ।।7।।
कुछ तो बतलाओ तुम बाबा,
क्या है अडिग विश्वास अभी?
कब जागेगा यह पत्थर बाबा,
क्या नहीं करेगा संहार कभी?।।8।।
बाबा के कुछ समझ ना आया
है कौन बच्चा और कौन बड़ा?
हो विस्मित बाबा जिज्ञासु बना
यह बालक है या है प्रभू खड़ा?।।9।।
पूछ बैठा एक अबोध बालक।
कहाँ है आपका प्रभू बाबा,
मुझे दिखलाओ जरा झलक।।1।।
जो हो रहा है वो अच्छा है,
जो हुआ वो भी अच्छा हुआ।
होगा कल भी अच्छा ही,
क्या यही उसका विधान हुआ? ।।2।।
कहते हो ना तुम ही बाबा,
बच्चों में ही इसका वास है।
तो क्या मैं यह समझूँ बाबा,
ईश्वर भी सड़ी-गली लाश है।।3।।
है ममता देखो बिलख रही,
है मानवता भी सुलग रही।
नहीं सुनता इनको गीतासार,
हैं माँयें भी हो व्याकुल रही।।4।।
कब लेगा इसे पूछो अवतार,
या कहकर कलयुग टालोगे?
या चरम जानने को सम्मुख,
इसके अपना बच्चा डालोगे? ।।5।।,
तुम्हीं कहा करते हो ना बाबा,
यह पाप घड़ा जब भरता है।
मानव रूप में अवतरित हो,
वो दुष्टों को दण्डित करता है।।6।।
सबका रखवाला कहते हो उसको,
पल-पल की ख़बर वो रखता है।
होकर मानव मैं हुआ हूँ लज्जित,
कैसे जानकर सब वो सहता है? ।।7।।
कुछ तो बतलाओ तुम बाबा,
क्या है अडिग विश्वास अभी?
कब जागेगा यह पत्थर बाबा,
क्या नहीं करेगा संहार कभी?।।8।।
बाबा के कुछ समझ ना आया
है कौन बच्चा और कौन बड़ा?
हो विस्मित बाबा जिज्ञासु बना
यह बालक है या है प्रभू खड़ा?।।9।।
यहाँ तक कि पक्तिंयॉं कवि गिरिराज जी की है, और इस पक्तिंयों का श्रेय उन्ही को दिजिये, इसके बाद मैने लिखा है।
यह बच्चा कुछ और नहीं,
बात निठारी की करता है।
बाबा के आगे यह अबोध,
प्रश्न कई खड़े करता है।।10।।
क्या हो रहा है समाज मे,
किसी को इसकी खबर नहीं।
नैतिकता का पतन हो रहा,
व्यक्ति मूल्य का ह्रास हो रहा।।11।।
जीवन मूल्य पतित हो रहा,
मानव मूल्य का परिहास हो रहा।
बच्चे, जिनमें ईश वास करते है,
उनसे भोग विलास हो रहा।।12।।
बात निठारी की करता है।
बाबा के आगे यह अबोध,
प्रश्न कई खड़े करता है।।10।।
क्या हो रहा है समाज मे,
किसी को इसकी खबर नहीं।
नैतिकता का पतन हो रहा,
व्यक्ति मूल्य का ह्रास हो रहा।।11।।
जीवन मूल्य पतित हो रहा,
मानव मूल्य का परिहास हो रहा।
बच्चे, जिनमें ईश वास करते है,
उनसे भोग विलास हो रहा।।12।।
भोग विलास और काम के दर्शन,
करते है हर मुख पर नर्तन।
क्षण भर के आनन्द के खातिर,
कितनी बलात हत्या करते है।।13।।
व्यक्ति की हरकत चरम पर है
इनके कुकत्यो का कब अन्त है?
कब आयेगी इन पत्थरों मे जान?
कब लेगे ईश्वर अवतार ? ।।14।।
करते है हर मुख पर नर्तन।
क्षण भर के आनन्द के खातिर,
कितनी बलात हत्या करते है।।13।।
व्यक्ति की हरकत चरम पर है
इनके कुकत्यो का कब अन्त है?
कब आयेगी इन पत्थरों मे जान?
कब लेगे ईश्वर अवतार ? ।।14।।
बेटों के घर आने की आस में,
कि बेटा आयेगा इस विश्वास में।
अपने कुल दीपक की आस में,
माँ रोती है पिता के साथ में।।15।।
कि बेटा आयेगा इस विश्वास में।
अपने कुल दीपक की आस में,
माँ रोती है पिता के साथ में।।15।।
यह हृदय विदारक दृश्य देख कर,
बेटा पूछ उठा अपने बाबा से।
क्या बाबा इसका अन्त कभी होगा?
क्या कु नर्तन बन्द कभी होगा? ।।16।।
बालक के प्रश्नों को सुन कर,
बाबा की आखें भर आई।
कुछ रूक कर बोले बाबा जी,
हे बालक तुम ही हो राघुराई।।17।।
बाबा की आखें भर आई।
कुछ रूक कर बोले बाबा जी,
हे बालक तुम ही हो राघुराई।।17।।
यह नर्तन तभी बन्द हो पायेगा,
जब तुम ही साहस जुटाओगे।
यह भूमि तभी हो पायेगी पावन,
जब खुद पर विश्वास दिखाओगें।।18।।
जब तुम ही साहस जुटाओगे।
यह भूमि तभी हो पायेगी पावन,
जब खुद पर विश्वास दिखाओगें।।18।।
अब अवतार नही ईश्वर का होगा,
अब अवतार तुम्हीं को लेना है।
अपने पौरूष के बल पर,
तुम्हें नाश पाप का करना है।।19।।
अब अवतार तुम्हीं को लेना है।
अपने पौरूष के बल पर,
तुम्हें नाश पाप का करना है।।19।।
-----प्रमेन्द्र प्रताप सिंह
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17 कविताप्रेमियों का कहना है :
कब आयेगी इन पत्थरो मे जान?
कब लेगे ईश्वर अवतार ?
गंभीर प्रश्न है और इतने संवेदनशील विषय को उठा कर जो चित्रण आपनें प्रस्तुत किया है उसे बहुत से मुर्दे कानों तक पहुँचानें की आवश्यकता है|
*** राजीव रंजन प्रसाद
यह सामूहिक कविता लेखन मैं पहली बार देख रहा हूं। यह सुना था कि ब्लॉग पर सामूहिक लेखन संभव है, कुछ उपन्यास इस तरह से लिखे गये हैं, लेकिन देख पहली बार रहा हूं। प्रेमेंद्र जी की कविता गिरिजी की बात को आगे ही बढ़ाती है। बहुत बधाई।
गिरिराज जी और प्रमेन्द्र जी
बहुत ही सुन्दर कविता आपने लिखी, मैं आपको इस नये प्रयास के लिये बधाई देता हूँ, अगर राजीव रंजन जी और शैलेष भारतवासी जी भी इसमें अपना योगदान देकर आगे बढ़ायें या जहाँ से गिरिराज जी ने छोड़ा और प्रमेन्द जी ने शुरू किया उसी तरह अपने अपने विचार कविता के माध्यम से रखें तो और भी ज्यादा अच्छा रहेगा।
www.nahar.wordpress.com
marmsparshi,adhbhud kavita...yeh kavita insaano ko zinda karne ka zariyaa ban sakti hai....गिरिराज जी और प्रमेन्द्र जी aap dono meri taraf se bhadhaai sweekaaren...गिरिराज जी is kavita kaa main kaafi arse se intezaar kar rahi thi....mere intezaar ka parinaam bahut sukhad hai...
इतनी सुन्दर रचना के लिए गिरिराज जी व प्रमेन्द्र जी को साधुवाद। कविता वर्णित विषय को पूरी तरह से मानो पाठक के समक्ष लाकर उपस्थित कर देती है। दोनों कवि विषय को अपनी सहानुभूतिपूर्ण अभिव्यक्ति दे पाने में पूरी तरह कामयाब रहे हैं।
गिरि जी ने कल सामूहिक कविता लिखने का विचार मेरे समक्ष रखा था तब मैं इस पर विचार कर रहा था। मगर जब आप सुबह 'हिन्द-युग्म' पर इस तरह की पहली सामूहिक कविता भी देखने को मिली तो लगा कि इस संदर्भ जल्दी ही बड़े पैमाने पर एक पहल करनी होगी।
बहुत अच्छा और बहुत सुन्दर प्रयास है।
मगर एक पहल हमें और करनी होगी कि कविताओं में मात्र कुंठा और निराशा ही न हों बल्कि समाधान का समावेश हो जैसा कल एक पाठक ने सुझाव दिया था।
प्रेमेन्द्र,
निर्वाह सुन्दर किया है. कुछ पंक्तियाँ तुम्हारे शब्दों ने याद दिला दीं
हमने सिन्दूर में पत्थरों को रँगा
मान्यता दी बिठा बरगदों के तले
भोर, अभिषेक किरणों से करते रहे
घी के दीपक रखे रोज संध्या ढले
धूप अगरू की खुशबू बिखेरा किये
और गाते रहे मंगला आरती
हाथ के शंख से जल चढ़ाते रहे
घंटियां साथ में लेके झंकारती
भाग्य की रेख बदली नहीं आज तक
कोशिशें सारी लगता विफल हो गईं
आस भरती गगन पर उड़ानें रही
अपने आधार से कट विलग हो गई
अब अवतार नही ईश्वर का होगा,
अब अवतार तुम्हीं को लेना है।
अपने पौरूष के बल पर,
तुम्हें नाश पाप का करना है।।19।।
बहुत खूब ...अच्छा लिखा है भाईया आप दोनो ने
बधाई ॥
अच्छा प्रयास है. इस तरह से अलग अलग मन की अभिव्यक्तियां एक दूसरे से सामनजस्य स्थापित करने का प्रयास एक नया रंग भर रहा है, जारी रखो, यही उम्मीद है. बधाई.
हमें यह प्रयास व कविता दोनो पसन्द आए.
बधाई. आगे भी ऐसे प्रयास हो.
दो बंधुओं ने साथ मिलकर जो प्रयास किया है, वह बहुत हीं काबिलेतारीफ है।
ये पंक्तियाँ मुझे विशेषकर पसंद आईं।
कहते हो ना तुम ही बाबा,
बच्चों में ही इसका वास है।
तो क्या मैं यह समझूँ बाबा,
ईश्वर भी सड़ी-गली लाश है।।3।।
यह नर्तन तभी बन्द हो पायेगा,
जब तुम ही साहस जुटाओगे।
यह भूमि तभी हो पायेगी पावन,
जब खुद पर विश्वास दिखाओगें।।18।।
सदियों पुरानी बातें, नये कलेवर में, कभी सामने आकर चकित करती हैं, एक आलम्बन सा जगाती हैं और कभी कभी थकी थकी सी "हां तुम भी तो हो, तुम्हे कहां भुलाया अभी तक" वाले झूठे भाव को इंगित ही नहीं, प्राचीनता को नवीनता की अधारशिला पर स्थापित भी करती हैं ।
हर काल की प्रथक आवश्यकतायें और प्रथक मानक हैं, कविता भले ही दो कवियों की लेखनी से रचित हो, पर हर कहीं नयी जमीन पर, पुराने आदर्शों को रोपने का प्रयास कर रही है । पूरी समझदारी और जिम्मेदारी से, नर ही नारायण बन सकते हैं, गिरिराज कहते हैं, "बालक है या प्रभू खडा", तो प्रमेन्द्र पुरुष के पुरुषोत्तम बनने, बन सकने पर मुहर लगाते हैं । घनघोर अंधेरे मे भी, विश्वास का सम्बल लिये ऐसे कवि, रचनाकार (कवितायें नहीं कहूंगा), उपलब्धि हैं, समाज के लिये ।
कविता इसलिये नहीं कहा क्योकि, कविता, कवित्त कि दृश्टि से निराश भी करती है और थकाती भी है । गिरिराज तो अपनी समर्थ लेखनी से गति जगाते हैं... "है ममता देखो बिलख रही,
है मानवता भी सुलग रही।" पर प्रमेन्द्र अधिकतर जगहों पर बोझिल बना गये हैं...
"बेटों के घर आने की आस में,
कि बेटा आयेगा इस विश्वास में।
अपने कुल दीपक की आस में,
माँ रोती है पिता के साथ में।।15।।"..जैसे यहां, भाव निसन्देह अच्छे हैं , पर कविता थका देती है, तुक के लिये आग्रह कहना अधिक उचित होगा, बेशक थकाता है ।
प्रमेन्द्र की प्रसन्शा करूंगा कि, उन्होने गिरिराज की एक गीतिमय पर हर पंक्ति पुरानी सी कविता को एक ताजा ही नहीं बेहद संवेदन्शील मुद्दे से जोड़ा ही नहीं, आशा रोपी है, और वह भी बालक(मानव) के ही निराश मन में....किसी अवतार के लिये चुप नहीं बैठना......"अब अवतार तुम्हीं को लेना है।
अपने पौरूष के बल पर,
तुम्हें नाश पाप का करना है।"...बधाई ।
सभी उपरोक्त टिप्पणी कारों को स्वागत एवं धन्यवाद।
उपस्थित जी मुझे आपकी की अनुपस्थिति की चिंता हो रही थी। अच्छा लगा आपकी विश्लेषणत्मक को पढ़ कर,आप सही कह रहे है मै भी निम्न पक्तिंयॉं लिखते समय कुछ शंका हो रही थी किन्तु मैने साचा जब बन ही गई है तो हाटाने से क्या लाभ और यह काफी कुछ हद तक कविता के भावों को छू भी रही थी।
"बेटों के घर आने की आस में,
कि बेटा आयेगा इस विश्वास में।
अपने कुल दीपक की आस में,
माँ रोती है पिता के साथ में।।15।।"..
आशा है कि ऐसा ही विश्लेषण आप आगे भी करेगें।
प्रमेन्द्रजी, आपका बहुत-बहुत धन्यवाद की आपने मेरे भावों को समझकर इस अधुरी कविता को एक अर्थपूर्ण अंत तक पहूँचाया। जहाँ मैं मात्र प्रश्नों मे ही उलझकर रह गया था, आपने समाधान पर भी प्रकाश डाला है और इसके लिए आप बधाई के पात्र है।
राजीवजी, अविनाशजी, सागरभाई, अनुपमाजी, अजयजी, राकेशजी, शैलेशजी, रितेशजी, गुरूदेव, तन्हाजी, संजयजी और रवीन्द्रजी (उपस्थितजी) की टिप्पणियाँ इस सामुहिक प्रयास का उत्साहवर्धन कर रही है, अच्छा लगा यह देखकर।
रवीन्द्रजी की टिप्पणी को समझने के लिए मुझे इसे 5-6 बार पढ़ना पड़ा, इनके शब्दों में गुढ़ता है और संदेश भी।
सदियों पुरानी बातें, नये कलेवर में, कभी सामने आकर चकित करती हैं, एक आलम्बन सा जगाती हैं और कभी कभी थकी थकी सी "हां तुम भी तो हो, तुम्हे कहां भुलाया अभी तक" वाले झूठे भाव को इंगित ही नहीं, प्राचीनता को नवीनता की अधारशिला पर स्थापित भी करती हैं ।
काव्य की भाँति उलझती यह पंक्तियाँ क्या कहना चाह रही है? समझने में बहुत समय लगा।
हर काल की प्रथक आवश्यकतायें और प्रथक मानक हैं, कविता भले ही दो कवियों की लेखनी से रचित हो, पर हर कहीं नयी जमीन पर, पुराने आदर्शों को रोपने का प्रयास कर रही है । पूरी समझदारी और जिम्मेदारी से, नर ही नारायण बन सकते हैं, गिरिराज कहते हैं, "बालक है या प्रभू खडा", तो प्रमेन्द्र पुरुष के पुरुषोत्तम बनने, बन सकने पर मुहर लगाते हैं । घनघोर अंधेरे मे भी, विश्वास का सम्बल लिये ऐसे कवि, रचनाकार (कवितायें नहीं कहूंगा), उपलब्धि हैं, समाज के लिये ।
"नयी जमीन पर पुराने आदर्शों को रोपने का प्रयास" कुछ अटपटा सा लगा, आदर्श पुराने भी हो सकते है? समझने का प्रयत्न जारी है।
कविता इसलिये नहीं कहा क्योकि, कविता, कवित्त कि दृश्टि से निराश भी करती है और थकाती भी है । गिरिराज तो अपनी समर्थ लेखनी से गति जगाते हैं... "है ममता देखो बिलख रही,
है मानवता भी सुलग रही।" पर प्रमेन्द्र अधिकतर जगहों पर बोझिल बना गये हैं...
"बेटों के घर आने की आस में,
कि बेटा आयेगा इस विश्वास में।
अपने कुल दीपक की आस में,
माँ रोती है पिता के साथ में।।15।।"..जैसे यहां, भाव निसन्देह अच्छे हैं , पर कविता थका देती है, तुक के लिये आग्रह कहना अधिक उचित होगा, बेशक थकाता है ।
यहाँ रवीन्द्रजी ने इस रचना का बारिकी से अवलोकन कर अच्छा मार्गदर्शन किया है, भविष्य में ऐसे मार्गदर्शन कवि/रचनाकार का काफि सहयोग करते हैं। रवीन्द्रजी बधाई के पात्र हैं।
प्रमेन्द्र की प्रसन्शा करूंगा कि, उन्होने गिरिराज की एक गीतिमय पर हर पंक्ति पुरानी सी कविता को एक ताजा ही नहीं बेहद संवेदन्शील मुद्दे से जोड़ा ही नहीं, आशा रोपी है, और वह भी बालक(मानव) के ही निराश मन में....किसी अवतार के लिये चुप नहीं बैठना......"अब अवतार तुम्हीं को लेना है।
अपने पौरूष के बल पर,
तुम्हें नाश पाप का करना है।"...बधाई ।
अंत कवि की पीठ ठोककर रवीन्द्रजी ने यह साबित कर दिया कि वो कहीं भी कवि को हतोत्साहित करना नहीं चाहते और हमेशा उनका उत्साहवर्धन करने को तत्पर है। रवीन्द्रजी को बहुत-बहुत धन्यवाद।
आप तारीफ के काबिल है...
बेहतरीन , प्रश्न खड़े करती हुई खुद को अंतिम कोटि तक सबल बनाने की प्रेरणा देती हुइ कविता के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद
iss kavita mein dam hai boss.
bahut khoob.....
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)